सज्जाद ज़हीर : साहित्य में प्रगतिशीलता की नींव रखने वाले रहनुमा

हिन्दुस्ताँनी अदब में सज्जाद जहीर की शिनाख्त, तरक्की पसंद तहरीक के रूहे रवां के तौर पर है। वे राइटर, जर्नलिस्ट, एडिटर और फ्रीडम फाइटर भी थे। साल 1935 में अपने चंद तरक्कीपसंद दोस्तों के साथ लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ की नींव डालने वाले सज्जाद जहीर ने अपनी सारी ज़िन्दगी प्रगतिशील मूल्यों को स्थापित करने और अवाम को वाजिब हक दिलवाने, समाजी इन्साफ की लड़ाई लड़ने में गुजार दी।

सज्जाद मुल्क के लाखों पसमांदा इन्सानों में ऐसा शऊर पैदा करना चाहते थे, जो उन्हें सामाजिक, आर्थिक शोषण और सियासी गुलामी से निजात दिलाने में मददगार साबित हो। 5 नवम्बर, 1905 को लखनऊ में जन्में सज्जाद जहीर अपने दोस्तों में बन्ने भाईके नाम से मकबूल थे। सांस्कृतिक आंदोलन के जरिए वे अवाम में बेदारी लाना चाहते थे।

गोया कि अवाम में सियासी, समाजी जागरूकता और सांस्कृतिक सजगता पैदा करके ही उन्हें अपनी आज़ादी, हक और हुकूक को हासिल करने के लिए प्रेरित किया जा सकता था। सज्जाद जहीर का इस बारे में साफ-साफ मानना था कि हिन्दुस्तान की आज़ादी में लेखक, संस्कृतिकर्मी ही एक अहम भूमिका निभा सकते हैं।

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मकसद के लिए छोड़ा लंदन

सज्जाद जहीर की ये क्रांतिकारी सोच यकायक नहीं बनी थी, बल्कि इसके पीछे उस दौर का हंगामाखेज बैकग्राउंड था। कानूनी तालीम के लिए अपने मुल्क से दूर गये सज्जाद ज़हीर लंदन में साल 1927 से 1935 तक रहे। लंदन में जहीर की तालीम के साल, दुनियावी ऐतबार से बदलाव के साल थे।

विश्व परिदृश्य में तेजी से घट रही इन सब घटनाओं ने सज्जाद जहीर को काफी मुतास्सिर किया। जिसका सबब, लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना थी। आगे चलकर उन्होंने तरक्कीपसंद तहरीक को आलमी तहरीक का हिस्सा बनाया। स्पेन के फासिस्ट विरोधी संघर्ष में सहभागिता के साथ-साथ सज्जाद जहीर ने साल 1935 में आंद्रे गीडे व मेलरौक्स द्वारा आयोजित विश्व बुद्धिजीवी सम्मेलन में भी हिस्सा लिया। इस सम्मेलन के अध्यक्ष मैक्सिम गोर्की थे।

अपनी ज़िन्दगी को एक नयी राह देने और एक खास मक़सद को हासिल करने के इरादे से सज्जाद जहीर ने साल 1936 में लंदन को छोड़ा। लंदन से भारत वापिस लौटते ही उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की तैयारियां शुरू कर दीं। प्रगतिशील लेखक संघके घोषणा-पत्र पर उन्होंने भारतीय भाषाओं के तमाम बड़े लेखकों से विचार-विनिमय किया।

इस दौरान वे कन्हैयालाल मुंशी, फिराक गोरखपुरी, डॉ. सैयद ऐजाज हुसैन, शिवदान सिंह चौहान, पं. अमरनाथ झा, डॉ. ताराचंद, अहमद अली, मुंशी दयानरायन निगम, महमूदुज्जफर, सिब्ते हसन आदि से मिले। प्रगतिशील लेखक संघके घोषणा-पत्र पर सज्जाद जहीर ने उनसे राय-मशिवरा किया। वह दिन भी आया, जब प्रगतिशील लेखक संघ की पहली कॉन्फ्रेंस लखनऊ में आयोजित हुई। कॉफ्रेंस की सदारत मुंशी प्रेमचंद ने की।

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मिला समर्थन

प्रगतिशील लेखक संघ का अधिवेशन बेहद कामयाब रहा। जिसमें साहित्य से जुड़े कई विचारोत्तेजक सत्र हुए। अहमद अली, फिराक गोरखपुरी, मौलाना हसरत मोहानी आदि ने अपने आलेख पढ़े। अधिवेशन में उर्दू के बड़े साहित्यकार तो शामिल हुए ही, हिन्दी से भी प्रेमचंद के साथ जैनेन्द्र कुमार, शिवदान सिंह चौहान ने शिरकत की।

अधिवेशन में लेखकों के अलावा समाजवादी लीडर यूसुफ मेहरअली, जयप्रकाश नारायण, इंदुलाल याज्ञनिक और कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने हिस्सा लिया। सज्जाद जहीर इस संगठन के पहले महासचिव चुने गये। वे साल 1936 से 1949 तक प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव रहे।

बन्ने भाई के व्यक्तित्व और दृष्टिसम्पन्न परिकल्पना की ही वजह से तरक्कीपसंद तहरीक आगे चलकर, हिन्दूस्तान की आज़ादी की तहरीक बन गई। यह आंदोलन आहिस्ता-आहिस्ता देश की सारी भाषाओं में फैलता चला गया। इन सांस्कृतिक आंदोलनों का आखिरी मकसद मुल्क की आज़ादी था।

अपनी शुरुआती ज़िन्दगी में सज्जाद जहीर, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य भी रहे। इलाहाबाद शहर कांग्रेस कमेटी के महासचिव होकर, उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ काम किया। कांग्रेस के मुख्तलिफ महकमों, खास तौर पर विदेशी मामलों और मुस्लिम जनसंपर्क से भी वे जुड़े रहे।

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रचनात्मक संघठन कौशल्य

सज्जाद जहीर में रचनात्मक, संगठनात्मक गुण अद्भुत थे। अपने इस कौशल से ही उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टीऔर ऑल इंडिया किसान सभाजैसी किसानों और मजदूरों की जबर्दस्त संस्थाएं बनाईं। उनकी बेहतरी के लिए काम किया। कांग्रेस में काम करने के दौरान उनका वास्ता, उस वक्त अंडरग्राउण्ड चल रहे कम्युनिस्ट लीडर कॉमरेड पीसी जोशी से हुआ।

जोशी के साम्यवादी विचारों से वे बेहद प्रभावित हुए। आगे चलकर कांग्रेस छोड़ वे कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया में शामिल हो गए। वे उत्तर प्रदेश इकाई के सचिव भी रहे। अपने राजनैतिक, सांस्कृतिक आंदोलन के दौरान सज्जाद को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भड़काऊ लेखन व तकरीर देने के जुर्म में तीन मर्तबा जेल हुई। अपनी सजा और कैद के बावजूद वे अलग-अलग नामों से अखबारों के लिए लगातार लिखते रहे।

कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार कौमी जंगऔर नया ज़मानाअखबार में उन्होंने प्रधान सम्पादक की हैसियत से काम किया। लंदन में जर्नलिज्म के कोर्स, उनकी संपादकीय सूझबूझ और अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि की वजह से इन पत्रों ने अवाम के बीच जल्द ही एक नया मुकाम हासिल कर लिया। यह पत्र हिन्दुस्तान के प्रगतिशील लेखकों के मुख्य पत्र और उनकी आवाज बन गए।

इन अखबारों के मार्फत अवाम में बेदारी फैलाना ही उनका अहम मकसद था। प्रगतिशील लेखक संघ की लोकप्रियता, देश के सभी प्रदेशों के लेखकों के बीच फैल गई। इस आंदोलन में लेखकों का शामिल होना, प्रगतिशीलता की पहचान हो गई। प्रगतिशील आंदोलन ने जहां धार्मिक अंधविश्वास, जातिवाद व हर तरह की धर्मांधता की मुखालफत की, तो वहीं साम्राज्यवादी, सामंतशाही व आंतरिक सामाजिक रूढ़ियों रूपी दोहरे दुश्मनों से भी टक्कर ली।

एक समय ऐसा भी आया, जब उर्दू के सभी बड़े साहित्यकार प्रगतिशील लेखक संघ के बैनर तले थे। इन लेखकों की रचनाओं ने मुल्क मे आज़ादी के हक में एक समां बना दिया। यह वह दौर था, जब तरक्कीपसंद लेखकों को नये दौर का रहनुमा समझा जाता था।

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पाकिस्तान में जुल्मों-सितम

आज़ादी के बाद सज्जाद जहीर को कम्युनिस्ट पार्टी के फैसले की वजह से कुछ समय के लिए पाकिस्तान जाना पड़ा। वहां उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ पाकिस्तान का महासचिव चुन लिया गया। वहां उन्होंने विद्यार्थियों, मजदूरों और ट्रेड यूनियन के संगठन का जिम्मा संभाला। मगर पाकिस्तान में भी हालात उनके मनमाफिक नहीं थे। उस वक्त की कट्टरपंथी सरकार के चलते, उन्होंने वहां भी अंडरग्राउण्ड रहकर काम किया।

चंद साल बाद ही हुकूमत-ए-पाकिस्तान ने रावलपिंडी साजिशकेस में उन्हें तरक्कीपसंद शायर फैज़ अहमद फैज़ के साथ गिरफ्तार कर लिया। मुकदमे और सजा के दरमियान उन्होंने हैदराबाद, सिंध, लाहौर, मच्छ और कोयटा की जेलों में बेहद जुल्मो-सितम सहते हुए, जैसे-तैसे अपने पांच साल गुजारे।

अदालत में सरकारी वकील ने उन्हें सजा-ए-मौत देने की मांग की। भारत सरकार के अभियान और सारी दुनिया के बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों के दवाब से पाकिस्तान सरकार को आखिरकार, सज्जाद जहीर को जेल से रिहा करना पड़ा।

रिहाई के बाद सज्जाद जहीर, हिन्दुस्तान वापस आ गये। उन्होंने एक बार फिर प्रगतिशील लेखक संघ की गतिविधियां तेज कर दीं। आज़ादी मिलने के बाजूद, उनकी लड़ाई अब भी अधूरी थी।

दुनिया में जाति, रंग, नस्लवाद, साम्राज्यवाद के खतरे अब भी बरकरार थे। हिन्दुस्तान आने के साल भर के अंदर ही उन्होंने डॉ. मुल्कराज आनंद के साथ रूस में अफ्रो-एशियाई साहित्यकारों की पहली कॉन्फ्रेंस आयोजित की। जो आखिरकार अफ्रो-एशियाई लेखकों का जबरदस्त आंदोलन साबित हुआ।

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लेखन कार्य

भारतीय लेखक और सांस्कृतिक नेता के तौर पर उन्होंने कई देशों की यात्राएं कीं। भारत से बाहर जर्मनी, पौलेण्ड, रूस, चेकेस्लोवाकिया, हंगरी, बल्गारिया, रोमानिया आदि देशों में इस आंदोलन का विस्तार किया। समाजवाद में गहरा अकीदा रखने वाले सज्जाद जहीर, फासिस्टों को छिपा हुआ साम्राज्यवादी मानते थे।

यूं तो सज्जाद जहीर की ज़िन्दगी का ज्यादातर अरसा संगठनात्मक कार्यों में ही बीता। लेकिन फिर भी वे साहित्यिक लेखन के साथ-साथ देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक और राजनैतिक मसलों पर मुसलसल लिखते रहे। साहित्यिक लेखन में उन्होंने जितना भी लिखा, वह सब मील का पत्थर है।

साल 1935 में ही पेरिस में लिखा गया उनका छोटा उपन्यास लंदन की एक रातजैसा कि नाम से बजाहिर है सिर्फ एक रात का तफसरा है। उपन्यास में उन्होंने अपने मुल्क की आज़ादी की चाह लिए, परदेस में रह रहे नौजवानों के जज्बात का शानदार चित्रण किया है। पिघला नीलमसज्जाद जहीर की नज्मों का संग्रह है, जो उन्होंने अपनी जिंदगी के आखिरी दौर में लिखा।

इन सब रचनाओं के अलावा उनका अहम अदबी शाहकार रौशनाईहै। यह किताब उन्होंने पाकिस्तान की जेलों में कैद की हालत में लिखी थी। रौशनाईको अदबी हल्कों में प्रगतिशील लेखक संघ के प्रमाणिक इतिहास के तौर पर मकबूलियत हासिल है।

यह किताब तरक्कीपसंद मुसन्निफ अंजुमनका ही अकेला दस्तावेज नहीं है, बल्कि आज़ादी के जद्दोजहद के पूरे हंगामाखेज दौर और उस वक्त के सियासी, समाजी हालातों का भी मुकम्मल खाका हमारी नजरों के सामने पेश करती है।

सज्जाद जहीर ने किताब रौशनाईके साथ-साथ ईरान के अजीम गज़लगो शायर हाफिज शिराजी की शायरी पर भी एक शोध प्रबंध जिक्र-ए-हाफिजलिखा है। तरक्की पसंद तहरीक, अदब और सज्जाद जहीर’, ‘मजामीन-ए-सज्जाद जहीर’, ‘उर्दू हिंदी हिन्दूस्तानी’, ‘उर्दू का हाल और मुस्तकबिलउनकी दीगर किताबें हैं।

13 सितम्बर 1973 को अल्माअता, (सोवियत संघ) अब कजाकिस्तान में अचानक दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। अवामदोस्त सज्जाद जहीर ने अदब को कलावादी दायरे से बाहर निकाल कर, अवाम की ज़िन्दगी और उसके उतार-चढ़ावों से जोड़ा था। अदब और हिन्दुस्तानी तहजीब को वे ऐसा हथियार मानते थे, जिसकी धार से गुलामी की बेड़ियों को तोड़ा जाना मुमकिन है।

हमें आज़ादी मिले सात दशक से ज्यादा गुजर गए, लेकिन आज भी मुल्क में रंग, नस्ल, जाति, महजब की जकड़बंदियां ज्यों के त्यों कायम हैं। फिरकापरस्त, पूंजीवादी, साम्राज्यवादी ताकतें दुनिया के कई हिस्सों में अवाम के हकों पर कुठाराघात कर रही हैं। मानवाधिकारों पर नित्य नए हमले हो रहे हैं। धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक आवाजों का दमन किया जा रहा हो। ऐसे हालात में सज्जाद जहीर, उनके विचार और प्रगतिशील आंदोलन पहले से भी ज्यादा मौजू हो जाता है।

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