मजाज़ से मिलने लड़कियां चिठ्ठियां निकाला करती थीं

सूफी शायर उस्मान हारूनी के इस शेर का मतलब है।। मेरे महबूब ये तमाशा देख कि तेरे चाहने वालों के हूजूम में हूं और रूसवाइयों के साथ, बदनामियों के साथ, सरे बाज़ार में नाच रहा हूं।

उस्मान हारूनी के इस शेर की गर्मी मजाज़ की शायरी में महसूस की जा सकती है। अली सरदार जाफरी की किताब ‘लखनऊ की पांच रातें’ में असरारुल हक ‘मजाज़’(1911–1955) पर अच्छा खासा जिक्र है या यह कहीए अली सरदार जाफरी की रातों में मजाज़, जोश मलीहाबादी, सज्जाद जहीर, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, मखदूम मोहिउद्दीन, जांनिसार अख्तर, कृश्न  चंदर हैं।

सरदार जाफरी ने कहकशां नाम से एक टीवी सीरियल भी बनाई थी जिसमें एक हिस्सा मजाज़ पर है जिसकी शुरूआत कुछ इस तरह है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के गर्ल्स कॉलेज में एक प्रोग्राम का आखिर मजाज़ की ग़ज़ल से होना था। उस दौर में गर्ल्स कॉलेज में बेहद कड़ा पर्दा हुआ करता था। लिहाजा मजाज़ आते हैं और लड़कियों से ब्लैकबोर्ड की आड़ लिए, अपनी ग़ज़ल ‘नौजवान खातून से’ तरन्नुम में गाते हुए हुस्न के मयार को अलट-पलट देते हैं।

तिरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन

तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था

मजाज़ परचम लहराने वाला रोमांटिक शायर थे। उन्हें उर्दू का कीट्स भी कहते हैं। असर लखनवी ने उनके लिए लिखा, ‘‘उर्दू में कीट्स पैदा हुआ था, लेकिन इंक़लाबी भेड़िये उसे उठा ले गए’’

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नाकाम इश्क का दर्द

फैज़ अहमद फैज़ उन्हीं की किताब ‘आहंग’ की भूमिका में लिखते हैं, ‘‘मजाज़ की इंक़लाबियत आम इंक़लाबी शायरों से मुख्तलिफ़ है। आम इंक़लाबी शायर इंक़लाब के मुताल्लिक गरजते हैं, ललकारते हैं, सीना कूटते हैं, इंक़लाब के मुताल्लिक गा नहीं सकते, उसके हुस्न को नहीं पहचानते। मजाज़ उनसे अलग है।’’

जगमगाती जागती सड़को पर आवार फिरने वाले शायर मजाज़ नें इंक़लाब को गुनगुनाया उसका नारा बलंद नहीं किया। उनकी बगावत सबसे पहले खुद से शुरू हुई और बाद में उसमें पूरा ज़माना शामिल हो गया। फिराक गोरखपुरी ने मजाज़ को तरक्कीपसंद शायरी का मेनिफेस्टो कहा था।

शहर की रात और मैं नाशाद ओ नाकारा फिरूँ

जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ

ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ऐसी नज्में कहने वाले मजाज़ के नाम अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के गर्ल्स कॉलेज की लड़किया लाटरियां (चिठ्ठियां) निकाला करती थीं कि पहले कौन उनसे मिलेंगी। मजाज़ को ही वह मकाम हासिल है, जिसकी नज्में, लड़कियां तकिये के नीचे रख तस्ववुर की गर्मी महसूस करती थीं, आंसुओं से सींच जाती थीं। अपने बेटों के नाम उसके नाम पर रखने की कसमें खातीं। खुद इस्मत चुगताई ने एक दफा मजाज़ से कहा था, ‘‘यूनिवर्सिटी की लड़कियां आपकी मोहब्बत में गिरफ़्तार हैं।’’

ख़ूब पहचान लो असरार हूं मैं

जिन्स-ए-उल्फ़त का तलबगार हूं मैं

एक अजीब सा दुख है बरबादी के जश्न को मनाये जाने का। मजाज़ सबसे नाराज़ मालूम होते हैं। और नाराज़ होना भी एक तरह का कमिटमेंट है उसके लिए। अलीगढ़ से बीए करने के बाद दिल्ली आकर आल इंडिया रेडियो की मैगजीन ‘आवाज़’ के असिस्टेंट एडिटर बन गएं। यहीं एक लड़की से नाकाम इश्क का दर्द मिला जो उन्हें यूनिवर्सिटी के दिनों से जानती थी।

नौकरी भी दो साल से ज्यादा रास न आई। लखनऊ लौट सरदार जाफऱी और सिब्ते हसन के साथ मिलकर प्रोग्रेसिव राईटर असोसिएशन (प्रगतिशील लेखक संघ) की मैगजीन ‘नया अदब’ का काम संभाला। लेकिन धक्का खाए हुए मजाज़ शराब में डूब गएं। दिन रात, सुब्ह-ओ-शाम पीते। उठकर पीते, पीकर सोते।

उस मेहफिले कैफो मस्ती में ,उस अंजुमने इरफानी में

सब जाम बक़फ बैठे ही रहे ,हम पी भी गये छलका भी गये

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खानाखराबों का ठिकाना

मजाज़ को करीब से जानने वाले प्रकाश पंडित कहते हैं, वो हरदिल अज़ीज लतीफेबाज़ था। अपने शराबखोर दोस्तों के बीच वह कहता है, ‘‘ज्यादा सोचना अच्छी बात नहीं। फैज़ जेलखाने में, मंटों पागलखाने में और मजाज़ शराबखाने में। भई हम खानाखराबों के यही ठिकाने हैं।’’

इस तरह मजाज़ की हालत दिन ब दिन खराब होती जा रही थी। वो कभी इस शहर में होते तो कभी उस शहर में। घर हुए एक जमाना बीत गया था। और एक दिन खराब हाल रांची के पागलखाने में भर्ती करवा दिए गए। पागलखाने में ही एक दिन अचानक उन्हें मालूम पड़ता है, काजी नजरूल इस्लाम भी यही हैं। वे इस हालत में भी चौंक कर कह उठते हैं, हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा शायर पालगखाने में! फिर वो नजरुल इस्लाम से कहते हैं, आओ यहां से भाग चलें।

मजाज़ चाहे शैली हो, चाहे किट्स, चाहे बायरन। मौत से माशूका की तरह प्यार करता था। और इन शायरों की तरह ही जवान मर गया। शायद उसने अपने लिए ही कहा था।

ज़िन्दगी साज़ दे रही है मुझे, सेहर-ओ-एजाज़ दे रही है मुझे

और बहुत दूर आसमानों से, मौत आवाज़ दे रही है मुझे

सरदार जाफरी मजाज़ के लिए कहते हैं, ‘‘उसकी ज़िन्दगी एक अधूरी ग़ज़ल की है। उसकी शायरी का सारा हुस्न उसके अधूरेपन में है। मजाज़ तमाम उम्र अपने जख्मों से खेलता रहा। गमों को शायरी में ढ़ालता रहा। और एक दिन देखते देखते आसमान पर चांदी की एक लकीर बनाता हुआ गुजर गया।’’

पेशे से मनोविशलेषक और तबीयत से शायर, मजाज़ के भांजे डॉ। सलमान अख़्तर का कहना है, ‘‘मजाज़ की कई ग़ज़लों में मौत का जिक्र देखा जा सकता है।’’ अख्तर ने मजाज़ की सेल्फ-डिस्ट्रक्टिंग प्रवृत्ति का मनोविश्लेक्षण करते हुए ‘मजाज़ ट्रैजिक एंड सम साइकोएनेलेटिक स्पेक्यूलेशन्स’ नाम से एक पेपर भी लिखा था।

4 दिसंबर 1952 की मनहूस शाम को इश्क में गमजदा मजाज़ ने दोस्तों के साथ लखनऊ के किसी मयखाने की छत पर रात बिताई। दोस्त पीकर चले गए मजाज़ वहीं नशे में पड़े रहे। 5 दिसंबर की सुबह दुनिया तो जगी लेकिन मजाज़ कहां जगते? वह इस दुनिया को धता बता चुके थे।

बया जानां तमाशा कुन के दर अन्बूहे जांबजां

बसद सामाने रूसवाई सरे बाज़ार मी रक़्सम

मजाज़ की मौत पर उनके अज़ीज दोस्त जोश मलीहाबादी ने कुछ यूं कहा था, ‘‘मौत हम सबका तआक़ुब (पीछा) कर रही है, मगर ये देखकर रश्क आया और कलेजा फट गया कि तुम तक किस क़दर जल्दी पहुंच गयी।

एक मुद्दत से शिकायत कर रहा हूं कि ओ कमबख्त़ मौत! तू मुझे क्यूं नहीं पूछती। मैंने क्या बिगाड़ा था तेरा कि तूने मुझसे बे-एतिनाई बरती, और मजाज़ ने क्या अहसान किया था तुझ पर, ओ रुसियाह कि तूने उसे बढ़कर कलेजे से लगा लिया।’’

जाते जाते : 

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