उर्दू अदब में ग़ुलाम रब्बानी ताबां का शुमार तरक्कीपसंद शायरों की फेहरिस्त में होता है। उन्होंने न सिर्फ़ शायरी की ज़मीन पर तरक्कीपसंद ख्याल और उसूलों को आम करने की कोशिश की, बल्कि इसके लिए हर मोर्चे पर ताउम्र जद्दोजहद करते रहे। तमाम ग़म-परेशानियां झेलीं।
शायरी उनके लिए महज दिल बहलाने का एक जरिया नहीं थी। एक कमिटमेंट था, उस मुआशरे को बेहतर बनाने के लिए जिसमें वे रहते थे। 15 फरवरी, 1914 को उत्तर प्रदेश में कायमगंज ज़िला फर्रुखाबाद के पितौरा गांव में एक जमीदार परिवार में जन्मे गुलाम रब्बानी ताबां की इब्तिदाई तालीम पितौरा और कायमगंज में ही हुई।
आला तालीम के वास्ते वे आगरा पहुंचे। जहां सेंट जोंस कॉलेज से उन्होंने ग्रेजुएशन और आगरा कॉलेज से एलएलबी की डिग्री हासिल की। कॉलेज की तालीम के दौरान ही गुलाम रब्बानी ताबां का शे’री सफर शुरू हुआ।
मौलाना हामिद हसन कादरी और मैकश अकराबादी की अदबी सोहबतों में उनका शे’री शौक परवान चढ़ा। तालीम पूरी होने के बाद, उन्होंने कुछ दिन वकालत की। शायराना मिज़ाज की वजह से उन्हें यह पेशा ज्यादा समय तक रास नहीं आया।
जमीदार परिवार और परिवार के अंग्रेजपरस्त होने के बाद भी गुलाम रब्बानी ताबां की अपनी एक अलग सोच थी। उनकी यह सोच उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ ले गई। वे पार्टी से जुड़ गए और उसकी तमाम गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे।
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पार्टी के लिए घर छोड़ा
कम्युनिस्ट पार्टी से वास्ता रखने के इल्जाम में उन्हें साल 1943 में अंग्रेज हुकूमत ने गिरफ्तार कर लिया। जेल से छूटे, तो उनसे घरवाले काफी नाराज हुए। परिवार की नाराजगी ही थी कि उन्होंने अपना घर छोड़ दिया। गम-ए-रोजगार की तलाश में मुंबई पहुंच गए।
मुंबई में उनका कयाम अफसाना निगार कृश्न चंदर के यहां हुआ, मगर वहां का माहौल भी उन्हें ज्यादा पसंद नहीं आया और वे दिल्ली चले आए। दिल्ली में गुलाम रब्बानी तांबा प्रकाशन संस्था ‘मकतबा जामिया’ से जुड़ गये और एक लम्बे अर्से तक मकतबे के डायरेक्टर के तौर पर काम किया।
तरक्कीपसंद तहरीक से गुलाम रब्बानी ताबां का वास्ता शुरू से ही रहा। अंजुमन तरक्कीपसंद मुसन्निफीन (प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन) के वे सरगर्म मेंबर थे। अंजुमन की सरगर्मियों और अदबी महफिलों में वे हमेशा पेश-पेश रहते थे।
गुलाम ताबां ने अपनी शायरी की शुरुआत तंज-ओ-मिजाह की शायरी से की। बाद में संजीदा शायरी की ओर मुखातिब हुए। दीगर तरक्कीपसंद शायरों की तरह उन्होंने भी पहले नज़्में लिखीं लेकिन अपने पहले शे’री मजमुए ‘साज़े लर्जां’ (1950) के शाया होने के बाद सिर्फ़ ग़ज़लें कहने लगे।
गजल को ही उन्होंने अपने अदब का मैदान बना लिया। ताबां की शायरी की नुमायां शिनाख्त, उसका क्लासिकी और रिवायती अंदाज होने के साथ-साथ तरक्कीपसंद ख्याल के पैकर में पैबस्त होना है। उनकी शायरी, खालिस वैचारिक शायरी है। जिसमें उनके समाजी, सियासी और इंकलाबी सरोकार साफ दिखाई देते हैं।
मंज़िलों से बेगाना आज भी सफ़र मेरा
रात बे-सहर मेरी दर्द बे-असर मेरा
…आसमां का शिकवा क्या वक़्त की शिकायत क्यूं
ख़ून-ए-दिल से निखरा है और भी हुनर मेरा
दिल की बे-क़रारी ने होश खो दिए ’ताबां’
वर्ना आस्तानों पर कब झुका था सर मेरा।
ताबां ने अपनी गजलों में भी बड़े ही हुनरमंदी से सियासी, समाजी पैगाम दिए हैं। सरमायेदारी पर वे तंज कसते हुए कहते हैं,
जिनकी सियासते हो जरोजाह की गुलाम
उनको निगाहो दिल की सियासत से क्या गरज।
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एक खुद्दार शायर
गुलाम रब्बानी ताबां ने कम लिखा, लेकिन मानीखेज लिखा। बेमिसाल लिखा। उनकी शायरी में इश्क-मोहब्बत के अलावा जिन्दगी की जद्दोजहद और तमाम मसले-मसाएल साफ दिखाई देते हैं। गजल में अल्फाजों को किस तरह से बरता जाता है, कोई ताबां से सीखे।
शाइस्तगी से वे अपने शे’रों में बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं।
दौर-ए-तूफ़ां में भी जी लेते हैं जीने वाले
दूर साहिल से किसी मौज-ए-गुरेज़ां की तरह
….किस ने हंस हंस के पिया ज़हर-ए-मलामत पैहम
कौन रुस्वा सर-ए-बाज़ार है ’ताबां’ की तरह।
मशहूर तंकीद निगार एहतेशाम हुसैन अपनी किताब ‘उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में गुलाम रब्बानी ताबां की गजलों पर तनकीद करते हुए लिखते हैं, “उन्होंने अपनी गजलों में सूक्ष्म संकेतों, गहरी मनोभावनाओं और व्यक्तिगत अनुभूतियों से बड़ी रोचकता पैदा कर दी है।”
मिसाल के तौर पर ताबां की गजल के इन अश्आरों को देखिये,
ये हुजुम-ए-रस्म-ओ-रह दुनिया की पाबंदी भी है
ग़ालिबन कुछ शैख़ को ज़ोम-ए-ख़रिद-मंदी भी है
उस ने ’ताबाँ’ कर दिया आज़ाद ये कह कर कि जा
तेरी आज़ादी में इक शान-ए-नज़र-बंदी भी है।
गुलाम रब्बानी ताबां की शायरी में सादा बयानी तो है ही, एक अना भी है जो एक खुद्दार शायर की निशानदेही है।
बस्ती में कमी किस चीज़ की है पत्थर भी बहुत शीशे भी बहुत
इस मेहर ओ जफ़ा की नगरी से दिल के हैं मगर रिश्ते भी बहुत
….कहते हैं जिसे जीने का हुनर आसान भी है दुश्वार भी है
ख्वाबों से मिली तस्कीं भी बहुत ख्वाबों के उड़े पुर्ज़े भी बहुत
रुस्वाई कि शोहरत कुछ जानो हुर्मत कि मलामत कुछ समझो
‘ताबां’ हों किसी उनवान सही, होते हैं मिरे चर्चे भी बहुत।
तांबा की शायरी में जिन्दगी की जद्दोजहद और उसके जानिब एक पॉजिटिव रवैया हमेशा दिखलाई देता है। तमाम परेशानियों में भी वे अपना हौसला, उम्मीदें नहीं खोते।
चमन में किसने किसी बेनवा का साथ दिया
वो बूए-गुल थी कि जिसने सबा का साथ दिया।
…..जुस्तजू हो तो सफर खत्म कहां होता है
यूं तो हर मोड़ पर मंजिल का गुमां होता है।
गुलाम रब्बानी ताबां अपनी गजलों में पारंपरिक शैली का भी दामन नहीं छोड़ते और कुछ इस अंदाज में अपनी बात कह जाते हैं कि तर्जे बयां नया हो जाता है।
हम एक उम्र जले शम-ए-रहगुज़र की तरह
उजाला ग़ैरों से क्या मांगते क़मर की तरह
….बस और क्या कहें रूदाद-ए-ज़िन्दगी ‘ताबां’
चमन में हम भी हैं इक शाख़-ए-बे-समर की तरह।
उनके समूचे कलाम का गर मुताला करें, तो उसमें ऐसे-ऐसे नगीने बिखरे पड़े हैं, जिनकी चमक कभी कम न होगी।
राहों के पेंचो खम में गुम हो गई हैं सिम्तें,
ये मरहला है नाजुक, तांबा संभल-संभल के
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बेहतरीन तर्जुमा निगार
गुलाम रब्बानी ताबां की ग़ज़लों की अनेक किताबें शाया हुईं। ‘साज़-ए-लारजां’, ‘हदीस-ए-दिल’, ‘जौक-ए-सफ़र’, ‘नवा-ए-आवारा’, ‘गुबार-ए-मंज़िल’ उनकी गजलों के अहम मजमुए हैं। ताबां ने अंग्रेजी की कई मशहूर किताबों का उर्दू में तर्जुमा किया। वे शायर होने के साथ-साथ, बेहतरीन तर्जुमा निगार भी थे।
अच्छे तर्जुमे के लिए ताबां तीन चीजें जरूरी मानते थे। “पहला, जिस जबान का तर्जुमा कर रहे हैं, उसकी पूरी नॉलेज होनी चाहिए। दूसरी बात, जिस जबान में कर रहे हैं, उसमें और भी ज्यादा कुदरत हासिल हो। तीसरी बात, किताब जिस विषय की है, उस विषय की पूरी वाकफियत होनी चाहिए। इन तीनों चीजों में से यदि एक भी चीज कम है, तो वह कामयाब तर्जुमा नहीं होगा।”
शायरी और तर्जुमा निगारी के अलावा गुलाम रब्बानी ताबां ने कुली कुतुबशाह, वली दकनी, मीर और ‘दर्द’ जैसे क्लासिक शायरों के कलाम पर तनकीद निगारी की। सियासी, समाजी और तहजीब के मसायल पर मजामीन लिखे। ‘शे’रियात से सियासियात’ तक उनके मजामीन का मजमुआ है।
उनका एक अहम कारनामा ‘गम-ए-दौरां’ का संपादन है। इस किताब में उन्होंने वतनपरस्ती के रंगों से सराबोर नज्मों और गजलों को शामिल किया है। इसी तरह की उनके संपादन में आई दूसरी किताब ‘शिकस्त-ए-जिन्दा’ है। इस किताब में उन्होंने भारत और दीगर एशियाई मुल्कों में चले आजादी के आंदोलन से मुताल्लिक शायरी को संकलित किया है।
गुलाम रब्बानी ताबां ने कई मुल्कों सोवियत यूनियन, पूर्वी जर्मनी, फ्रांस, इटली, मीडल ईस्ट एशिया और अफ्रीका के देशों की साहित्यिक और सांस्कृतिक यात्राएं कीं। वे अदबी राजदूत के तौर पर इन मुल्कों में गए और भारत की नुमाइंदगी की।
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‘पद्मश्री’ लौटा दिया
ताबां को अदबी खिदमात के लिए उनकी ज़िन्दगी में बहुत से ईनाम-ओ-इकराम से सम्मानित किया गया। उनको मिले कुछ अहम सम्मान हैं साहित्य अकादमी अवार्ड, सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड, उ.प्र. उर्दू अकादमी अवार्ड और कुल हिन्द बहादुरशाह ज़फ़र अवार्ड।
इन सम्मानों के अलावा भारत सरकार ने उन्हें साल 1971 में ‘पद्मश्री’ के सम्मान से भी नवाज़ा। ताबां के दिल में उर्दू जबान के जानिब बेहद मोहब्बत थी। वे कहा करते थे, “उर्दू कौमी यकजहती की अलामत है। यह प्यार-मोहब्बत की जबान है। उर्दू जबान को फरोग देने के लिए सबने अपनी कुर्बानियां दी हैं।”
यही नहीं उनका कहना था, “उर्दू को जिन्दा रखने के लिए हमें सरकार से भीख नहीं मांगना चाहिए, बल्कि उसके लिए जद्दोजहद करनी होगी।” ताबां एक बेदार सिटिजन थे। मुल्क में जब भी कहीं कुछ गलत होता, लेखों और शायरी के मार्फत अपना एहतिजाज जाहिर करते।
हिन्दी और उर्दू दोनों जबानों में उन्होंने फिरकापरस्ती के खिलाफ खूब मजामीन लिखे। उनकी नजर में हिन्दू और मुस्लिम फिरकापरस्ती में कोई फर्क नहीं था। फिरकापरस्ती को वे मुल्क की तरक्की और इन्सानियत का सबसे बड़ा खतरा मानते थे।
तरक्कीपसंद ख्याल उनके जानिब महज उसूल भर नहीं थे, जब अपनी जिन्दगी में वे सख्त इम्तिहान से गुजरे, तो उन्होंने खुद इन उसूलों पर पुख्तगी से चलकर दिखाया। साल 1978 में जनता पार्टी की हुकूमत के दौरान अलीगढ़ में बहुत बड़ा दंगा हुआ, जो कई दिनों तक चलता रहा।
यह दंगा सरासर सरकार और स्थानीय एडमिनिस्ट्रेशन की नाकामी थी। ताबां ने इख्तिलाफ में सरकार को अपना ‘पद्मश्री’ का अवार्ड लौटा दिया। सरकार के खिलाफ एहतिजाज करने का यह उनका अपना एक जुदा तरीका था। 7 फरवरी, 1993 को गुलाम रब्बानी ताबां ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।