ब़ॉलीवुड हरफनमौला अभिनेता इरफ़ान ख़ान इस दुनिया से चल बसे। मंगलवार 28 अप्रैल को उनकी तबीयत बिगड़ जाने की वजह से उन्हें मुंबई के अस्पताल में दाखिल कराया गया था। इस खबर को पाते ही लोग सोशल मीडिया पर इरफ़ान के सेहत के लिए दुआ कर रह थें। इसी बीच आज बुधवार को उनके निधन कि खबर आ गई।
इस बुरी खबर को पाते ही उनके चाहने वालों की तरफ से सोशल मीडिया पर भावनाओं का सैलाब उमड पडा। लोग अपने प्रिय एक्टर के यादों मे भावनाओं से सरोबर हो रहे हैं। बॉलीवूड से भी अनेक शोक संदेश ट्वीट किये जा रहे हैं।
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एक आम इन्सान से स्टार
इरफ़ान ख़ान कि फ़िल्म स्लमडॉग मिलियनेयर (2008) को जब ऑस्कर पुरस्कार से नवाजा जा रहा था, तब भारत में उनके चाहने वाले पूरे परिवार के साथ सुबह सवेरे ही टीवी के पास बैठ गये थे। हालांकि उन्हे कोई पुरस्कार नही था। वे फ़िल्म के सारे टीम के सथ कोडेक थियटर में मौजूद थे। यह भारतीय परिवेश कि एक विदेशी मूल की फ़िल्म थी।
मगर इस पुरस्कार का जश्न सारा भारत मना रहा था। इस फ़िल्म नें उस समय क सभी फ़िल्मों को पछाडते हुए इसने कुल 8 पुरस्कार अपने नाम कर लिए थे। जिसमें सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म, निर्देशन, लेखन (एडाप्टेड स्क्रीनप्ले), म्यूजिक सांग, म्यूजिक स्कोर, एडिटिंग, साउंड मिक्सिंग, सिनेमाटोग्राफी आदी।
छोटे परदे से अभिनय का आगाज करनेवाले इरफ़ान एक हरफनमौला कलाकार थे। कोई भी भूमिका में वह ऐसे ढल जाते जैसे वह मूल किरदार में जन्मे हो।
इरफ़ान ख़ान का जन्म 7 जनवरी 1966 में जयपुर में हुआ। उनका बचपन एक छोटे से क़स्बे टोंक में गुज़रा। वह एक मध्यमर्गीय परिवार से ताल्लुक रखते थे। पर वह सपने बडे देखा करते थे।
दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा (NSD) के पढ़ाई के बाद वे मुंबई आये। अपने शुरुआती दौर में छोटे परदे के लिए उन्होंने छिटपूट किरदारों पर काम चलाना पडा। एक के बाद एक कई सिरियलों में उन्होंने काम किया। मगर दूरदर्शन के बहुचर्चित ‘चंद्रकांता’ से वह देशभर में परिचित हुए। चंद्रकांता में बदरीनाथ का किरदार उन्होंने निभाया था, जिससे वह बहुत ज्यादा पॉपुलर हो गये।
विदेशी फ़िल्म ‘सलाम बॉम्बे’ (1988) के लिए उन्हें फ़िल्मकार मीरा नायर ने ऑफर दिया। मुंबई झुग्गी-बस्तियों पर बनी यह फ़िल्म भारतीय सामाजिक परिवेश को दर्शाती थी, जिसमे भारत क दरिद्रता का दर्शन होता था। फ़िल्म मे इरफ़ान ख़ान एक चिठ्ठी लिखनेवाले के भूमिका में थे। दुबले-पतले इरफ़ान के खाते में साधारण रोल आया, मगर अपनै अभिनय से उस किरदार को उन्होंने बेहद इमानदारी से अदा किया।
यह फ़िल्म ऑस्कर के लिए भी नामांकित हुई। आगे चलकर बॉलीवुड के एक बडे कलाकार बने। जिन्होंने अपनी खुदकी एक अलग पहचान सेट कर ली जो बाद में एक ट्रैंड बना। जिसमें उनकी डॉयलॉग बोलने कि अदा, आँखो का अभिनय तथा एक्टिंग की सहजता उनके विशेष गुण थें। अपने अलग अभिनय के बलबुते वे बॉलीवुड ही नही बल्कि विश्व सिनेमा के परदे पर छा गए। बंबईया फिल्मों मे उन्होंने अपनी अलग पहचान स्थापित की।
बॉलीवुड में उन्होंने हर तरह कि फ़िल्में की। जिसमे कसूर, गुनाह, मकबूल, हासील, चरस, रोग, चॉकलेट, नॉक आऊट, मदारी, लंचबॉक्स, हिन्दी मीडियम आदी शामिल थें। हाल हीं मे आई अग्रेजी मीडियम उनकी आखरी फ़िल्म थी। जो पिछले मार्च को रिलीज हुई थी।
इसके अलावा उन्होंने हॉलीवुड कि फ़िल्में भी की हैं। जिसमें वॉरीअर (2001), लाइफ़ ऑफ़ पाई (2012), द नेमसेक (2006), द स्लमडॉग मिलियनेयर (2008), द माइटी हार्ट (2007), द दार्जिलिंग लिमिटेड (2007) आदी थी।
अपने 32 साल के फिल्मी करियर मेंं उन्होंने 80 से ज्यादा बेहतरीन फिल्में दी हैं। जो दर्शकों के स्मृतिपटल पर छाई हैं।
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बिमारी कि खबर
मार्च 2018 में उन्हे अपने लाईलाज बिमारी क पता चला। इस बारे में ट्विटर से उन्होंने दुनिया को बताया। उन्होंने लिखा –
— Irrfan (@irrfank) March 5, 2018
“जीवन में अनपेक्षित बदलाव आपको आगे बढ़ना सिखाते हैं। मेरे बीते कुछ दिनों का लब्बोलुआब यही है। पता चला है कि मुझे न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर हो गया है। इसे स्वीकार कर माना मुश्किल है। लेकिन मेरे आसपास जो लोग हैं, उनका प्यार और उनकी दुआओं ने मुझे शक्ति दी है। कुछ उम्मीद भी बंधी है। फ़िलहाल बीमारी के इलाज के लिए मुझे देश से दूर जाना पड़ रहा है। लेकिन मैं चाहूंगा कि आप अपने संदेश भेजते रहें।”
इरफ़ान आगे लिखते हैं, “न्यूरो सुनकर लोगों को लगता है कि ये समस्या ज़रूर सिर से जुड़ी बीमारी होगी। लेकिन ऐसा नहीं है। इसके बारे में अधिक जानने के लिए आप गूगल कर सकते हैं। जिन लोगों ने मेरे शब्दों की प्रतीक्षा की, इंतज़ार किया कि मैं अपनी बीमारी के बारे में कुछ कहूं, उनके लिए मैं कई और कहानियों के साथ ज़रूर लौटूंगा।”
बीबीसी के मुताबिक, ‘न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर’ एक दुर्लभ किस्म का ट्यूमर होता है जो शरीर में कई अंगों में भी विकसित हो सकता है। हालांकि मरीज़ों की संख्या बताती है कि ये ट्यूमर सबसे ज़्यादा आँतों में होता है। इसका सबसे शुरुआती असर उन ब्लड सेल्स पर होता है जो ख़ून में हार्मोन छोड़ते हैं। ये बीमारी कई बार बहुत धीमी रफ़्तार से बढ़ती है। लेकिन हर मामले में ऐसा हो, ये ज़रूरी नहीं है।
इरफ़ान ख़ान जब लंदन में इलाज करा रहे ते, तब उन्होंने अजय ब्रह्मात्मज को एक चिठ्ठी लिखी थी। इस खत में वह जिन्दी कि जंग हारने कि बात कबूल करते हैं।
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क्या था इस चिठ्ठी में
कुछ महीने पहले अचानक मुझे पता चला था कि मैं न्यूरोएंडोक्रिन कैंसर से ग्रस्त हूं। मैंने पहली बार यह शब्द सुना था। खोजने पर मैंने पाया कि इस शब्द पर बहुत ज्यादा शोध नहीं हुए हैं क्योंकि यह एक दुर्लभ शारीरिक अवस्था का नाम है और इस वजह से इसके उपचार की अनिश्चितता ज्यादा है।
अभी तक अपने सफ़र में मैं तेज़-मंद गति से चलता चला जा रहा था… मेरे साथ मेरी योजनाएं, आकांक्षाएं, सपने और मंजिलें थीं। मैं इनमें लीन बढ़ा जा रहा था कि अचानक टीसी ने पीठ पर टैप किया, ’आपका स्टेशन आ रहा है, प्लीज उतर जाएं।’
मेरी समझ में नहीं आया… न न, मेरा स्टेशन अभी नहीं आया है…।’ जवाब मिला, ‘अगले किसी भी स्टॉप पर उतरना होगा, आपका गंतव्य आ गया…।’
अचानक अहसास हुआ कि आप किसी ढक्कन (कॉर्क) की तरह अनजान सागर में अप्रत्याशित लहरों पर बह रहे हैं। लहरों को क़ाबू करने की ग़लतफ़हमी लिए।
इस हड़बोंग, सहम और डर में घबरा कर मैं अपने बेटे से कहता हूं, ‘आज की इस हालत में मैं केवल इतना ही चाहता हूं… मैं इस मानसिक स्थिति को हड़बड़ाहट, डर, बदहवासी की हालत में नहीं जीना चाहता। मुझे किसी भी सूरत में मेरे पैर चाहिए, जिन पर खड़ा होकर अपनी हालत को तटस्थ हो कर जी पाऊं। मैं खड़ा होना चाहता हूं।’
ऐसी मेरी मंशा थी, मेरा इरादा था…
कुछ हफ़्तों के बाद मैं एक अस्पताल में भर्ती हो गया। बेइन्तहा दर्द हो रहा है। यह तो मालूम था कि दर्द होगा, लेकिन ऐसा दर्द? अब दर्द की तीव्रता समझ में आ रही है। कुछ भी काम नहीं कर रहा है। न कोई सांत्वना और न कोई दिलासा। पूरी कायनात उस दर्द के पल में सिमट आयी थी। दर्द खुदा से भी बड़ा और विशाल महसूस हुआ।
मैं जिस अस्पताल में भर्ती हूं, उसमें बालकनी भी है। बाहर का नज़ारा दिखता है। कोमा वार्ड ठीक मेरे ऊपर है। सड़क की एक तरफ मेरा अस्पताल है और दूसरी तरफ लॉर्ड्स स्टेडियम है। वहां विवियन रिचर्ड्स का मुस्कुराता पोस्टर है, मेरे बचपन के ख़्वाबों का मक्का। उसे देखने पर पहली नज़र में मुझे कोई अहसास ही नहीं हुआ। मानो वह दुनिया कभी मेरी थी ही नहीं।
मैं दर्द की गिरफ्त में हूं।
और फिर एक दिन यह अहसास हुआ… जैसे मैं किसी ऐसी चीज का हिस्सा नहीं हूं, जो निश्चित होने का दावा करे। न अस्पताल और न स्टेडियम। मेरे अंदर जो शेष था, वह वास्तव में कायनात की असीम शक्ति और बुद्धि का प्रभाव था। मेरे अस्पताल का वहां होना था। मन ने कहा, केवल अनिश्चितता ही निश्चित है।
इस अहसास ने मुझे समर्पण और भरोसे के लिए तैयार किया। अब चाहे जो भी नतीजा हो, यह चाहे जहां ले जाए, आज से आठ महीनों के बाद, या आज से चार महीनों के बाद, या फिर दो साल… चिंता दरकिनार हुई और फिर विलीन होने लगी और फिर मेरे दिमाग से जीने-मरने का हिसाब निकल गया!
पहली बार मुझे शब्द ‘आज़ादी ‘ का अहसास हुआ, सही अर्थ में! एक उपलब्धि का अहसास।
इस कायनात की करनी में मेरा विश्वास ही पूर्ण सत्य बन गया। उसके बाद लगा कि वह विश्वास मेरे हर सेल में पैठ गया। वक़्त ही बताएगा कि वह ठहरता है कि नहीं! फ़िलहाल मैं यही महसूस कर रहा हूं।
इस सफ़र में सारी दुनिया के लोग… सभी, मेरे सेहतमंद होने की दुआ कर रहे हैं, प्रार्थना कर रहे हैं, मैं जिन्हें जानता हूं और जिन्हें नहीं जानता, वे सभी अलग-अलग जगहों और टाइम ज़ोन से मेरे लिए प्रार्थना कर रहे हैं। मुझे लगता है कि उनकी प्रार्थनाएं मिल कर एक हो गयी हैं… एक बड़ी शक्ति… तीव्र जीवनधारा बन कर मेरे स्पाइन से मुझमें प्रवेश कर सिर के ऊपर कपाल से अंकुरित हो रही है।
अंकुरित होकर यह कभी कली, कभी पत्ती, कभी टहनी और कभी शाखा बन जाती है… मैं खुश होकर इन्हें देखता हूं। लोगों की सामूहिक प्रार्थना से उपजी हर टहनी, हर पत्ती, हर फूल मुझे एक नयी दुनिया दिखाती है।
अहसास होता है कि ज़रूरी नहीं कि लहरों पर ढक्कन (कॉर्क) का नियंत्रण हो… जैसे आप क़ुदरत के पालने में झूल रहे हों!
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चल रहा था इलाज
पिछले साल याने मार्च 2019 को इरफ़ान ख़ान इलाज क बाद लंदन से लौटे थे। यह एक अजीब इत्तेफाक कहीये या कुछ और तीन दिन पहले उनके अम्मी सईदा बेगम का इंतकाल हुआ। लॉकडाउन के वजह से से वह जनाजे में शामिल नही हुए। कहते है उनके माँ को इरफान के बिमारी कि फिक्र थी। वह अपने बेटे ठीक होता देखने से पहले चल बसी। इरफान के भाई ने उनकी मौत पर भावूक होते हुए कहा, भाई अम्मी से आखरी दफा मिल नही पाये, इसलिए सिधे उनसे मिलने चले गए।
इरफ़ान ख़ान का मुंबई के कोकिलाबेन अस्पताल के डॉक्टरों की देखरेख में ट्रीटमेंट और रुटीन चेकअप जारी था। माँ के निधन के तीन दिन बाद याने 28 अप्रैल को उनकी तबीयत बिगडी और आईसीयू भरती किया गया। मगर दूसरे दिन वह जिन्दगी कि जंग हमेशा के लिए हार गए और एकाएक जिन्दगी के स्टेशन पर रुक गये।
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