छोटे भाई टैगोर की मुख़रता से स्वर्णकुमारी रही उपेक्षित लेखिका

बात कितनी अजीब थी कि अच्छे परिवार, वैचारिक और आर्थिक समृद्धता, अपने राष्ट्रवादी विचारों और उदार दृष्टि के बावजूद स्वर्णकुमारी देवी (28 अगस्त 1855 – 3 जुलाई 1932) को अपने ही परिवार से वैसा उत्साहवर्द्धन नहीं मिला, जिससे वह लेखन के क्षेत्र में और अधिक बढ़ पाती।

यहाँ तक कि उनके भाई रवींद्रनाथ टैगोर ने भी उनकी किताबों के बांग्ला से अंग्रेजी में अनुवाद किये जाने के विषय में उल्टे अप्रसन्नता व्यक्त की थी। बहन के प्रथम बांग्ला उपन्यास काहाके के अंग्रेजी वर्जन का पता लगने पर उन्होंने अपने एक मित्र को लिखा था,

वह उन दुर्भाग्यशालियों में से एक है जिन पर कृतित्व की क्षमता से अधिक महत्वाकांक्षाएं हावी होती हैं। ऐसे लेखन में केवल थोड़े समय तक ज़िन्दा रहने की प्रतिभा होती है।

लंदन के कुछ धूर्त साहित्यिक एजेंटों ने उसकी कमजोरियों का फ़ायदा उठाकर उसकी कहानियों का अनुवाद कर उन्हें प्रकाशित कराया है। मैंने उसको इस हेतु प्रोत्साहित नहीं किया है किंतु मैं उसको उपयुक्त बातों की सच्चाई नहीं दिखा पाया हूँ।

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टैगोर कि मुखता

काहाके याने किसकोस्वर्णकुमारी देवी का मूल रूप से सन 1898 में बांग्ला भाषा में लिखा वह उपन्यास था, जिसका सन 1913 में अंग्रेजी में प्रकाशन हुआ था।

इस कृति का एक पूरा अध्याय जॉर्ज ईलियट पर चर्चा से संबंधित था, इसलिए ब्रिटिश साहित्यकारों ने इसमें काफी रुचि ली। उनकी रुचि का मूल कारण यह औपनिवेशिक काल के भारत में महिला शिक्षा और सशक्तिकरण का एक ऐतिहासिक दस्तावेज था, जिसमें स्त्रियाँ अपने आप की खोज करने को निकलने को बेताब दिखती हैं।

वटवृक्ष के सानिध्य में छोटे-मोटे पौधे आसानी से नहीं पनप पाते। यही स्थिति स्वर्णकुमारी देवी की थी। वह रवींद्रनाथ टैगोर की बड़ी बहन थीं, लेकिन थी तो लड़की ही।

भारतीय साहित्य जगत और विशेषकर बांग्ला भाषाविदों ने उन्हें और उसके कृतित्व को इतिहास में वह स्थान नहीं दिया, जिसकी वह पात्र थी। हाल ही के वर्षों में अवश्य कुछ विद्वानों और शोधकर्ताओं की निगाह उनकी रचनाओं पर गई और उनका मूल्याँकन किये जाने के गंभीर प्रयास हुये हैं।

स्पष्ट यह भी था कि रवींद्रनाथ टैगोर स्वर्णकुमारी देवीके एक दूसरे उपन्यास एन अनफिनिश्ड साँका प्रकाशन किये जाने के भी विरुद्ध थे। उनका कहना था कि देवीकी इस कृति में इमानदारी की कमी है, क्योंकि उसे बाहरी दुनिया का बहुत मामूली अनुभव रहा था।

ऐसा कहना रवींद्रनाथ टैगोर के लिए शोभा नहीं देता था, क्योंकि इस उपन्यास के लेखन में स्वर्णलता देवीने बहुत परिश्रम किया था। अंततः प्रकाशन के बाद उसे पाठकों का बहुत स्नेह मिला। तत्कालीन समाज की स्थितियों के संदर्भ में यह उपन्यास आज भी प्रासंगिक है।

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नारीवादी लेखिका

यह कितना विचित्र था कि कठिन समय में स्वर्णकुमारी देवीने ऐसी स्त्रियों की समस्याओं का जो बेहतर समाधान बताया था वह मात्र उनका पुनर्विवाह किये जाने का परामर्श न होकर उन्हें अधिक शिक्षित करने और आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाने की ओर था।

विधवाओं और आम स्त्रियों के लिए यही विचार बाद में धीरे-धीरे अगले दो-तीन दशकों में और अधिक चर्चा में आए।

उनके उपन्यास की विधवा नायिका इसलिए आत्महत्या करती है कि वह औपनिवेशिक भारत की संरचना के भीतर अपनी स्थिति को सुरक्षित नहीं रख पा रही थी। वह अपने साथ हो रही अन्यायपूर्ण स्थिति के विषय पर लोगों में चेतना लाना चाहती थी।

एक हिन्दू औरत विदेशियों के लिये एक रहस्य है। है कि नहीं? उसके बदन के साथ-साथ उसका व्यक्तित्व भी एक आवरण में छिपा रहता है। केवल उसके करीबी लोग उसकी मिठास और महानता से परिचित होने की क्षमता रखते हैं।

पति तथा उसके मित्रों के प्रति उसकी लगन और आत्म त्याग की भावना और परमेश्वर की भक्ति दूसरे देशों की महिलाएँ इन सब अनोखे और पवित्र गुणों की नकल भी नही कर सकतीं।

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ड्रामा निगार

पश्चिमी देशों के पाठकों को इन पंक्तियों को पढ़ने से जो निष्कर्ष निकलता है वह पहला तो यह है कि एक हिन्दू स्त्री का मनोविज्ञान ब्रिटिश शासकों की समझ से परे है। दूसरा, यह कि वह उनसे हर तरह से बौद्धिक, शारीरिक, सामाजिक और आध्यात्मिक रूप से सबल है।

वह उनकी यूरोपियन स्त्रीवादी महिलाओं से किसी होड़ में भी नहीं है। अगर उसने अपनी परिधियों का निर्धारण किया है, तो सिर्फ अपने मन की शांति के लिए ही।

औपनिवेशिक शासन के लिए देवीने जो लिखा वह बहुत स्पष्ट था। वे कहती हैं, ‘हमारे साथ न तो समान बर्ताव किया जाता है, न ही हमें हमारे राष्ट्रीय आदर्शों के अनुसार शासकों से प्रेम मिलता है।

यदि हम सैकड़ों मे से किसी एक ने भी बेवफ़ाई दिखाई तो हम सब फांसी के लायक समझे जाते हैं। यह ताज्जुब की बात नहीं है कि पश्चिमवासी हमारी वीरता को प्रतिबिंबित महिमा समझते है और हमारी वफादारी और आत्मत्याग की भावना को कुत्ते के मिमियानी-सरीखी चापलूसी समझते हैं।

और मैं मौन रही। इससे पहले मुझे अंग्रेजों से मिलते वक्त अपनी जातीय असमानता का अहसास नही हुआ था।

स्वर्णकुमारी ने सिर्फ उपन्यास नही लिखे, बल्कि खुद ही उनका नाट्याँतर भी किया। उनके द्वारा लिखा कल्याणीउपन्यास अंग्रेजी और जर्मनी भाषा में अनूदित है। उस नाट्य रूपान्तर में लिखे गीत भी स्वयं उन्होंने ही लिखे थे। यह ड्रामा और गीत दोनों ही बहुत लोकप्रिय हुये

आज भी उनके लिखे गीत बंगाली संगीत में संगीतबद्ध किए जाते हैं। अपने लेखन में उन्होंने समाजवादी कुरीतियों और राजनीति को भी विषय बनाया। प्रतिदिन होने वाली घटनाओं को भी वह अपने लेखन का विषय बना लेती थीं।

यद्यपि उनका रचनात्मक लेखन फिक्शनल रहा, पर केवल कल्पना को ही उन्होंने अपने लेखन में प्रमुखता नहीं दी थी। स्वर्णकुमारी देवीने रचनाओं में नारी को उसमें प्रगतिशील रूप में पूर्णता और आदर्शवाद के साथ अभिव्यक्त किया था। 

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विज्ञान लेखन में कौशल

स्वर्णकुमारी ने वैज्ञानिक विषयों और तमाम थ्योरियों पर शोध पत्र लिखने में अग्रणी भूमिका निभाई। वे लेख सामान्य भाषा में होते थे ताकि अल्प शिक्षा प्राप्त लोग और विशेषकर महिलाएँ उन्हें आसानी से समझ सकें। उन्होंने कुल मिलाकर ऐसे 24 शोध पत्र लिखे जिनमें से सत्रह सन 1880-89 के बीच में भारतीपत्रिका में प्रकाशित हुये

उनका प्रकाशित हुआ पहला वैज्ञानिक निबंध भूगर्भअर्थात पृथ्वी का केंद्र था। यह ऐसा क्षेत्र था जिसमें अभी तक किसी ने कदम नहीं रखे थे। धीरे-धीरे उन्होंने अन्य विषयों पर भी वैज्ञानिक लेख लिखे जो तत्व बोधिनी’, ‘बालकऔर भारतीपत्रिकाओं में प्रकाशित हुए।

इनमें विज्ञान शिक्षा, सौर परिबार, छाया पथ याने मिल्की वे, प्रलय और ताराकरशी अर्थात गैलेक्सी आदि विषय चुने गए थे। उन्होंने मूल रूप से आकाश की रहस्यमयी प्रकृति और इस विषय पर विश्व में हुई प्रगति को लेकर अपने शोध पत्र लिखे।

इनकी भाषा इस तरह की थी कि वैज्ञानिक शोध पत्र होते हुए भी आम आदमी भी उन्हें आसानी से समझ सकता था। यद्यपि उनके द्वारा गणित का अध्ययन किए बिना खगोल शास्त्र के संबंध में लेख लिखना बहुत कठिन था परंतु उन्होंने वह सफलतापूर्वक कर दिखाया।

चूँकि उन दिनों विज्ञान लेखन का शैशव काल था और स्थानीय भाषा में कुछ ही लोगों ने लिखना शुरू किया था इसलिए उन्हें शब्दावली में नये शब्द बनाने पड़े ताकि बांग्ला भाषा में उसे आसानी से समझा जा सके।

उन्होंने कुछ वैज्ञानिक शब्दों को स्वयं गढ़ा तथा काफी मदद अपने से पूर्व के वैज्ञानिक लेखकों राजेंद्र नाथ मित्रा, मधुसूदन गुप्ता, ईश्वर चंद्र विद्यासागर और बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की शब्दावलियों से मदद ली। 

हो सकता है कि जो वैज्ञानिक सूचना उन्होंने अपने इन निबंधों के माध्यम से लोगों तक पहुँचाई, आज की परिस्थितियों में उसका बहुत अल्प उपयोग हो, लेकिन यह शोध लेख ऐतिहासिक दस्तावेजों के रूप में अवश्य दर्ज हो गए हैं।

इनसे मालूम होता है कि 19वीं शताब्दी के अंतिम चरण में किस तरह से विज्ञान विज्ञान के प्रसार की कार्यवाही अमल में आई थी।

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विलक्षण महिला

स्वर्णकुमारी देवी की दृष्टि केवल वैज्ञानिक ज्ञान और घटनाओं के विश्लेषण तक ही सीमित नहीं थी। उनका मस्तिष्क वैज्ञानिक विचारों का मातृभूमि के पारंपरिक रिश्तों के बेहतर उपयोग की दृष्टि से जुड़ा था। उनके लिए राष्ट्रीयता तथा तार्किकता एक सामान्य उद्देश्य के हेतु थे।

देवीने एक जगह लिखा था कि प्राचीन भारत विज्ञान का घर रहा है। यहाँ तक कि वैदिक काल में भी भारत में वैज्ञानिक विकास के तमाम उदाहरण दिखते हैं। स्वर्णकुमारी ने वैज्ञानिक विकास के परंपरागत तरीकों को इस देश की गौरवशाली परम्पराओं से संबद्ध किया।

उन्होंने देशवासियों को गणितीय और खगोलीय शोध की महत्ताओं को रेखांकित कराया। चिकित्सा विज्ञान और रसायन शास्त्र में भी अपनी शोधपरक दृष्टि से देवीने उन भारतीय वैज्ञानिकों को एक बेहतर दिशा दी, जो कि पूर्व से ही इन विज्ञानों में शोधरत थे।

औपनिवेशिक काल की विशिष्ट महिला के रूप में दर्ज स्वर्णकुमारी देवी तमाम राष्ट्रीय आंदोलनों में भी सक्रिय रही। उन्होंने पश्चिमी विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का भारतीय वैज्ञानिक संदर्भों में विश्लेषण कर उसे प्राचीन स्थानीय शोधों से तो जोड़ा ही, ऐसा करते हुए वह कई अच्छे पश्चिमी वैज्ञानिकों जैसे न्यूटन के योगदान की सराहना करना नहीं भूली।

उनके विषय में देवीने कहा था कि, ‘वैज्ञानिक मस्तिष्क किसी भी तरह के अंधविश्वासों को दूर भगा सकता है और जब तक हम भारतीय इस तरह की वैज्ञानिक शिक्षा को नहीं समझेंगे तब तक कोई प्रगति हो ही नहीं सकती।

पाँच जुलाई सन 1932 को अमृत बाजार पत्रिकाने अपने समाचारपत्र में स्वर्णकुमारी देवीकी मृत्यु का समाचार प्रकाशित करते हुए उनको यूँ श्रद्धांजलि दी थी, ‘बंगाल की अपने समय की सबसे विलक्षण महिला जिसने वहाँ की स्त्री जाति के उत्थान के लिए वह सब किया जो उससे बन पड़ा।

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