भारत के स्वाधीनता संग्राम में महिलाओं ने अपनी अग्रणी भूमिका निभाई हैं। कई स्त्रिया ऐसी थी, जिन्होंने इस आंदोलन में अपनी स्वतंत्र पहचान स्थापित की थी। तो कई खवातीनें ऐसी थीं जो अपने खाविंद के साथ कंधे से कंधा मिलाकर ब्रिटिशों के खिलाफ आजादी के जंग में कुदी। बेगम निशातुन्निसा मोहानी (Begum Nishat-un-Nisa) एक ऐसी ही महिला थीं, जिसने अंग्रजों के खिलाफ जंग मे अपनी जिन्दगी कुर्बान कर दी।
वैसे निशातुन्निसा कि पहचान मौलाना हसरत मोहानी (Hasrat Mohani) के पत्नी के रुप में होती हैं। उनका सारा जीवन मौलाना मोहानी के व्यक्तित्व के साथ ही चलता रहा।
1901 में महज पंधरा साल के उम्र में उनकी शादी मौलाना हसरत मोहानी से हुई। बेगम के पिता का नाम सय्यद शब्बीर हसन मोहानी था। जो हैदराबाद संस्थान के रायचुर कोर्ट में वकिल थे। जबकि हसरत मोहानी शादी के समय बी. ए. फर्स्ट इयर के अलीगढ कॉलेज के विद्यार्थी थें।
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एक विदुषी महिला
निशातुन्निसा एक होनहार और विदुषी महिला थी। हसरत के खानदान से उनका संबंध था। दोनो एक दूसरे से काफी मुहब्बत करते थे। बेगम निशातुन्निसा एक पढी-लिखी खातून थी। हालांकि उनके तालीम के बारे अधिकृत और अधिक जानकारी उपलब्ध नही होती। उनकी शुरुआती पढाई अरबी-फारसी में हुई थी। साथ ही वे उर्दू भी पढना-लिखना जानती थी।
निशातुन्निसा बेगम का घराना पढ़ा लिखा था। यह उस वक्त की बात है जब नारी शिक्षा हमारी संस्कृति में शामिल नहीं थी। उस जमाने में निशातुन्निसा पढ़ी-लिखी महिला थी। कस्बा मोहान में विद्यार्जन ज्ञान की परंपरा थी। कहा जाता है कि उन्होंने अपने कस्बे की लड़कियों को पढ़ना लिखना लिखना सिखाया और मोहान में नारी शिक्षा की परंपरा उन्हीं से शुरू हुई।
मजहबी तालीम के साथ साथ वह राजनीतिक घटनाओं पर भी अपनी स्वतंत्र राय रखती थी। जिसके चलते वे आजादी के जंग में उतरी। जब पती हसरत जेल में रहते तब बेगम निशातुन्निसा रास्ते पर उतरकर ब्रिटिशों के खिलाफ मोर्चा संभालती। आजादी के लडाई वे बेगम निशातुन्निसा के जिन्दगी मे एक बडा ठहराव लाया था। जिसके इर्द-गिर्द उनकी जिन्दगी चलती रही।
प्रो. फकरुद्दीन बेन्नूर अपनी किताब ‘मुस्लिम राजकीय विचारवंत आणि राष्ट्रवाद’ में लिखते हैं, “हसरत मोहानी के सभी प्रकार के आंदोलन और राजनीति में बेगम निष्ठा के साथ उनके साथ रही। उन्होंने पती के साथ सभी प्रकार के आंदोलनो में भाग लिया। बुरखा और परदे का त्याग कर स्वाधीनता आंदोलन में उनके साथ नियमित खडी रही।”
मौ. मोहानी को अंग्रेजी हुकूमत से मुखालिफत करने कि वजह से कॉलेज ने वकालत कि पढाई से महरूम कर दिया, तब उन्होंने रोजी रोटी के जुगाड के लिए ‘उर्दू ए मुअल्ला’ नामक उर्दू अखबार शुरु किया। इस अखबार में काम के लिए हसरत ने बेगम निशातुन्निसा को ‘मोहान’ से अलीगढ बुलवा लिया।
हसरत मोहानी लिखावट के साथ अखबार का बाकी सारा काम खुद ही करते। लिथोग्राफी के ब्लॉक बनाना और उसे कागज पर उतारना काफी मुश्कील काम था, जिसमे बेगम निशातुन्निसा उनका हाथ बँटाती। अखबार के साथ हसरत मोहानी राजनीतिक गतिविधीयों में भी भाग लेते। अंग्रेजी सरकार के के प्रखर विरोधी थें।
‘उर्दू ए मुअल्ला’ तकरीबन पांच साल तक चला। 1908 में एक विशेषांक में अखबार में ‘मिस्र में बरतानिया कि पॉलिसी’ पर एक लेख था। जिसमें ब्रिटिश हुकूमत पर जमकर वार किया गया था। जिसके ऐवज में अंग्रेजी सरकार ने उनका अखबार बंद करवा दिया। प्रेस का सारा सामान और किताबे जब्त कर ली गई। सरकार ने हसरत मोहानी को दो साल कि जेल और 500 रुपये जुर्माना लगा दिया।
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स्वदेशी आंदोलन
अखबार बंद होने के बाद निशातुन्निसा का समय बेहद कठिन गुजरा। पती वियोग और आर्थिक तंगहाली में उन्होंने अकेले जिन्दगी काटी। बेगम हसरत अपनी बूढ़ी मां के साथ रहती थी। कठिनाई और अभाव में गुजर तो हसरत की मौजूदगी में भी होती थी, मगर जब हज़रत मौजूद ना होते तो इस शिद्दत में और इजाफा हो जाता।
मुसीबत के समय में भी बेगम साहिबा नें किसी के सामने हाथ नही फैलाया। तमाम मुसबतोंं के बावजूद उन्होंने किसी रिश्तेदार के पास हाथ नही फैलाया। वह एक खुद्दार महिला थीं। जैसे तैसे गुजर चलता गया। हसरत के बंदी जीवन के दौरान जब कोई उनका हित चिंतक और हम दर्द न था, तब वह खुद ही मुश्किलों पर काबू पाया करती और उनका डटकर मुकाबला किया करती।
पंडित किशन प्रसाद कौल उर्दू के प्रसिद्ध लेखक और आलोचक थे। हसरत मोहानी से वह गहरा स्नेह रखते थे। एक दफा जब हसरत जेल गए तब वह निशातुन्निसा की खैरियत जानने के घर पहुंचे। वह ‘निगार’ विशेषांक मे लिखते हैं,
“बहुत देर इधर उधर की बातें करने के बाद मैंने झिझकते हुए कहा, अगर आप मंजूर कर दे तो कुछ माली इमदाद (आर्थिक सहायता) का जिक्र किया जाए। उन्होंने जवाब में कहा कि मुझे यह गवारा नहीं कि मेरे लिए पब्लिक से चंदा किया जाए। मैं जिस हालत में हूँँ खुश हूँँ, आप इसकी जहमत गवारा न करें।
लम्हे भर के खामोशी के बाद वह फिर बोल उठी, हसरत में शोरा (शायरों) के कई दीवान छपवाए थे, उनका यहां ढेर लगा हुआ है। उर्दू ए मुअल्ला बंद हो चुका है, यह कारोबार अब तर हो गया। अगर आप इसे बेचने का कोई इंतजाम करें तो अलबत्ता कुछ सहूलियत हो जाएंगी।”
हसरत मोहानी जब जेल से छुटे तो उन्होंने अखबार फिर से शुरु करने की ठान ली। परंतु परिस्थितीयां बिलकूल विपरित थी। मोहानी पर ब्रिटिशों कि नजर और ज्यादा पैनी हो गई। ब्रिटिश सरकार कि नौकरी तो वह करना नही चाहते थे। उनकी हर गतीविधीयो पर नजर रखी जा रही थी। ऐसे में उनके सामने रोजी-रोटी का सवाल खडा हुआ।
हसरत स्वदेशी आंदोलन से जुडे थे, इसलिए उन्होंने स्वदेशी निर्मित वस्तुओं कि दुकान चलाने का फैसला किया। उन्होंने जब यह कल्पना अपने मित्र मौलाना शिबली नोमानी को सुनाई तब उन्होंने कहा, “तूम आदमी हो या जिन्न! पहले शायर थे, फिर पॉलिटिशियन बने और अब बनिये हो गए हों।”
खैर, उन्होंने अलीगड के मिस्टन रोड (अब का रसेल गंज रोड) पर मौ. शिबनी नोमानी के सहयोग से ‘अलीगढ खिलाफत स्टोर लिमिटेड’ कायम कर लिया, और स्वदेसी कपडो कि दुकान शुरु की। जिसे चलाने में बेगम निशातुन्निसा का अहम किरदार रहा।
बेगम न सिर्फ स्वदेसी कि दुकान पर बैठती, बल्कि गली-मौहल्लों-चौराहे पर जाकर लोगों मे स्वदेसी का महत्व समझाती स्वदेशी वस्तुओ का प्रचार करती। लोगों को अपने देश में बनी वस्तुए खरेदी करने के लिए प्रवृत्त करती। यह दुकान खूब चल निकली।
मोहानी कि यह हसरत थी कि स्वदेशी आंदोलन को देशभर में प्रसिद्धी मिले। विदेशी भारत के लोग अगर विदेशी वस्तुए इस्तेमाल करना छोड दे, तो सरकार के अर्थिव्यवस्था कि कमर टुट सकती हैं। और देसी बुनकरो और कारखानदारों को बडा फायदा हो सकता हैं। मोहानी मानते थे कि विदेशी वस्तुओ का पुरी तरह बहिष्कार हो।
बेगम मोहानी के इस प्रयत्नों पर महात्मा गांधी नें ‘यंग इंडिया’ के 19 मई 1920 के अंक मे पहले पन्ने पर लिखा था। जिसमें गांधी कहते हैं “श्रीमती मोहानी को बरेली के एक स्वदेशी कि मिटिंग बुलाया गया जहां उनके साथ आई 15 मोहमेडन महिलाओं ने स्वदेशी का व्रत लिया।”
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महिला अधिकारों कि पैरवी
बेगम निशातुन्निसा एक क्रांतिकारी महिला थी। पती के साथ उन्होंने हर आंदोलन में भाग लिया। ब्रिटिश सरकार कि वह प्रखर विरोधी थी। लोगों मे जाकर वह अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सजग करती। वह एक प्रखर राष्ट्रवादी महिला थी।
निशातुन्निसा बेगम महिलाओ के हुकूक के लिए भी लडती रही। महिला अधिकारों के लिए ऑल इंडिया विमेन्स कॉन्फ्रन्स में हिस्सा लेती रही। दिसम्बर 1917 में उन्होंने एक महिलाओं का प्रतिनिधिमंडल लेकर वाईयरॉस से मुलाकात की थी।
जिसमे मिसेस चंद्रशेखर अय्यर, मिसेस गुरुस्वामी, मिसेज जनारा दास, सरोजिनी नायडू, मिसेज बेनेट आदी महिलाए शामिल थी। बताया जाता है कि इसका एक फोटो काँग्रेस के नई दिल्ली के दफ्तर में आज भी मौजूद हैं।
बता दे कि हसरत मोहानी, काँग्रेस मुस्लिम लिग और कम्युनिस्ट पार्टी के मेंबर थे। हर बार पार्टी के कार्यक्रमों मे पती के साथ निशातुन्निसा भी जाती। बेगम निशातुन्निसा 1920 के अहमदाबाद काँग्रेस के अधिवेशन में भी शामिल रही।
1922 के काँग्रस के गया अधिवेशन में भी वह शामिल थी। साथ ही 1925 के कम्युनिस्ट पार्टी क स्थापना दिवस कार्यक्रम में भी व शामिल रही। बता दे कि मौलाना हसरत मोहानी इस कार्यक्रम कि सदारत कर रहे थें।
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मुकदमों पर नजर रखती
हसरत मोहानी अंग्रेजी हुकूमत कि मुखालिफत करने के वजह से कई बार जेल गये। ऐसे समय में निशातुन्निसा उनकी अदालतो में पैरवी करती थी। बेगम पती के मुकदमों के साथ घर का कामकाज भी देखती।
जब स्वदेसी स्टोर बंद हुआ तो मौलाना मोहानी नेे आगे (1909 से 1913 और 1925 से 1942) जब हसरत मोहानी ने ‘उर्दू ए मुअल्ला’ अखबार फिर से शुरु किया। तो उसमे बेगम निशातुन्निसा बाकी कामों के साथ राजनीतिक घटनाओ पर मजमून भी लिखा करती।
हबीबुर रहमान सिद्दीकी अपनी किताब, ‘हसरत सियासदाँ और शायर’ में बेगम मोहानी के एक खत के बारे में लिखते हैं, “सख्त अफसोस हैं कि आज मैं हस्बे मामूल सूबह को हसरत से मिलने जेल गई, वहाँ से मालूम हुआ कि वह सात बजे सुबह को कही बाहर खुफिया तौर पर भेज दिए गए। देखिए खुदा पर भरोसा हैं। मालूम नही क्या मुकद्दर में हैं।”
“जिसका पुरसाने हाल (हाल पुछने वाला) कोई नही होता, उसका मददगार अल्लाह तआला होता तो होता ही हैं। चुनाँचे मैंने कोशिश की या न की, खुदा के फजलों करम से हसरत की अपील बगैर किसी वकील, बैरिस्टर के मंजूर हो गई और पेशी पहली जुलाई को मुकर्रर हैं। अगर कोई पेशी के दिन गया तो गया, वरना जहाँ अब तक खुद ही सब कुछ किया कराया हैं यह भी मरहला तै कर लेंगे। ख्वाह नतीजा कुछ भी हो।”
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मशाहिरे हिन्द
निशातुन्निसा एक शौहरपरस्त महिला थी। वह हसरत को जेल में देखने जाती, उनके लिखे शायरी कि पाण्डुलिपीयों को संभाल कर रखती। उनके पढने के किताबों कि देखरेख करती। मोहानी कि जीवनीयों मे लिखा गया हैं कि, जब मोहानी किसी शेर को लिखते और उसे बेगम को पढकर सुनाते तो वे उसपर अपनी राय जरुर देती। कभी कभार उसे दुरुस्त भी कर लिया करती।
जब कभी मौलाना हसरत अंग्रेजी हुकूमत से या किसी राजनैतिक गतिविधीयों से परेशान होते, तब बेगम उन्हें संभालती, उनका ढांढस बांधती। जब भी पुलिस या ब्रिटिश हुकूमत के लोग घर आते और घर का सामान तितर-बितर करते, किताबे और कागज उलट-पलट करते तब बेगम को काफी परेशानी होती. वे उन्हे फिर से अपनी जग पर ठिक से रखती।
ख्वाजा हसन निजामी नें बेगम निशातुनिसा को ‘मशाहिरे हिन्द’ याने भारत कि मशहूर हस्तियाँ में शामिल कर लिया था। वह अपने एक मजमून में लिखते हैं,
“हसरत की बीवी मुसलमानाने हिन्द की औरतों में बडी वफाशुआर और शौपरपरस्त औरत हैं। अय्यामें बला (मुसीबत के वक्त) में ऐसी वफाशुआरी इस औरत से जाहिर हुई जैसी सीताजी नें रामचंद्रजी के साथ की थी।”
मौलाना मुहंमद अली बेगम हसरत के बारे में लिखते हैं, “भाई हसरत के कह दीजीए कि बिरादरम बावजूद हिम्मतों इस्तकलाल (साहस और मजबूती) के तुम्हारा मर्तबा एक नहीफूल जस्सा (दुर्बल काया वाली) औरत से कम ही रहेंगा। जिसके सीने में बजाहिर तुमसे भी बडा दिल मौजूद था और जिसने तुम्हारी गैर हाजरी में मुसलमानों को हिम्मतों इस्तिकलाल, जुर्रतो-हौसले का सबक दिया जो तुम खुद आजाद होकर न दे सकते थे, और शायद कैद होकर भी नही दिया।”
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त्याग कि मूरत
निशातुन्निसा एक बहादुर, निडर और हौसलेमंद औरत थी। लंबी बिमारी के बाद 18 अप्रेल 1937 को उनका निधन हुआ। वह 37 साल तक हसरत की जीवनसंगिनी बनी रही। हसरत ने उनके निधन के बाद ‘उर्दू ए मुअल्ला’ में एक लंबा लेखा लिखा, जिसके कुछ वाक्य बेगम की खुबीयों का बयान करते हैं,
“खुदा गवाह कि राकिम (इन वाक्यों के लिखने वाला लेखक) के इस कौल में जरा भी मुबालगा नही हैं कि इसारो-इन्किसार (त्याग और विन्रमता) इहया-ओ-गैरत (लज्जा और आत्मसम्मान) मुहब्बतो मुरव्वत, फहमो फिरासत (बुद्धि और विवेक) जुर्रतो सदाकत (साहस और इमानदारी) अज्मों हिम्मत (दृढ प्रतिज्ञा) वफा ओ सखा, हुस्ने अकीदत (आस्था) सिदको-नियतों-खुलूसे इबादत (पवित्र इरादा व सच्ची इबादत) हुस्ने खल्क (अच्छा स्वभाव) सहते-मजाक सुरुचि सम्पन्नता) पाकी ओ पाकिजगी, सब्रों इस्तिकलाल (धैर्य-मजबूती) और सबसे बढकर इश्के रसूल और मुहब्बत और मुहब्बते हजरते हक के लिहाज से शायद मुसलमान औरतें बल्कि मर्दो में भी आज हिन्दुस्तान में कम से कम अफराद (लोग) मौजूद होंगे जिनको बेगम हसरत से बेहतर तो क्या उनके बराबर करार दे सकें। उन तमाम बातों की तकलीफ एक जुदागाना तस्नीफ (अलग कृती) की तालिब हैं”
हसरत अपनी पत्नी से बेहद मुहब्बत करते थें। उनके निधन से उन्हे बडा सदमा लगा। मोहानी दम्पती को 1907 में एक लडकी पैदा हुई, जिसका नाम नईमा रखा गया। उसकी बाद में कराची में शादी की गई। निशातुनिसा एक स्वतंत्र व्यक्तित्व कि धनी महिला थी। परंतु अफसोस कि बात हैं, उनके बारे में इतिहास के किताबों मे अधिक जानकारी उपलब्ध नही होती।
उर्दू भाषा में निशातुन्निसा पर बहुत चरित्र लिखे जा चुके हैं परंतु अग्रेजी या हिन्दी भाषा में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नही होती। भारत के इस महान विदुषी इस तरह कि उपेक्षा होना लगत बात हैं। एक बड़े बाप की बेटी होने के बावजूद भी वह निर्धन और फकिरी स्वभाव के हसरत के साथ बिना कोई शिकायत के उम्रभर रही। उनके बारे में लिखे हुए से यह ज्ञात होता है कि वह एक साहसी और धैर्यशील महिला थी।
स्वाधीनता के इतिहास के बहुत से किताबों मे निशातुन्निसा के बारे में त्रोटक जानकारीयाँ उपलब्ध होती हैं। परंतु उनका पुरा छरित्र अब तक लिखा नही जा चुका हैं।
स्वदेशी आंदोलन कि नेता, महिला अधिकारों कि बानी और एक प्रखर राष्ट्रवादी इस आधुनिक नारी को हमारा सलाम..
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हिन्दी, उर्दू और मराठी भाषा में लिखते हैं। कई मेनस्ट्रीम वेबसाईट और पत्रिका मेंं राजनीति, राष्ट्रवाद, मुस्लिम समस्या और साहित्य पर नियमित लेखन। पत्र-पत्रिकाओ मेें मुस्लिम विषयों पर चिंतन प्रकाशित होते हैं।