न्याय इस्लाम के प्रमुख मूल्यों में से एक है औ कोई भी आर्थिक प्रणाली जो न्याय पर आधारित नहीं है वो इस्लाम के लिए काबिले कुबूल नहीं हो सकती है।
कुरआन न्याय सबकी पहुँच में हो इस पर बहुत जोर देता है और समाज के सबसे कमजोर वर्ग जिसे कुरआन ‘मुसतादेफून’ कहता है उनकी पूरी तरह और बिना शर्त समर्थन और घमंड करने वाले सत्ताधारी वर्ग (जिन्हें कुरआन मुसतकबेरून कहता है) जो कमजोर वर्गों को दबाते हैं, उनकी निंदा करता है। हम इस लेख में उस पर प्रकाश डालना चाहेंगे।
अमेरिका में शुरू किये गये आंदोलन से मुझे इस लेख को लिखने का हौसला मिला जो खास तौर से यूरोप के अलावा दुनिया के अन्य हिस्सों में फैल गया है। इस आंदोलन ने एक दिलचस्प नारा दिया है, ‘हम निन्यानवे प्रतिशत हैं।’
इस आंदोलन के नेताओं के अनुसार, एक प्रतिशत अमेरिकियों के हाथो में सारी दौलत केंद्रित है और 99 प्रतिशत अमेरिकियों को उनके अपने अधिकारों से वंचित कर रहे हैं।
बैज पहने हुए सैकड़ों लोग ‘हम 99 प्रतिशत हैं’ और इसके जैसे दूसरे नारे लेकर अमेरिका के वित्तीय जिले कहे जाने वाले वॉल-स्ट्रीट और अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर भी लोगों ने कब्जा जमाया।
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बुनियादी मूल्य
अमेरिका जो पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का किला है और यहां लाभ ही केवल पवित्र शब्द हैं और सामूहिक न्याय लगभग एक गंदा शब्द है। अमेरिका में स्वतंत्रता को बहुत बुनियादी मूल्य माना जाता है लेकिन इस आजादी में समाजवादी होने कि स्वतंत्रता शायद ही शामिल हो और कम्युनिस्ट होने की तो बात ही मत कीजिए।
इसी अमेरिका से एक आंदोलन शुरू हुआ है जो समाजवाद और सामूहिक न्याय का समर्थन कर रहा है और माल व दौलत जमा करने का विरोध कर रहा है और ऐसे जमा करने को जो एक प्रतिशत अमेरिकियों को अमेरिकी जनता के लगभग सारे धन का मालिक बनाती हो।
इसको मक्का में इस्लाम के आने से पहले क्या हो रहा था, उससे तुलना करना दिलचस्प होगा। जैसा कि हम सभी जानते हैं, मक्का सभी अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वित्त का केंद्र था।
वहां विभिन्न कबायली सरदारों ने अंतर-कबीला निगम की स्थापना कर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित जमाने की कोशिश कर रहे थे। माल व दौलत जमा कर रहे थे और कमजोर वर्गों की देखभाल के प्रति कबायली नैतिकता की अनदेखी कर रहे थे।
दूसरे शब्दों में, जैसे हमारे आज के समय में अर्थव्यवस्था का ग्लोबलाइज़ेशन (वैश्वीकरण) और लिबरलाईज़ेशन (उदारीकरण) कुछ लोगों को माल व दौलत जमा करने की इजाज़त देता है।
मक्का में इस्लाम के आने से पहले अमीर और गरीब के बीच अंतर बहुत बढ़ गया था जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक तनाव पैदा हुआ। सामाजिक तनाव बहुत अधिक विस्फोटक हो गया था जिसका व्यापक तौर पर कुरआन की आयत नंबर 104 में ज़िक्र किया गया है।
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अधिक लाभ पर रोक
यह सूरह कहता है कि वो आदमी जिसने माल जमा किया और उसे बार बार गिनती करता है और विचार करता है कि यह माल उसे अब्दी (हमेशा रहने वाला) बना देगा। लेकिन उसे यकीनन हत्मा में दिया जाएगा। हत्मा क्या है? ये वो आग है जो उसके दिल को निगल जाएगी।
एक मक्की सूरह में क़ुरआन फरमाता है कि, ‘भला तुमने उस व्यक्ति को देखा जो (रोज़े) जज़ा को झुठलाता है? ये वही (बदबख्त) है, जो यतीम को धक्के देता है। और फकीर को खाना खिलाने के लिए (लोगों को) तरग़ीब नहीं देता’ (107)।
इस्लाम के आने से पहले मक्का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वित्त का केंद्र बन गया था और इस शहर से होकर ऐश व आराम के सामानों से लदे कारवां गुज़रा करते थे और कबायली सरदार, जो मक्का और सल्तनते रोम के बीच बड़े रेगिस्तान को पार कराने वाले गाइड हुआ करते थे।
लेकिन धीरे धीरे वह स्वयं ही विशेषज्ञ व्यापारी बन गए और ये व्यापारी, अधिक और अधिक धन के लालची बन गए और अपने संसाधनों को कारोबार में लगाते रहे ताकि और अधिक लाभ कमा सकें।
व्यापार और लाभ की इस प्रक्रिया ने उन्हें इस कदर व्यस्त रखा कि कुरआन की सूरह 102 कहता है कि लोगों, माल की तलब ने तुमको गाफिल कर दिया, यहाँ तक कि तुम अपनी कब्रें जा देखीं।
जबकि मक्का के कबीलों के प्रमुखों का बहुत ही छोटा हिस्सा बहुत ही अमीर हो रहा था, ग़रीबों, यतीमों, विधवाओं और गुलामों को पूरी तरह अनदेखा किया जा रहा था उनका शोषण और अधिक माल जमा करने के लिए किया जा रहा था।
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इन्साफ की बात
ये लोग गरीबी और महरूमी की ज़िन्दगी गुजार रहे थे। अमीरों को किसी बात ने प्रभावित नहीं किया जबकि पहले के कबाइली समाज में गरीब की कोई कल्पना नहीं थी।
इन हालात की पृष्ठभूमि में कुरआन की ये आयतें नाज़िल हुईं। न्याय कुरआनी नैतिकता में इस कदर केंद्रीय हैसियत रखते हैं कि अल्लाह का नाम आदिल भी है और कुरआन भी ये कहता है कि ‘इन्साफ किया करो कि यही परहेज़गारी की बात है (5:8)।
इस तरह वहां एक ओर सामूहिक न्याय की पूरी तरह गैर मौजूदगी थी और दूसरी ओर माल व दौलत का जमा करना था। जो कुछ अमेरिका में हो रहा है उसके साथ इसकी तुलना करें।
अमेरिका में जहां खुशहाली के कारण लोग भूल गए थे कि गरीबी का जीवन क्या है, वहाँ 1 प्रतिशत आबादी के हाथों में धन जमा हो रहा है और बाकी के 99 प्रतिशत लोगों को मुश्किलों का सामना है, रोजगार से हाथ धोना पड़ रहा है और भूखमरी का जीवन बिताने लगे हैं।
इन परिस्थितियों के तहत यह आंदोलन शुरू हुआ और हजार की तादाद में लोग वाल स्ट्रीट या कई अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर प्रदर्शन कर रहे हैं।
वास्तव में मीडिया की इस तरह की गतिविधियां में अधिक दिलचस्पी नहीं है जो पूँजीवादी प्रणाली की कमजोरी उजागर करे और इसलिए इसे ज़्यादा रिपोर्ट नहीं करता है।
दोनों, प्रिंट के साथ ही साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडया में इसे ज़्यादा से ज़्यादा जाहिर किये बगैर सिर्फ कभी कभार ही उसके बारे में लिखने को मजबूर हैं। मुझे उनसे बहुत कुछ कहना है जो मीडिया को नियंत्रित करते हैं।
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सामूहिक न्याय के आदर्श
मक्का में इन दिनों न तो लोकतंत्र था और न ही अपने अधिकारों के बारे में जागरूकता, और न ही कोई लोकतांत्रिक आंदोलन और इसलिए लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने का एकमात्र ज़रिया इल्मे इलाही था।
इसलिए क़ुरआन मुहंमद (स) के द्वारा इलाही इल्हाम को नाज़िल करने एक ज़रिया बना और इन आयतों में मालो दौलत के जमा करने और लोगों को महरूम करने के अमल की निंदा की गई। इन आयात ने अपने मानने वालों के बीच सामूहिक न्याय के बारे में जागरूकता पैदा की।
ये भी काबिले ग़ौर है कि कुरआन जरूरत पर आधारित जीवन के पक्ष में है और लालच या ऐशो इशरत पर आधारित जीवन की कल्पना का विरोध करता है।
कुरआन साफ तौर पर कहता है कि अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद जो कुछ बच गया वो अफु है। लेकिन, नबी करीम के कुछ सहाबा ने आप के जीवन में और उसके बाद भी इस पर अमल किया इसके अलावा मुसलमानों ने कभी इस पर अमल नहीं किया।
वास्तव में नबी करीम के कई सहाबा सोने या चांदी के बर्तन में पानी पीने को गुनाह समझते थे। लेकिन इस विचार की अवधि बहुत कम थी।
अगर मुसलमानों ने इन आयतों को गंभीरता से लिया होता और उन पर अमल किया होता तो वो पूरी दुनिया के लिए सामूहिक न्याय के लिए आदर्श होते। और विवादों से खाली दुनिया और युद्धों और खून खराबे के बिना दुनिया और एक शांतिपूर्ण दुनिया जहां सभी अपने को सुरक्षित समझते।
इसी दुनिया को असली जन्नत बनाने की प्रक्रिया में सहायक होते। लेकिन अमेरिका ने अपने लोगों के जीवन को खुशहाल बनाने के लिए पूरी दुनिया को नरक बना दिया है।
* ये आलेख 2012 में डॉन में प्रकाशित हुआ था।
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एक भारतीय सुधारवादी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता थे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस्लाम में मुक्ति धर्मशास्त्र पर उनके काम के लिए जाना जाता है, उन्होंने प्रगतिशील दाउदी बोहरा आंदोलन का नेतृत्व किया। लिबरल इस्लाम के प्रवर्तक के रूप उन्हे दुनियाभर में ख्याती मिली थी। इस्लाम, महिला सक्षमीकरण, राजनीति और मुसलमानों के सामाजिक अध्ययन पर उनकी 50 से अधिक पुस्तके प्रकाशित हुई हैं।