फिर एक बार हो बहुलता में ‘भारत’ कि खोज

क्या भारत भी एक देश है? यह एक विचित्र सवाल नहीं है। विंस्टन चर्चिल ने कभी उत्तेजना में कहा था कि “भारत मात्र एक भौगोलिक अभिव्यक्ति है। यह भूमध्य रेखा से अधिक एक देश नहीं है.” इसी भावना को सिंगापुर के संस्थापक ली कुआन येन ने भी हाल ही में दोहराते हुए किया था। उनका तर्क था कि भारत वास्तव में एक देश नहीं है। इसके बजाय वह 32 अलग राष्ट्रों का एक समूह है, जो ब्रिटिश रेल लाइन के साथ बंधा है।

भारत विविधता को नया अर्थ देता है। देश में कम से कम 15 प्रमुख भाषाएँ, सैकड़ों बोलियाँ, कई प्रमुख धर्म और हजारों जनजातियाँ, जातियाँ और उपजातियाँ शामिल हैं। दक्षिण का एक तमिल भाषी ब्राह्मण पंजाब के एक सिख के साथ बहुत कम समानता है 

प्रत्येक की अपनी भाषा, धर्म, जातीयता, परंपरा और जीवन पद्धति है। स्वतंत्र भारत की पहले मंत्रिमंडल की एक तस्वीर देखें जिसमे आपको दिखेंगा कि उसमे शामील प्रत्येक लोगों को क्षेत्रीय या धार्मिक परिधान पहने हुए हैं प्रत्येक सदस्य अलग-अलग समुदाय  (पंडित, सरदार, मौलाना, बाबू, राजकुमारी) का प्रतिनिधित्व करता दिखाई देंगा।

आज के भारत में पिछले दो दशक से जो चुनाव हुए हैं, उसमे टिप्पणीकार कोई एक राष्ट्रीय रुझान या थीम खोजने में विफल रहे हैं। वास्तव में राज्य दर राज्य स्थानीय मसले और व्यक्तित्व छाए रहते हैं। आज भारत के ज्यादातर राज्यों में अलग-अलग क्षेत्रीय दलों का शासन है। फिर भी कुछ ऐसे लोग हैं, जिनका पक्का यकीन है कि भारत अपरिहार्य रूप से एक है।

पढ़े : मुघल शासक बाबर नें खोजी थी भारत की विशेषताएं 

पढ़े : शहेनशाह हुमायूं ने लगाया था गोहत्या पर प्रतिबंध

इस बात के प्रबल पक्षधर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे। अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ (The Discovery of India) में नेहरू ने, जो भारतीय इतिहास की उनकी अपनी व्याख्या है, प्राचीन सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर सम्राट अशोक के शासन और मुघलकाल से होते हुए आधुनिक भारत तक के इतिहास में एक बुनियादी सातत्य का वर्णन किया है।

नेहरू भारत की अपार विविधता और एकसूत्रता की इसकी कमी को बहुत अच्छी तरह समझते थे। देश हिन्दू और मुसलमानों में विभाजित था, जो उनके और महात्मा गांधी के एक संगठित भारत के सपने के लिए भयावह साबित होने वाला था।

लेकिन वे आजादी के आंदोलन के लिए भारत को एक देश के रूप में देखने को एक बौद्धिक प्रश्न के रूप में खड़ा कर रहे थे। और उनकी बात में दम था। भारत का हजारों वर्षों तक एक तारतम्यपूर्ण भौगोलिक और राजनीतिक अस्तित्व रहा है।

लेकिन नेहरू और चर्चिल दोनों ही राष्ट्र-राज्य की अपनी अवधारणा में गलत थे। भारत यूरोप के एक जातीय और एक धर्म वाले राष्ट्रों के उदाहरण को न अपना सका। ब्रिटेन ने टेक्नोलॉजी-रेलमार्ग और हथियारों के जरिये भारत को संगठित किया था।

इस तरह भारत को एक करने की प्रवृति ने बदले में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रूप में ब्रिटेन के खिलाफ एक संगठित राष्ट्रीय विरोध का मार्ग प्रशस्त किया। लेकिन यह एक ऐतिहासिक अपवाद ही था। इतिहास में ज्यादातर समय भारत एक ढीला-ढाला महासंघ ही रहा है।

नेहरू और उनके अनेक समकालीन रजनेता उन्नीसवी शताब्दी के युरोपीय राष्ट्रवाद और बिसवीं शताब्दी के युरोपीय समाजवाद से गहरे रूप में प्रभावित रहे हैं। एक शक्तिशाली राष्ट्रीय सरकार के बिना उन्होंने आधुनिक भारत की कल्पना तक नहीं की थी। भारत में राजनीतिक क्षेत्र के बजाय आर्थिक क्षेत्र में केंद्रीकरण ज्यादा मजबूती से हुआ।

पढ़े : औरंगजेब नें लिखी थीं ब्रह्मा-विष्णू-महेश पर कविताएं

पढ़े : औरंगज़ेब का नाम आते ही गुस्सा क्यों आता हैं?

1960 के दशक में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के हाथों अपनी राजनीतिक जमीन खोने लगी। पहले भाषाई आधार पर दक्षिण में और फिर जाति आधारित दलों के कारण उत्तर में। इंदिरा गांधी के समय में केंद्र सरकार का विरोध चरम पर पहुंच गया, जिन्होंने 1970 के दशक में दर्जनों स्थानीय सरकारों को बर्खास्त कर दिया था, ताकि या तो क्षेत्रीय दलों को कुचल दिया जाए या फिर उन्हें अंगीकार कर लिया जाए।

परिणामस्वरूप उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में कोई आधा दर्जन हिंसक अलगावादी आंदोलनों का जन्म हुआ जिनमें से एक के कारण 1984 में उनकी जान गई।

बहरहाल पिछले 20 वर्षों में भारत राष्ट्रीयता के एक अलग मॉडल की तरफ बढ़ा है। क्षेत्रों और क्षेत्रीय दलों की ताकत आज निर्विवाद है। 1990 के दशक के शुरू से भारत में लाइसेंस परमिट कोटा राज का खात्मा शुरू हुआ और अर्थव्यवस्था को खोला गया। इसका असर यह हुआ कि भारत के संस्थापकों ने देश की जो परिकल्पना की होगी, उससे वह काफी अलग बन गया है।

आर्थिक उदारीकरण ने एक राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का निर्माण किया है और टेक्नोलॉजी एक राष्ट्रीय संस्कृति का निर्माण कर रही है। क्रिकेट से लेकर बॉलीवुड तक एक साझा लोकप्रिय संस्कृति हर भारतीय के जीवन में झलक रही है। एक और साझा चीज आर्थिक विकास ने देश को दी है। यह है एक शहरी मध्य वर्ग, जिसके हित क्षेत्र, जाति और धर्म की सीमाओं को लांघते हैं। 

भारत की ज्यादातर मानव संसाधन और संपदा शहरों और कस्बों में पैदा होती है। शहरी भारत देश के सकल घरेलू उत्पादन का 70 प्रतिशत देता है, लेकिन देश के 70 प्रतिशत लोग आज भी गांव में रहते हैं। ब्राउन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय ने लिखा है कि गांव वह जगह है, जहां वोट है और शहर वह जगह जहां पैसा है।

अमेरिका एक मध्यमवर्गीय समाज है। देश के अधिकांश लोग खुद को मध्यम वर्ग मानते हैं और राजनेता हर भाषण और नीतिगत प्रस्ताव में उस विशाल समूह को केंद्रीत करते हैं। भारत में, राजनेताओं ने आम तौर पर ग्रामीण को मसिहा है। किसी भी दल के लिए शहरी एजेंडा गंभीर नहीं है, लेकिन सभी के पास ग्रामीण योजनाएं विस्तृत प्रकार से हैं।

लोकप्रिय संस्कृति इस विभाजन को मजबूत करने के लिए इस्तेमाल किया जाता हैं। पारंपरिक बॉलीवुड फिल्मों में ग्राम जीवन सादगी और सदाचार को दर्शाता है। शहर अपराध और संघर्ष के केंद्र थे, जिन्हें एक छोटे समूह द्वारा जैसे – अमीर, अक्सर भ्रष्टाचारी कुलीन वर्ग द्वारा नियंत्रित किया जाता था।

पढ़े : ब्रिटेन का ‘डायवर्सिटी क्वाइन’ बनेगा सभ्यताओं का गठजोड़

पढ़े : ज्ञानवापी मस्जिद विवाद, समाज बांटने के प्रयोग कब तक?

दशकों तक राष्ट्रीय राजनीतिक दल काम, भोजन और ऊर्जा के लिए भारी सब्सिडी देते रहे हैं, जिसके कारण से बाजार प्रभावित हुए हैं और भारत की बुनियादी आर्थिक समस्याएं ज्यों की त्यों खड़ी रही हैं।

भारत के आर्थिक सुधारों के बाद भी ये सब्सिडी आदि की योजनाएं जारी रही हैं और प्रायः अच्छा शासन देने के बजाय इसी मानसिकता को प्राथमिकता दी जाती रही है। ज्यादातर राजनीतिक आभिजात्य वर्ग यही मानता है की भारत तीसरी दुनिया का एक गरीब देश है।

मध्यवर्ग भी इसी धारणा का शिकार है। सरकार से बेहतर स्कूल की मांग करने के बजाय वह अपने बच्चों को कीमती प्राइवेट स्कूलों में भेजता है। पुलिस पर भरोसा करने के बजाय वह अपने घर आदि के लिए सुरक्षा गार्ड की सेवा लेता है।

वह चुनाव के लिए खड़ा नहीं होना चाहता और न ही वोट देता है, बल्कि सिंगापुर या अब चीन की तरह अधिनायकवादी शासन व्यवस्था से भी उसे गुरेज नहीं है। लेकिन 20 वर्षों के आर्थिक विकास ने देश को बादल दिया है। आज भारत में 25 करोड़ का मध्यवर्ग है और देश की आबादी का 30 प्रतिशत शहरों में रहता है और यह संख्या भी बढ़ रही है।

पढ़े : इब्ने खल्दून : राजनैतिक परिवार से उभरा समाजशास्त्री

पढ़े : उर्दू और हिन्दी तरक्की पसंद साहित्य का अहम दस्तावेज़

वैश्वीकरण ने इस शहरी मध्यवर्ग की अपने से और अपनी सरकार से अपेक्षा बढ़ा दी हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था के खुलने से इस वर्ग के सामने एक नया विश्व खुला है – ऐसा विश्व जिसमें भारत जैसे देश तेजी से विकास कर रहे हैं, आधुनिक इन्फ्रॉस्ट्रचर का निर्माण कर रहे हैं और सक्षम सरकारों का गठन कर रहे हैं। अच्छे विचार और कठिन श्रम पर उनका भरोसा है।

मैं आशावादी रहता हूँ। हम भारत में राष्ट्रवाद की एक नई भावना के जन्म को देख रहे हैं, जो अपने शहरों और कस्बों में महत्वाकांक्षी मध्यम वर्गों से खींची गई है, जो वाणिज्य और प्रौद्योगिकी द्वारा एक साथ जोड़े हुए हैं। उनकी आम आकांक्षाएं और महत्वाकांक्षाएं हैं, एक आम भारतीय सपना है – जीवन जीने के अच्छे मानक, अच्छी सरकार और भारत की विविधता का उत्सव।

हो सकता है कि यह पुराने दिनों की तरह राष्ट्रवाद के लिए रोमांटिक आधार न हो, लेकिन यह आधुनिक देश के लिए एक शक्तिशाली और टिकाऊ आधार है जो दुनिया पर अपनी पहचान बनाना चाहता है।

(मूल लेख ‘रीइमेजनिंग इंडिया’ पुस्तक में प्रकाशित हुआ हैं, हम इसका संक्षिप्त दे रहे हैं। पुरा लेख आप यहां पढ सकते हैं।)

जाते जाते :

* अनपढ़ होते हुये भी सम्राट अक़बर था असीम ज्ञानी

* क्या हैं, चर्च से मस्जिद बने ‘अया सोफ़िया’ कि कहानी?

Share on Facebook