अगस्त 26, 683 (AD) के दिन हर्रा का युद्ध हुआ था। इसके विषय में लिखने से पहले संक्षेप में कुछ कहना ज़रूरी है। इस्लामी कैलेंडर के अनुसार मुहर्रम साल का पहला महीना है जिसके दसवें दिन सन 61 हिजरी (10 अक्तूबर 680 ईसवी) में पैग़म्बर मुहंमद (स) के देहांत के केवल पचास साल के भीतर करबला की घटना पेश आयी।
करबला में पैग़म्बर के नाती इमाम हुसैन (अ) और उनके परिवारजनों और साथियों को बहुत ही बेरहमी के साथ क़त्ल किया गया, उनकी लाश को घोड़ों से रौंदा गया। पैग़म्बर की नवासी ज़ैनब को क़ैद किया गया। इन सबका क़ुसूर यह था कि अन्य की तरह हुसैन (अ) ने यज़ीद की ख़िलाफ़त को मान्यता देने से इनकार कर दिया था।
करबला की जंग ने पूरे विश्व की चेतना को जगाने का काम किया है। इस घटना के जब इस्लामी कैलेंडर के अनुसार 1300 साल पूरे हुए तो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने अपने संदेश में कहा था, “मैंने हुसैन (अ) से सीखा की मज़लूमियत में किस तरह जीत हासिल की जा सकती है! इस्लाम की बढ़ोतरी तलवार पर निर्भर नहीं करती बल्कि हुसैन के बलिदान का एक नतीजा है जो एक महान संत थे!”
पैग़म्बर के देहांत के बाद मदीना के मुसलमानों ने एक नयी संस्था ख़लीफ़ा की स्थापना की जो केवल मदीना के कुलीन वर्ग क़ुरैश का एक महाजिर ही हो सकता था। यह व्यवस्था एक प्रिमिटिव क़बिलाई समाज के लिये काफ़ी उपयुक्त थी, लेकिन जैसे-जैसे ख़िलाफ़त ने साम्राज्यवादी रुख़ इख़्तियार किया और सरप्लस आने लगा तो भटकाव का रास्ता भी खुलने लगा। अंत में बराये नाम ख़िलाफ़त रही और इसके स्थान पर आततायी बादशाहत स्थापित हो गयी।
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परिवारवाद की खिलाफ़त
बिलाशुभाह ख़िलाफ़त के बादशाहत में परिवर्तन (पहले चारों खलीफा के निधन के बाद) हो जाने पर पहले बादशाह अमीर माविया बने, जैसा कि ख़ुद वह कहते रहे हैं कि अरब के पहले बादशाह वह हैं। अमीर माविया को ख़िलाफ़त इमाम हसन (स) (हुसैन के बड़े भाई) से एक संधि के तहत मिली थी। इसकी अनेक शर्तें थीं जिसमें न्यायपूर्ण राज करने और अमीर माविया के बाद ख़िलाफ़त के पलटने की शर्त अहम थी।
बीस साल सीरीया से इस्लामी जगत पर जिस प्रकार हुकूमत की गयी उसपर चर्चा फिर कभी, अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व अमीर माविया ने एक मुहिम चलायी और बेटे यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया और अनेक संभ्रात लोगों से बैयत (pledge of allegiance) ले ली, कैसे? कहने की ज़रूरत नहीं।
अमीर माविया के बाद यज़ीद जब ख़लीफ़ा बना तो अरब समाज में एक बेचैनी थी क्योंकि उसका रवैया, चाल-चलन सब ज़ाहिर था। यज़ीद के बाद उसका बेटा माविया द्वितीय गद्दी पर बैठा लेकिन उसने अपने बाप से बरा’अत का इज़हार किया कि वह उस तख़्त पर नहीं बैठ सकता जिसके पाये हुसैन के ख़ून से रंगे हों।
उम्मायाई कबीलों के लिये नेतृत्व का संकट पैदा हो गया, जाबिया की मीटिंग में 22 जून 684 को एक प्रस्ताव पास हुआ कि मरवान बिन हकम को यज़ीद के अन्य अवस्यक पुत्र ख़ालिद का संरक्षक बना कर हुकूमत की बागडोर दे दी जाये, उसके बाद ख़लीफ़ा के पद पर ख़ालिद और इसके बाद अमर बिन सईद इबनल आस (अल अशदक़) के ख़लीफ़ा नियुक्त किये जाने की सहमति बनी।
मरवान बिन हकम को उसके पिता सहित पैग़म्बर ने देश निकाला दिया था और हज़रत उस्मान (र) ने अपनी ख़िलाफ़त काल में पिता-पुत्र को मदीना बुला कर मरवान को उच्च पद पर नियुक्त कर दिया था। मरवान ने ख़ालिद की माँ और यज़ीद की विधवा उम्मे हाशिम फ़ाख़िता को अपने निकाह में ले लिया।
मरवान के साथ सीरियाई फ़ैक्शन दिल से नहीं था इसलिए यमनी क़बिलाई अशराफ़ की तरफ़ उसका झुकाव नगुज़ीर था। मरवान के ख़लीफ़ा बन जाने से ख़िलाफ़त सूफ़ियानियीं के हाथ से हमेशा के लिये चली गयी। मरवान के बाद ख़िलाफ़त यज़ीद के बेटे को नहीं मिली बल्कि अब मरवान की नस्ल में मुंतक़िल हो गयी जो 750 AD तक रही।
उसके बाद अब्बासियीं की ख़िलाफ़त शुरू हुई जो उन्होंने एक क्रांति के ज़रिये हासिल की और उस क्रांति का नारा था ख़ून ए हुसैन का बदला। बाद के चिंतकों ने शुरुआती दौर की ख़िलाफ़त (इमाम हसन (स) से संधि तक) को अलग करना ज़रूरी समझा और इसका नाम दिया ‘ख़िलाफ़त ए राशिदा।’
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मदीना पर आक्रमण
उस दौर की सियासत के खेल पर मुस्लिम समाज अक्सर चुप्पी साध लेता है और कभी-कभी एक मुहावरा इस्तेमाल करता है- इजतिहादी ग़लती और किसी भी आलोचनात्मक टिप्पणी को उचित नहीं मानता। इस तबक़े के साथ दिक़्क़त यह है कि करबला की घटना का इनकार मुश्किल है क्योंकि इससे संबंधित इतना मटेरीयल है कि इनकार मुमकीन ही नहीं है।
यहाँ तक अंग्रेज इतिहासकार आईकेए हावर्ड का करबला की घटना पर अरबी रिसोर्सेज़ के हवाले से शोध मौजूद है। यज़ीद की ख़िलाफ़त के सिलसिले से मुस्लिम समाज का एक तबक़ा बहुत डिफ़ेन्सिव रहता है उसकी कोशिश रहती है कि इसके करबला के महत्त्व को कमतर कर दिया जाये, कभी अज़ादारी की रस्मों, तो कभी इसे इस्लाम के नियमों की आड़ में यज़ीद के कृत्यों को छुपाना उद्देश्य होता है।
ज़ाकिर नाईक तो यहाँ तक कहते है कि रसूल की हदीस है कि जो भी व्यक्ति कस्तुनतूनीया पर पहले हमले का सेनापति होगा वह जन्नत में जाएगा, और यज़ीद वह पहला व्यक्ति है। यज़ीद के बचाव में क्या क्या ना हुआ!! हम आगे बढ़ते हैं, हर्रा का शाब्दिक अर्थ पथरीली ज़मीन है चूँकि मदीने का एक हिस्सा ज्वालामुखी के पत्थरों से ढका हुआ है इस लिये हर्रा कहलाता है।
इसी रास्ते से यज़ीद की फ़ौज ने मदीना पर आक्रमण किया था इस लिये इस युद्ध को ‘हर्रा का युद्ध’ कहा जाता है। करबला में हुसैन और उनके परिवार व साथियों के क़त्ल किये जाने, उनके परिवार को बंदी बनाये जाने से मदीना सहित पूरे मुस्लिम जगत में एक बेचैनी और ग़म व ग़ुस्से की लहर दौड़ गयी थी।
यज़ीद ने मामले की नज़ाकत को समझा और मदीने से अपने गवर्नर से कहा कि वह कुछ संभ्रात लोगों को राजधानी दमिश्क़ भेजे। करबला की घटना के दो साल बाद मदीना के गवर्नर उस्मान बिन मुहंमद ने अब्दुल्ला बिन हंजला के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल गया, जब वह लौट कर मदीना आया तो उसने मदीना में सिर्फ़ इतना कहा कि बस आसमान से पत्थर की बारिश होना बाक़ी है।
मदीने के लोगों ने यज़ीद की बैयत तोड़ दी और अब्दुल्ला बिन हंजला को अपना नेता बना लिया। इधर यज़ीद ने मदीना वासियों को सबक़ सिखाने के लिए मुस्लिम बिन अक़बा के नेतृत्व में एक फ़ौज भेजी और मुस्लिम को यह ताकीद की गयी कि वह केवल तीन दिन तक इंतिज़ार करे अगर मदीने के लोग अधीनता ना स्वीकार करें तो युद्ध करा जाए और सफलता की हालत में तीन दिन तक सेना को खुली छूट दी जाए। क्योंकि हुसैन के क़त्ल से आमजन दुखी था इसलिए उनके पुत्र और परिवार के साथ दुर्व्यवहार को मना कर दिया था।
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रुंह कांपने वाली बर्बरता
जंग में मदीनावासियों को शिकस्त हुई और उसके बाद जो हुआ वह सोचकर रूह काँप जाती है। तीन दिन तक पैग़म्बर के शहर में क़त्ल ओ ग़ारत मची, इबने असीर लिखता है कि शाम के लश्कर ने तीन दिन तक जो चाहा वह किया। मसूद, तबरी और इबने असीर सहित अनेक इतिहासकारों ने हर्रा को विस्तार से लिखा है कि हज़ारों के साथ बलात्कार हुआ जिससे हज़ारों बिन बाप के बच्चे पैदा हुए, मस्जिद ए नबवी में घोड़े बांध दिये गये।
सयूती ने कंज़ुल आमाल में लिखा है कि हसन बसरी ने घटना को याद करते हुए कहा कि: ख़ुदा की क़सम इस घटना में किसी को भी निजात नहीं मिली। ज़्यादातर साहाबा और दूसरे मुसलमान मारे गये, मदीना को लूटा गया और एक हज़ार कुँवारी कन्याओं के साथ ज़िना किया गया!, यह जब हुआ कि जबकि पैग़म्बर ने फ़रमाया था “जिसने मदीनावासियों को परेशान किया उस पर ख़ुद, मलायका और तमाम इंसानों की लानत है।”
अंत में मदीना के लोगों से ग़ुलामों के तौर पर बैयत ली और उनसे उनके जान ओ माल और औलाद पर यज़ीद के हक़ ए तसर्रूफ का प्रण लिया और जिसने मना किया उसको क़त्ल किया गया। मदीना से क़ुरैश के एक लीडर अब्दुल्ला इबने मूती ने अपने साथियों सहित मक्का में पनाह ली, जहां इबने ज़ुबैर की हुकूमत थी। मदीना में अपना डेप्युटी नियुक्त करने के बाद मुस्लिम बिन अक़बा ने इनका पीछे किया और रास्ते में अल मूशलल्ल नामक जगह पर में बीमार हो कर मर गया।
काफ़ी अरसा तक लोग उसकी कब्र पर पत्थर फेंकते रहे। उसके बाद कमान हुसैन (हसीन) इबने नुमायर के हाथ लगी और उसने काबा पर हमला कर दिया। इधर यज़ीद के मरने की सूचना मिली तो यह सेना शाम वापस चली गयी। हर्रा की घटना यह साबित करती है कि ख़िलाफ़त का यह रूप किसी भी तरह मानवीय या इस्लामिक नहीं था कि इसको डिफ़ेंड किया जाये जैसा कि कुछ लोग करते हैं।
केवल यह कि यज़ीद की ख़िलाफ़त को साहाबा के एक वर्ग ने स्वीकार कर लिया था या अमीर ए शाम ने उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था तो यज़ीद की ख़िलाफ़त सही थी, यह सोच किसी भी तरह क़ाबिल ए क़ुबूल नहीं है। मेरा विचार है कि समस्त ऐतिहासिक घटनाओं का ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तरीक़े से अध्ययन ज़रूरी है जिसका अक्सर मुसलमानों में अभाव है।
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लेखक स्वतंत्र टिपण्णीकार हैं।