उर्दू साहित्य के मशहूर तख़लीककार और अदीब शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी (Shamsur Rahman Faruqi) को कुछ लोग ‘कई चांद थे सर-ए-आसमां’ के लिए जानते जबकि कुछ तो उनकी पत्रिका ‘शब खून’ के लिए। पर महज उनका साहित्यिक सफर यहीं तक सिमित नही था। अलबत्ता इसी दायरे में उनकी चर्चा करने से उनके अदबी कारगुजारी के साथ नाइन्साफी हो सकती हैं।
फ़ारूक़ी को दास्तानगोई को जिन्दा करने और उनके बहूमूल्य शोधकार्य करने के लिए तथा दुर्लभ रचनाएं संकलित करने के लिए भी पहचाना जाना चाहीए। ‘अमीर हम्ज़ा’ और ‘मीर तकी मीर’ की दास्तान संजोने के लिए याद किया जाना जरूरी हैं। अमीर हम्ज़ा पर उनके पास लगभग पूरे के पूर यानी 46 खण्ड हैं। जो 45 हज़ार पेजों बहुमूल्य जखिरा हैं, जो 1917 में कानपूर के नवल किशोर प्रेस से छपी थीं। जो अब मौजूद नही हैं।
जो उतरा फिर न उभरा कह रहा है
ये पानी मुद्दतों से बह रहा है
मिरे अंदर हवस के पत्थरों को
कोई दीवाना कब से सह रहा है
तकल्लुफ़ के कई पर्दे थे फिर भी
मिरा तेरा सुख़न बे-तह रहा है
उन्होंने इसके बारे में एक बार बताया था, “मुझे लगता है कि मैं पूरे 46 संस्करणों का मालिक होने वाला दुनिया का एकमात्र व्यक्ति हूं। एक सेट कोलंबिया में मौजूद है, और शिकागो में वॉल्यूम के माइक्रोफिल्म मौजूद हैं।” इसके अलावा उनके पास मीर तकी मीर का चार-खंडों वाला एक ग्रंथ शामिल है। दोनो ग्रंथ अब भी बहुत दुर्लभ हैं।
अपनी करीबन 10 हजार कीताबों वाली लाइब्रेरी कि उन्हें चिंता थी। इस बारे में एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था, “पर मेरी दोनों बेटियाँ मुझे विश्वास दिलाती हैं कि मैं लाइब्रेरी जाने के बाद उनकी देखभाल करेंगी। दोनों अध्ययनशील प्रकार के प्रोफेसर हैं।”
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बचपन रहा पढ़ने का शौक
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का जन्म 30 सितम्बर, 1935 को काला काँकर हाउस, प्रतापगढ़ में अपने ननिहाल में पैदा हुए। लेकिन उनके वालिद आज़मगढ़ ज़िले के रहने वाले थे और उनकी परवरिश और शुरुआती शिक्षा आज़मगढ़ में हुयी।
बचपन से उन्हें पढ़ने का शौक था, लिहाजा अपने इसी शौक के चलते उन्होंने एक किताब बाइडिंग करने वाले से दोस्ती कर ली थी। दुकान पर आने वाली हर किताब पढ़ते थे, वह चाहे किसी भी विषय की हो।
‘जदीदियत : कल और आज और दूसरे मज़ामीन’ इस किताब में उन्होंने अपने बारे में एक लेख में विस्तार से लिखा हैं, सात साल के उम्र में उनके साहित्यिक जीवन का आग़ाज़ हुआ जब उन्होंने एक शेर का पहला मिसरा कहा था। जबकि नौ साल की उम्र में एक अदबी रिसाला निकाला, जिसका नाम ‘गुलिस्तां’ था निकालने लगे थे।
किसी के ऐतमाद जान ओ दिल का
महल दर्जा-ब-दर्जा डह रहा है
घरौंदे पर बदने के फूलना क्या
किराए पर तू इस में रह रहा है
कभी चुप तो कभी महव-ए-फ़ुगाँ दिल
ग़रज़ इक गू-मगू में ये हो रहा है
उनके पिता का गोरखपूर में तबादला हुआ, लिहाजा उनके आगे कि पढ़ाई यही से हुई। उनके पढ़ाई के जुनून के बारे में कहा जाता हैं, “वह पढ़ने के इस क़द्र दीवाने थे कि स्कूल जाते आते वक़्त भी वह किताबें पढ़ते रहते थे और उनके भाई या कोई दोस्त उनके आगे-आगे चलता था कि पढ़ने में मगन फ़ारूक़ी साहब किसी चीज़ से टकरा न जाएं।”
जब कॉलेज में थे तो उन्होंने एक नॉवेल लिखा था जिसका नाम था ‘दलदल से बाहर’ था। जो मेरठ से निकलने वाली ‘मयार’ पत्रिका में कई किश्तों में प्रकाशित हुआ था। वे लिखते हैं, उन्होंने छोटी उम्र से ही ट्रांसलेशन का काम करना शुरु किया था।
बहरहाल गोरखपुर से बी. ए. करने के बाद फ़ारूक़ी साहब अँग्रेज़ी में एम. ए. करने के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय हा पहुचें। पढाई मुकम्मल होने के बाद रौजी-रोटी कि तलाश शुरू हुई। उनकी पहली नौकरी एक अध्यापक के रूप मे बलिया के एक कालेज से शुरू हुई।
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डाक विभाग से हुए रिटायर
एक साल बाद आज़मगढ़ के शिबली कालेज में उनका चयन हो गया और वह वहाँ दो साल पढ़ाया। इसी दौरान वह इक्कीस साल के उम्र मे उन्होंने सिविल सेवा की परिक्षा दी और पास हो गए। पहले ही कोशिश में उन्हे सिविल सर्विसेज़ में कामयाबी मिली थी। उन्होंने पोस्टल सर्विसेज़ चुना क्योंकि उन्हें लगा डाक महकमे में उन्हें लिखने पढ़ने के लिए ज़्यादा वक़्त मिल सकेगा।
भारतीय डाक सेवा में 1960 से लेकर 1994 तक एक मुख्य पोस्टमास्टर-जनरल और पोस्टल सर्विसेज बोर्ड, नई दिल्ली के सदस्य के रूप में काम किया। तीन दशक के नौकरी के बाद वे रिटायर हुए और लिखने के लिए अपना पुरी तरह से समय दिया।
सर्द मैदानों पे शबनम सख़्त
सुकड़ी शा-राहों मुंजमिद गलियों पे
जाला नींद का
मसरूफ़ लोगों बे-इरादा घूमते आवारा
का हुजूम बे-दिमाग़ अब थम गया है
रंडियों ज़नख़ों उचक्कों जेब कतरों लूतियों
की फ़ौज इस्तिमाल कर्दा जिस्म के मानिंद ढीली
पड़ गई है
1960 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान वे नियमित रूप से लिखने लगे थे। शुरुआत से ही उन्हें लिखने में दिलचस्पी थी जिस वजह से वह लिखते चले गए। नौकरी के साथ साथ लिखना भी जारी रहा। दिन में नौकरी के बाद रात को साहित्य के लिए समय देते।
साठ साल के इस लेखन सफऱ उन्होंने कई किताबे लिखी और महत्त्वपूर्ण शोधकार्य किए। उनकी रचनाओं में ‘शेर, ग़ैर शेर, और नस्र’, ‘गंजे-सोख़्ता’ (कविता संग्रह), ‘सवार और दूसरे अफ़साने’ (फ़िक्शन), ‘जदीदियत कल और आज और दूसरे मज़ामीन’, ‘गालिब अफसाने की हिमायत में’, ‘द सेक्रेट मिरर’ जैसी कुल 13 किताबे शामिल है।
उन्होंने उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर मीर तक़ी ‘मीर’ के कलाम पर आलोचना लिखी जो ‘शेर-शोर-अंगेज़’ के नाम से तीन भागों में प्रकाशित हुई। उर्दू के शुरुआती इतिहास पर उनकी किताब ‘उर्दू का इब्तेदाई ज़माना’ (उर्दू का शुरुआती दौर) इस विषय पर सबसे महत्त्वपूर्ण किताब है जिसे उन्होंने अपने शोध और दलीलों से उर्दू के उद्भव और विकास से जुड़े कई नये दावे किये हैं।
सनसनाती रौशनी हवाओं की फिसलती
गोद में चुप
ऊँघती है फ़र्श और दीवार ओ दर
फ़ुटपाथ
खम्बे
धुंदली मेहराबें
दुकानों के सियह वीरान-ज़ीने
सब के नंगे जिस्म में शब
नम हवा की सूइयाँ बे-ख़ौफ़
उतरती कूदती धूमें मचाती हैं
कुछ शिकस्ता तख़्तों के पीछे कई
मासूम जानें हैं
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हर विधा में लिखा
साहित्य और भाषा की लगभग हर मुख्य विधा में न सिर्फ लिखा है, बल्कि उन्होंने लाजवाब काम किया हैं, जिसको अकादमिक मूल्य प्राप्त हैं। फ़ारूक़ी साहब की साठ साला लेखकीय ज़िन्दगी के कई पहलू हैं। जिसपर विस्तृत चर्चा हो सकती हैं।
उनके लिखावटी कामों की कितनी भी बात कर लें, वही कमी ही हैं। उसी तरह ये बात तब ही मुकम्मल होगी जब ‘कई चाँद थे सरे आसमां’कि चर्चा न हो। ये बहुचर्चित उपन्यास उर्दू के साथ हिंदी और अंगेरजी में भी छपा हैं। जिसके बाद उनकी पहचान गैरउर्दू पाठको को हुई।
ये उपन्यास कम से कम तीन सदियों को अपने आप में समाए हुए हैं। 750 पन्नो में पेंटिंग, साहित्य, संस्कृति और सामाजिक जीवन के हर बारिकियों को बखुबी ढंग से पिरोया गया हैं। कहानी के केंद्र में वैसे तो शायर दाग़ की मां वज़ीर ख़ानम हैं लेकिन इसका कैनवास बहुत बड़ा हैं। कई आलोचक तथा समीक्षक इस उपन्यास का कालजयी मानते हैं।
जिसमें उन्होंने इस उपन्यास में इतिहास को इस तरह दर्ज किया है, वह अपने ढंग से अनूठा और नायाब है। एकबारगी यू कहो तो, इसमें उन्होंने भारतीय समाज के ऐतिहासिक चरित्र को अलफाजों मे ढाला हैं। इतिहासकार राणा सफ़वी इस उपन्यास के बारे में कहती हैं,
“…उस वक्त की शायरी, लोगों का रहन-सहन, खान-पान, कला, सवारी, आम ज़िन्दगी से लेकर शाही ज़िन्दगी तक के ब्योरों से भरपूर यह उपन्यास आपको टाइम मशीन की तरह उस दौर में ले जाता है।”
सर्द मैदानों पे शबनम सख़्त
सुकड़ी शा-राहों मुंजमिद गलियों पे
जाला नींद का
मसरूफ़ लोगों बे-इरादा घूमते आवारा
का हुजूम बे-दिमाग़ अब थम गया है
रंडियों ज़नख़ों उचक्कों जेब कतरों लूतियों
की फ़ौज इस्तिमाल कर्दा जिस्म के मानिंद ढीली
पड़ गई है
इस किताब में बीती सदियों में लोगों का सामाजिक जीवन कैसा था, वे कैसे घरों में रहते थे, किस तरह कपड़े पहनते थे, किस तरह रोशनी का इंतजाम करते थे, जब पेंटिंग करना चाहते थे, तो रंग कहां से लाते थे, कूची कैसे बनाते थे, रंगों को अलग-अलग रंगतें कैसे देते थे।
भारतीय साहित्य की दुनिया में ऐसे बड़ी कहानी वाला उपन्यास बेहद कम ही हैं। इस किताब का इंग्लिश संस्करण 2013 में ‘मिरर ऑफ ब्यूटी’ नाम से प्रकाशित किया गया हैं।
इनका एक और महत्त्वपूर्ण काम कि चर्चा करना लाजमी हैं। वह हैं, दास्तानगोई कि कला को फिर से उठाकर खड़ा करना। उन्होंने 16वीं सदी में विकसित हुई उर्दू ‘दास्तानगोई’ यानी उर्दू में कहानी सुनाने की कला को एक बार फिर से जीवित किया।
इसके लिए उन्होंने अपने भतीजे महमूद फ़ारूक़ी को तैयार किया। वह उन दिनों ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी से फ़ुल ब्राइट स्कालर के तौर पर इतिहास में एम। फिल। करके लौटे थे। आज उनकी दास्तानगोई की महफिली पेशकशों के लिए तारिखे नही मिलती।
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व्यक्तित्व के कई आयाम
फारूक़ी साहब सिर्फ़ साहित्यकार भर नहीं थे। बल्कि अपने आप मे एक यूनिव्हर्सिटी को समाए हुए थे।वे एक मुकम्मल अफसाना, इतिहास, परंपरा, संस्कृति और अदब थे। एक संपादक थे, लेखक-आलोचक-अनुवाद और न जाने क्या क्या थे, वे एक रवायती तहरीक के हमसफर थे।
उनके व्यक्तित्व के बारे में राणा सफ़वी बताती है, “वे एक स्कॉलर के तौर पर इल्म बाँटने के मामले में बहुत दरियादिल थे, अपना भरपूर स्नेह और समय देते थे। वे हर किसी से पूरी गर्मजोशी और सच्चे लगाव के साथ मिलते थे।”
1966 में उन्होंने ‘शब ख़ून’ पत्रिका निकालनी शुरू की। ‘शब ख़ून’ उनके व्यक्तित्व के कई आयाम थे। लेखकों कि हर रचना वे बारिकी से पढ़ते और उन्हें छपवाते। जरूरत पड़ी तो दुरुस्तियां करते या फिर सिधे वापिस कर देते। उनका संपादकीय दृष्टिकोन बहुत सटिक था।
ख़्वाब कम-ख़्वाबी में लर्ज़ां
बाल ओ पर में सर्द-निश्तर
बाँस की हल्की एकहरी बे-हिफ़ाज़त
टोकरी में
दर्जनों मजबूर ताइर
ज़ेर-ए-पर मिंक़ार मुँह ढाँपें ख़मोशी के समुंदर-ए-बे-निशाँ में
ग़र्क़ बाज़ू-बस्ता चुप
मख़्लूक ख़ुदा जो गोल काली गहरी आँखों के
न जाने कोन से मंज़र में गुम है
अपनी पैनी नजर और रचनात्मकता कि वजह से बहुत जल्द ‘शब ख़ून’ पत्रिका तमाम प्रयोगवादी और आधुनिक विचारों का केंद्र बन गयी। लगभग 40 साल यह पत्रिका चलती रही। 2006 में उन्हौंने इस ऐतिहासिक पत्रिका को यह सोच कर बंद कर दिया कि अब शायद ज़िन्दगी ज़्यादा नहीं बची है, इसलिए कुछ ज़रूरी काम कर लिए जाएं।
सेमीनार वग़ैरा में बहुत कम जाते थे, वह समझते थे कि मेरा वक़्त बहुत क़ीमती है, इन सब जगहों पर जाकर अपना समय बरबाद करना मुनासिब नहीं है। पर हां, जब उन्हें लगता की, यहां जाना चाहिए वह चले जाते थे। वैसे भी अगर वे हर सेमिनारों मे शामिल होते, तो इतना काम नहीं कर पाते।
फ़ारूक़ी को उर्दू साहित्य में दिए गए योगदान के लिए कई सम्मान से नवाजा गया है। साल 1986 में समालोचना ‘तनक़ीदी अफकार’ लिखने के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
इसके बाद साल 1996 में उन्हें अठारहवीं शताब्दी के प्रमुख कवि मीर तकी मीर पर किए गए अध्ययन के लिए सरस्वती सम्मान से नवाजा गया। वहीं भारत सरकार ने 2009 में उन्हें पद्मश्री से नवाजा।
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी बीते हफ्ते दुनिया को हमेशा को लिए अलविदा कह गए। 25 दिसम्बर की सुबह करीब 11 बजे फारूकी ने 85 बरस की उम्र में आखिरी सांस ली।
उनके निधन पर साहित्य अकादमी द्वारा जारी किए गये शोक संदेश मे कहा गया हैं, की “उन्होंने 19वीं सदी के उर्दू अदब और पंरपरा को ठीक से समझने के लिए पहले आलोचना विधा में अपनी पैठ बनाई और फिर कहानीकार बने। उनको उर्दू आलोचना का शिखर पुरुष माना जाता हैं। उन्होंने साहित्यिक समीक्षा के नए मॉडल तैयार किए हैं।”
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