क़ुरआन अल्लाह की तरफ से उतारी गई एक दावती किताब है। अल्लाह तआला ने अपने एक बन्दे को सातवीं सदी ईसवीं की पहली तिहाई में एक ख़ास कौम के अंदर अपना नुमाइंदा बनाकर खड़ा किया और उसे अपने पैग़ाम की पैग़ाम्बरी (संदेशवाहन) पर मामूर (नियुक्त) किया।
इस पैग़म्बर ने अपने माहौल में यह काम शुरू किया और इसी के साथ क़ुरआन का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा ज़रूरत के मुताबिक़ उसके ऊपर उतरता रहा। यहाँ तक कि 23 सालों में पैग़म्बर के दावती काम की तकमील (पूर्णता) के साथ क़ुरआन की भी तकमील हो गई।
क़ुरआन किस लिए उतारा गया है। एक लफ़्ज़ में इसका जवाब यह है कि इन्सान के बारे में ख़ुदा की स्कीम (Creation Plan of God) को बताने के लिए। इन्सान को खुदा ने अबदी मख्लूक़ (चिरस्थाई रचना) की हैसियत से पैदा किया है। मौजूदा सीमित दुनिया में पचास साल या सौ साल गुजार कर उसे आख़िरत की दुनिया में दाखिल कर दिया जाता है जहाँ उसे मुस्तकिल (स्थाई) तौर पर रहना है।
मौजूदा दुनिया अमल करने की जगह है और आख़िरत की दुनिया इसका अंजाम पाने की जगह। आज की जिन्दगी में आदमी जैसा अमल करेगा उसी के मुताबिक़ वह अपनी अगली ज़िंदगी में अच्छा या बुरा बदला पाएगा। कोई अपनी नेक किरदारी के नतीजे में अबदी तौर पर जन्नत में जाएगा और कोई अपनी बदकिरदारी की वजह से अबदी तौर पर जहन्नम में।
क़ुरआन इसलिए उतारा गया कि इस संगीन मसले से आदमी को बाख़बर करे और उसे बताए कि अगली जिन्दगी में बुरे अंजाम से बचने के लिए उसे अपनी मौजूदा जिन्दगी में क्या करना चाहिए।
खुदा ने इन्सान को फ़हम और शुऊर के एतबार से उसी सही फितरत पर पैदा किया है जो उसे इन्सानों से मत्लूब (अपेक्षित) है। फिर उसने गिर्द व पेश की पूरी कायनात को मत्लूबा दुरुस्त किरदार का अमली मुज़ाहिरा (प्रदर्शन) बना दिया है। ताहम यह सब कुछ ख़ामोश ज़बान में है। इंसानी फ़ितरत एहसासात की सूरत में अपना काम करती है और फ़ितरत के मज़ाहिर (रूप) तमसील (उदाहरण) की सूरत में।
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क़ुरआन इसलिए आया कि फ़ितरत और कायनात में जो कुछ ख़ामोश ज़बान में मौजूद है, वह शब्दों की जबान में इसका एलान कर दे। ताकि किसी के लिए इसका समझना मुश्किल न रहे। फ़ितरत और कायनात अगर आदमी की ख़ामोश रहनुमा हैं तो क़ुरआन एक शाब्दिक रहनुमा।
साथ ही यह कि क़ुरआन एक ऐसे पैग़म्बर पर उतारा गया जो ग़लबे (वर्चस्व) का पैग़म्बर था। पिछले नबी सिर्फ दाओ (आह्वानकर्ता) की हैसियत से भेजे गए। उनका काम उस वक़्त ख़त्म हो जाता था जब कि वे अपनी मुखातब क़ौम को खुदा की मर्जी से पूरी तरह आगाह कर दें। उन्होंने अपनी मुखातब क़ौमों की ज़बान में कलाम किया। मगर इन्सान ने अपनी आज़ादी का ग़लत इस्तेमाल करते हुए उनकी बात नहीं मानी।
इस तरह पिछले ज़मानों में खुदा की मर्जी इन्सान की ज़िन्दगी में अमली सूरत इख्तियार नहीं कर सकी। आख़िरी पैग़म्बर मुहंमद (स) को ख़ुदा ने ग़लबे की निस्बत दी। यानी आपके लिए फ़ैसला कर दिया कि आपका मिशन सिर्फ पैग़ाम पहुँचा देने पर ख़त्म नहीं होगा। बल्कि खुदा की ख़ास मदद से इसे अमली वाक़िया बनने तक पहुँचाया जाएगा।
इस खुदाई फैसले का नतीजा यह हुआ कि खुदा के दीन के हक़ में हमेशा के लिए एक अतिरिक्त सहायक बुनियाद फ़राहम हो गई। यानी उपरोक्त वर्णित एहतिमाम के अलावा इन्सान की हक़ीक़ी जिन्दगी में खुदा की मर्जी का एक कामिल अमली नमूना।
पिछले ज़माने में ख़ुदा के जितने पैग़म्बर आए वे सब उसी दावत को लेकर आए जिसे लेकर मुहंमद (स) को भेजा गया था। मगर पिछले पैग़म्बरों के साथ आमतौर पर ऐसा हुआ कि लोगों ने उनके पैग़ाम को नहीं माना।
इसकी वजह यह थी कि वे इसे अपनी दुनियावी मस्लेहतों के ख़िलाफ़ समझते थे। उन्हें ग़लत तौर पर यह अंदेशा था कि अगर उन्होंने खुदा के सच्चे दीन को पकड़ा तो उनकी बनी बनाई दुनिया तबाह हो जाएगी। क़ुरआन की तारीख़ (इतिहास) इस अंदेशे की अमली तरदीद (खंडन) है।
क़ुरआन के ज़रिए जो तहरीक चलाई गई उसे खुदा ने अपनी ख़ास मदद के ज़रिए दावत (आह्वान) से शुरू करके वाक़िया बनने के मरहले तक पहुँचाया। और इसके अमली नतीजों को दिखा दिया। इस तरह खुदा के दीन की एक मुस्तक़िल तारीख वजूद में आ गई। अब क़ियामत तक लोग हक़ीक़ी तारीख़ (इतिहास) की ज़बान में देख सकते हैं कि खुदा के सच्चे दीन को अपनाने के नतीजे में किस तरह जमीन और आसमान की तमाम बरकतें नाज़िल होती।
फिर इसी के जरिए क़ुरआन की मुस्तकिल हिफ़ाज़त का इंतजाम भी कर दिया गया। एक बड़े भू-क्षेत्र में अहले इस्लाम का इक्तेदार (शासन) और वहाँ इस्लामी सभ्यता और संस्कृति की स्थापना इस बात की जमानत बन गया कि क़ुरआन को ऐसा हिफाजती माहौल मिल जाए जहाँ कोई उसमें किसी किस्म की तब्दीली में सक्षम न हो सके। यह एक तारीख़ी हक़ीक़त है कि मुसलमानों का ग़लबा (वर्चस्व) डेढ़ हज़ार साल से क़ुरआन का चौकीदार बना हुआ है।
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हक़ीक़त यह है कि क़ुरआन खुदाई नेमतों का अबदी ख़ज़ाना है। क़ुरआन खुदा का परिचय है। क़ुरआन बंदे और खुदा का मिलन-स्थल है। मगर उपरोक्त किस्म के काल्पनिक विचारों ने क़ुरआन को लोगों के लिए एक ऐसी किताब बना दिया जो या तो एक चटयल ज़मीन है जहाँ आदमी की रूह के लिए कोई ग़िज़ा नहीं या वह किसी शायर के मजमूआए कलाम की तरह एक ऐसा लफ़्जी मज्मूआ है।
जिससे हर आदमी बस अपने ख़ास जेहन की तस्दीक़ (पुष्टि) हासिल कर ले। वह असलन खुद अपने आपको पाए और यह समझ कर खुश हो कि उसने खुदा को पा लिया है।
क़ुरआन एक फ़िक्री (वैचारिक) किताब है और फ़िक्री किताब में हमेशा एक से ज़्यादा ताबीर की गुंजाइश रहती है। इसलिए क़ुरआन को सही तौर पर समझने के लिए जरूरी है कि पढ़ने वाले का ज़ेहन ख़ाली हो। अगर पढ़ने वाले का जेहन ख़ाली न हो तो वह क़ुरआन में खुद अपनी बात पढ़ेगा।
इसे समझने के लिए क़ुरआन की एक आयत की मिसाल लीजिए : “कुछ लोग ऐसे हैं जो अल्लाह के सिवा दूसरों को उसका समकक्ष बनाते हैं और उनसे ऐसी मुहब्बत करते हैं जैसी मुहब्बत अल्लाह के साथ होनी चाहिए। हालाँकि ईमान रखने वाले सबसे ज़्यादा अल्लाह से मुहब्बत करते हैं।” (सूरह बक़रह : 165)
एक शख्स जो सियासी ज़ौक़ रखता हो और सियासी उखेड़-पछाड़ को काम समझता हो, वह जब इस आयत को पढ़ेगा तो उसका ज़ेहन पूरी आयत में बस ‘अंदाद’ (समकक्ष) पर रुक जाएगा। वह क़ुरआन से ‘समकक्ष’ का लफ़्ज़ ले लेगा और बाक़ी मफ़हूम (भावार्थ) को अपने ज़ेहन से जोड़ कर कहेगा कि इससे आशय सियासी समकक्ष ठहराना है।
इस आयत में कहा गया है कि आदमी के लिए जाइज़ नहीं कि वह किसी को खुदा का सियासी समकक्ष बनाए। इस तशरीह के मुताबिक़ यह आयत उसके लिए इस बात का इजाजतनामा बन जाएगी कि जिसे वह खुदा का सियासी ‘समकक्ष’ बना हुआ देखे उससे टकराव शुरू कर दे।
इसके विपरीत जो आदमी सादा जेहन के साथ इसे पढ़ेगा वह ‘समकक्ष’ के लफ़्ज़ पर नहीं रुकेगा, बल्कि पूरी आयत की रोशनी में इसका मफ़हूम (भावार्थ) सुनिश्चित करेगा।
ऐसे शख्स को यह समझने में देर नहीं लगेगी कि यहाँ समकक्ष ठहराने की जिस स्थिति का ज़िक्र है वह ब-एतबार मुहब्बत है न कि ब-एतबार सियासत। यानी आयत यह कह रही है कि आदमी को सबसे ज़्यादा मुहब्बत सिर्फ खुदा से करना चाहिए। ‘हुब्बे शदीद’ (सबसे ज़्यादा मुहब्बत) के मामले में किसी दूसरे को खुदा का हमसर नहीं बनाना चाहिए।
क़ुरआन का एक सामान्य मफ़हूम है और इसे समझने की शर्त यह है कि आदमी खाली जेहन होकर क़ुरआन को पढ़े।
मगर जो शख्स क़ुरआन के गहरे मअना तक पहुंचना चाहे उसे एक और शर्त पूरी करनी पड़ती है। और वह यह कि वह उस राह का मुसाफ़िर बने जिसका मुसाफ़िर उसे क़ुरआन बनाना चाहता है। क़ुरआन आदमी की अमली (व्यावहारिक) जिन्दगी की रहनुमा किताब है और किसी अमली किताब को उसकी गहराइयों के साथ समझना उसी वक़्त मुमकिन होता है जबकि आदमी अमलन उन तजुर्बो से गुज़रे जिनकी तरफ़ इस किताब में रहनुमाई की गई है।
यह अमल कोई सियासी या समाजी अमल नहीं है, बल्कि मुकम्मल तौर पर एक नसियाती अमल है। इस अमल में आदमी को खुद अपने नफ़्स के मुक़ाबले में खड़ा होना पड़ता है न कि हक़ीक़त में किसी ख़ारिज (वाय) के मुक़ाबले में। क़ुरआन चाहता है कि आदमी ज़ाहिरी दुनिया की सतह पर न जिए बल्कि रौब (अप्रकट, अदृश्य) की दुनिया की सतह पर जिए।
इस सिलसिले में जिन मरहलों की निशानदेही क़ुरआन में की गई है उन्हें वह हो। शख्स कैसे समझ सकता है जो इन मरहलों से आशना (भिज्ञ) न हुआ क़ुरआन चाहता है कि आदमी सिर्फ़ अल्लाह से डरे और सिर्फ अल्लाह से मुहब्बत करे। अब जिसका दिल अल्लाह की मुहब्बत में न तड़पा हो, जिसके बदन के रोंगटे अल्लाह के ख़ौफ़ से न खड़े हुए हों, वह कैसे जान सकता है कि अल्लाह से डरना क्या है और अल्लाह से मुहब्बत करना क्या है।
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क़ुरआन चाहता है कि आदमी खुदाई मिशन में अपने आपको इस तरह शामिल करे कि वह उसे अपना ज़ाती (निजी) मसला बना ले। अब जिस शख्स ने खुदा के काम को अपना ज़ाती काम न बनाया हो वह क्यों कर जानेगा कि खुदा के साथ अपने को शामिल करने का मतलब क्या है। क़ुरआन यह चाहता है कि आदमी इन्सानों के छेड़े हुए मसाइल में गुम न हो, बल्कि खुदा की तरफ़ से बरसने वाले फ़ैज़ान में अपने आपको गुम करे।
अब जिस शख्स पर ऐसे सुबह-शाम ही न गुज़रे हों जबकि खुदा के फैज़ान में वह नहा उठे, वह कैसे समझ सकता है कि खुदाई फ़ैज़ान में नहाने का मतलब क्या है। क़ुरआन चाहता है कि आदमी जहन्नम से भागे और जन्नत की तरफ़ दौड़े। अब जो शख्स इस तरह जिन्दगी गुज़ारे कि जहन्नम को उसने अपना मसला न बनाया हो और जन्नत उसकी ज़रूरत न बनी हो, उसे क्या मालूम कि जहन्नम से भागना क्या होता है और जन्नत की तरफ़ दौड़ना क्या मअना रखता है।
क़ुरआन चाहता है कि आदमी अल्लाह की अज़्मत और किबरियाई (महानता) के एहसास से सरशार हो। अब जो शख्स अपनी अज़्मत और किबरियाई के मीनार में लज़्ज़त ले रहा हो। उसे उस कैफ़ियत का इदराक (अंतःभान) कहाँ हो सकता है जबकि आदमी खुदा की किबरियाई को इस तरह पाता है कि अपनी तरफ़ उसे इज्ज़ (निर्बलता) के सिवा और कुछ दिखाई नहीं देता।
क़ुरआनी अमल असलन नफ़्स या इन्सान के अंदरूनी वजूद की सतह पर होता है। मगर इन्सान किसी ख़ला (रिक्तता) में जिन्दगी नहीं गुज़ारता बल्कि दूसरे बहुत-से इन्सानों के दर्मियान रहता है। इसलिए क़ुरआनी अमल हक़ीक़त के एतबार से ज़ाती अमल होने के बावजूद, दो पहलुओं से दूसरे इन्सानों से भी संबंधित हो जाता है।
एक इस एतबार से कि आदमी जिस क़ुरआनी रास्ते को खुद अपनाता है उसी रास्ते को अपनाने की दूसरों को भी दावत देता है। इसके नतीजे में एक आदमी और दूसरे आदमी के दर्मियान दाई और मदऊ (संबोधित व्यक्ति) का रिश्ता कायम होता है। यह रिश्ता आदमी को बेशुमार तजुर्बो से गुजारता है। जो विभिन्न सूरतों में आख़िर वक़्त तक जारी रहता है। दूसरे यह कि विभिन्न किस्म के इन्सानों के दर्मियान जिन्दगी गुज़ारते हुए तरह-तरह के ताल्लुकात और मामलात पेश आते हैं।
किसी से लेना होता है और किसी को देना, किसी से इत्तेफ़ाक़ (सहमति) होता है और किसी से इख़्तिलाफ़ (मतभेद), किसी से दूरी होती है और किसी से क़ुरबत। इन अवसरों पर आदमी क्या रवैया अपनाए और किस किस्म की प्रतिक्रिया व्यक्त करे, क़ुरआन इन मामलों में उसकी मुकम्मल रहनुमाई करता है।
अगर आदमी अपनी ख्वाहिश पर चलना चाहे तो क़ुरआन का यह बाब (अध्याय) उस पर बन्द रहेगा और अगर वह अपने को क़ुरआन की मातहती में देदे तो उस पर क़ुरआनी तालीमात के ऐसे भेद खुलेंगे जो किसी और तरह उस पर खुल नहीं सकते।
क़ुरआन आदमी को जो मिशन देता है वह हक़ीक़त में कोई ‘निज़ाम’ (व्यवस्था) क़ायम करने का मिशन नहीं है। बल्कि अपने आपको क़ुरआनी किरदार की सूरत में ढालने का मिशन है, क़ुरआन का अस्ल मुखातब फ़र्द (व्यक्ति) है न कि समाज। इसलिए क़ुरआन का मिशन फ़र्द पर जारी होता है न कि समाज पर।
ताहम अफ़राद की क़ाबिले लिहाज़ तादाद जब अपने आपको क़ुरआन के मुताबिक़ ढालती है तो उसके समाजी नताइज भी लाज़िमन निकलना शुरू होते हैं। ये नताइज हमेशा एक जैसे नहीं होते बल्कि हालात के एतबार से इनकी सूरतें बदलती रहती हैं।
क़ुरआन में विभिन्न नबियों के वाक़ियात इन्हीं समाजी नताइज या समाजी प्रतिक्रिया के विभिन्न नमूने हैं और अगर आदमी ने अपनी आँखें खोल रखी हों तो वह हर सूरतेहाल की बाबत क़ुरआन में रहनुमाई पाता चला जाता है।
क़ुरआन को फ़ितरते इन्सानी (मानवीय प्राकृतिक स्वभाव) की किताब है। क़ुरआन वही शख्स बखूबी तौर पर समझ सकता है जिसके लिए क़ुरआन उसकी फ़ितरत का प्रतिरूप बन जाए।
(वहीदुद्दीन खान अनुदित पवित्र क़ुरआन के परिचय से)
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एक विख्यात इस्लामिक विद्वान और शांति कार्यकर्ता है। इन्होंने कुरआन को सरल और समकालीन अंग्रेजी में अनुवाद किया है। उन्होंने सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव के संरक्षण में डेमिर्गुस पीस इंटरनेशनल अवॉर्ड प्राप्त किया है। वे टीवी फेसबुक और यूट्यूब आदि पर व्याख्यान देते रहते हैं।