क्या इस्लाम सज़ा ए मौत को सहमती प्रदान करता हैं?

दुनियाभर में सज़ा ए मौत को रोक लगाने कि बात बीते कई सालों से जारी हैं। कई देशों ने इस सजा के प्रावधान को अमानवीय करार देते हुए बंद किया हैं। मानवी अधिकारों को नकारती और अमानवीय शिक्षा पुरी तरह सें बंद करनी की चर्चा कई विद्वान करते आये हैं, पर अब तक उसमें सफलता नही मिली। इस्लाम नें इस तरह के अमानवीय शिक्षा को कभी संमती प्रदान नही कि हैं। जिसे और बेहतर वरीष्ठ पत्रकार मेहदी हसन बता रहे हैं।

मानव अधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा के प्रस्ताव पर 1948 में ज़्यादातर मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी वाले देशों ने हस्ताक्षर किये थे। इसमें विचार, अंतरआत्मा और धर्म की स्वतंत्रता से सम्बंधित अनुच्छेद 18 समेत धर्म या विश्वास को बदलने का भी अहम अधिकार शामिल था। उस वक्त के पाकिस्तान के विदेशमंत्री मुहंमद ज़फ़रुल्लाह खान ने लिखा था, विश्वास अंतरात्मा की बात है और अंतरात्मा को मजबूर नहीं किया जा सकता है।

साल 2011 में मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी वाले 14 देशों ने इस्लाम धर्म को हमेशा के त्याग करने को गैरकानूनी करार दिया है, और सऊदी अरब, अफगानिस्तान समेत सूडान ने तो इस्लाम धर्म से फिर जाने वालों के लिए मौत की सज़ा का ऐलान किया हैं।

स्वयंभू इस्लामी गणतंत्र ईरान नें मुस्लिम माँ-बाप की औलाद एक ईसाई पादरी को इस्लाम से फिर जाने की वजह से मौत की सज़ा दी है।

इस लेख को लिखे जाने के वक्त (30 सितंबर 2011) ईरान के ईसाई घरों में चल रहे चर्चों के नेटवर्क के मुखिया यूसुफ (पहले Yousef) नादरखानी, (Youcef Nadarkhani) अपने विश्वास को छोड़कर इस्लाम धर्म स्वीकार करने से इंकार करने के कारण मौत की सज़ा का इंतेज़ार कर रहे हैं। (बाद में 3 अक्तूबर 2011 को इरान कि कोर्ट ने उन्हे निर्दोष पाया जिसके बाद वह रिहा हुए)

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नादरखानी पर फैसले को लागू करने के लिए एक साल पहले ईसाई पादरी नादरखानी के अपने गाँव राश्तकी अदालत के जजों ने सज़ा का एलान किया और फिर देश की सुप्रीम कोर्ट ने भी इस सज़ा की पुष्टि कर दी।

और ये सजा सिर्फ मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा ही नहीं बल्कि ईरान के अपने संविधान के खिलाफ है। अनुच्छेद 23 स्पष्ट रूप से कहता है कि व्यक्तियों के विश्वासों की जांच निषेध है और किसी को एक विशेष विश्वास पर बने रहने के लिए पीटा नहीं जा सकता है।

कैण्टरबरी के आर्कबिशप, ब्रिटेन के विदेश मंत्री, एमनेस्टी इंटरनेशनल और अन्य लोगों ने क्षमादान की अपील तेहरान तक पहुँचाई है। इस बीच दुनिया भर के मुसलमानों खास तौर से ब्रिटेन में आवाज़ उठाने वाले संगठन और मुसलमानों के तथाकथित नेताओं की खामोशी शर्मनाक रही है।

विडम्बना ये है कि मुझे अभी तक एक ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो इस बात पर सहमत हो कि कोई मुसलमान अगर अपने विश्वास से फिर जाता है तो उसे सज़ाए मौत दी जानी चाहिए। इस बर्बरता के खिलाफ कुछ मुसलमान आवाज़ उठाना चाहते हैं। इसे बड़बड़ाहट समझते हुए, हम माफ करते हैं और अपनी नजरों को दूसरी जानिब फेर लेते हैं।

मुसलमानों के बीच एक गुमराह करने वाली धारणा है कि इस तरह की सज़ा अल्लाह की ओर से है। जबकि ऐसा नहीं है। शास्त्रीय मुस्लिम न्यायविदों ने धर्म से फिरने को गलत तरीके से देशद्रोह के रूप में पेश किया। इतिहास गवाह है कि पैगम्बर मुहंमद (स) (Prophet Muhammad) ने किसी को सिर्फ स्वधर्म त्याग पर सज़ा नहीं दी।

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मिसाल के तौर पर जब एक बेदूईन (Bedouin) ने इस्लाम से इंकार कर दिया, और मदीना शहर छोड़ दिया, इस पर पैगम्बर मुहंमद (स) ने कोई कार्यवाही नहीं कि सिर्फ ये फरमाया, “मदीना खाल के उस जोड़े की तरह है जो गंदगी को बाहर और अच्छाई और चमक को और भी बेहतर करता है।और न तो क़ुरआन से फिर जाने वाले के लिए सज़ा की बात करता है।

इस्लाम धर्म की पवित्र किताब में धर्म कि स्वतंत्रता की गारण्टी इस मशहूर आयत में दी गयी है,  “धर्म में कोई (जब्र) बाध्यता नहीं है।” Let there be no compulsion in religion (2:256). इस्लाम से फिर जाने को गुनाह माना जाता है लेकिन क़ुरआन बार बार कहता है इसकी सज़ा आखिरत में मिलेगी, इस दुनिया में नहीं मिलेगी।

सुरह ए निसा की चौथी आयत में ज़िक्र है, “जो लोग ईमान लाए और काफिर हो गये, फिर ईमान लाए फिर काफिर हो गये, फिर कुफ्र में बढ़ते गये, उनको खुदा न तो बख्शेगा और न सीधा रास्ता दिखायेगा।” Those who believe then disbelieve, again believe and again disbelieve, then increase in disbelief, God will never forgive them nor guide them to the Way (4:137). 

इस आयत में स्पष्ट रूप में कुफ्र करने फिर ईमान लाने और फिर कुफ्र में पड़ जाने और कुफ्र में बढ़ते जाने का ज़िक्र है और इसके लिए सजा का फैसला करने का हक़ अल्लाह को है न कि ईरान, सउदी अरब या किसी दूसरी जगह के न्यायाधीशों को हैं।

मज़े की बात ये है कि नादरखानी मामले में फैसला क़ुरआन की आयत पर नहीं बल्कि विभिन्न धार्मिक उलेमाओं (Ayatollahs) के फतवों पर आधारित है। फिर भी फतवे अलग अलग होते हैं।

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मिसाल के तौर पर आयातुल्लाह खुमैनी के कभी वारिस रहे आयातुल्लाह हुसैन अली मुंतज़री ने कहा था कि, “स्वधर्म त्याग के लिए सज़ाए मौत दरअसल नये अबर रहे इस्लामी समुदाय के खिलाफ सियासी साजिश करने वालों के लिए प्रस्तावित की जाती थी। मुंतज़री का खयाल है कि आज भी मुसलमानों को कोई भी विश्वास को स्वीकार करने की आज़ादी होनी चाहिए।

इस तरह नादरखानी मामले में सज़ा का फैसला वैश्विक नैतिक मूल्यों को उल्लंघन के साथ ही मुसलमानों के लिए बदनामी की वजह है। धर्म की स्वतंत्रता का तब तक कोई मतलब नहीं है जब तक किसी व्यक्ति को अपना धर्म छोड़ने या या बदलने का आज़ादी न हो। किसी के दिल और दिमाग़ और उसके खयालात और विश्वास को कंट्रोल करना किसा व्यक्ति की निजी आज़ादी से इंकार करने के बराबर है। सीधे और साफ तौर पर ये तानाशाही है।

ईरान के एक और मरहूम (Grand ayatollah) आयातुल्लाह और खुमैनी के सहायक मुर्तज़ा मुतहरी (Murtaza Muttahari) ने एक बार लिखा था कि एक मुसलमान (पूर्व मुसलमान) को किसी विश्वास पर कायम रखने के लिए मजबूर करना बेमतलब है। मुर्तज़ा मुतहरी दलील देते हुए कहते हैं इस्लाम की ओर से अपेक्षित बुद्धि की सतह के विश्वास पर किसी को रोक पाना असंभव है।

मुतहरी का दावा है कि किसी बच्चे को गणित के सवाल हल करने के लिए मारना न पड़े ऐसा नहीं हो सकता है। उसके दिमाग़ को आज़ाद छोड़ना होगा, ताकि वो इस सवाल को हल कर सके और इस्लामी विश्वास भी बिल्कुल इसी तरह का है।

मुसलमानों को खुद से सवालात करने होंगे कि, क्या जिस खुदा की हम इबादत करते हैं वो इस कदर कमज़ोर और ज़रूरतमंद है कि वो चाहेगा कि हम अपने साथी इमानवालों को उसकी इबादत करने पर मजबूर करें? क्या हमारा धर्म इतना कमज़ोर और असुरक्षित है कि हम किसी भी तरह के इंकार को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं? और इस्लाम के नाम पर एक ईसाई को मिली मौत की सज़ा पर हम खामोश क्यों हैं?

इस्लाम में विश्वास करने से इंकार करने पर किसी इंसान को फांसी पर चढ़ाना धर्मशास्त्र और नैतिकता दोनों के आधार पर अनुचित है। ये गैरइस्लामी होने के साथ ही साथ इस्लाम विरोधी भी है।

(सभार- दि गार्जियन – मूल अंग्रेजी लेख यहां पढा जा सकता हैं)

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