कहना होगा कि आज इस्लाम में अतिवाद कैंसर की तरह फैला हुआ है। मुस्लिमों में ऐसे लोग बहुत थोड़े हैं, जो हिंसा व असहिष्णुता के पैरोकार हैं और महिलाओं तथा अल्पसंख्यकों के प्रति प्रतिक्रियावादी रुख रखते हैं।
हालांकि, कुछ लोग इन चरमपंथ का विरोध करते हैं, लेकिन एक तो उनकी संख्या बहुत ही कम है यानी जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं है और दूसरा यह कि यह विरोध इतना प्रखर नहीं है। विरोध उतना मुखर होकर नहीं किया जाता।
अब इसी तथ्य को लीजिए कि खून-खराबे में लगे इस्लामिक स्टेट (अब इसे आईएस कहते हैं) के खिलाफ अरब जगत में बड़े पैमाने पर कितनी रैलियां निकाली गई हैं? फरीद ज़कारिया लिखते हैं,
जब एक टेलीविजन शो में एंकर बिल माहर (Bill Maher) घोषणा करते हैं, “मुस्लिम विश्व में बहुत कुछ ISIS जैसा है।” (the Muslim world . . . has too much in common with ISIS) और शो के मेहमान सैम हैरिस (Sam Harris) उनसे सहमति जताते हुए कहते हैं,
“इस्लाम खराब विचारों का उद्गम है” तो मैं समझ सकता हूं कि यह सुनकर लोग विचलित क्यों हो गए। उनका विचलित होना स्वाभाविक है। माहर और हैरिस ने बहुत ही भौंड़ा सरलीकरण किया है, बहुत भौंड़ी अतिशयोक्ति की है। और इसके बावजूद मैं कहूंगा कि वे एक हकीकत भी बयान कर रहे थें।
मैं इस्लाम को हिंसक और प्रतिक्रियावादी बताने के खिलाफ दी जाने वाली सारी दलीलें जानता हूं। जब भी ऐसा कुछ कहा जाता है, यही दलीलें दी जाती हैं। यही कि इसके 1.60 अरब अनुयायी हैं। इंडोनेशिया और भारत जैसे देशों में करोड़ों मुस्लिम रहते हैं, जो इस खांचे में फिट नहीं होते।
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यही वजह है कि माहर और हैरिस निर्लज्ज सरलीकरण के दोषी हैं, लेकिन ईमानदारी से कहें तो आज इस्लाम के साथ समस्या तो है। इस बात से कौन इनकार कर सकता है। आंकड़ें इसकी गवाही देते हैं। दुनिया के जिन भी हिस्सों को आधुनिक दुनिया से ताल-मेल बैठाने में दिक्कत आ रही है, वहां अनुपात से ज्यादा मुस्लिम हैं, इसमें कोई शक नहीं है।
पिछला इतिहास देखें तो पता चलेगा कि वर्ष 2013 में चरमपंथी हमले करने वाले 10 शीर्ष गुटों में से सात मुस्लिम गुट थे। इसी प्रकार जिन 10 शीर्ष देशों में चरमपंथी हमले हुए थे, उनमें से सात में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं।
इस बीच, प्यू रिसर्च सेंटर ने (The Pew Research Center) धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर सरकारें, जो पाबंदियां लगाती हैं, उसके आधार पर देशों को रैटिंग दी है। इस रिसर्च एजेंसी ने पाया कि सबसे ज्यादा पाबंदियां लगाने वाले 24 देशों में से 19 देशों में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं। अपना धर्म छोड़ने के खिलाफ, जिन 21 देशों में कानून है, उन सारे देशों में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं।
कहना होगा कि आज इस्लाम में अतिवाद कैंसर की तरह फैला हुआ है। मुस्लिमों में ऐसे लोग बहुत थोड़े हैं, जो हिंसा व असहिष्णुता के पैरोकार हैं और महिलाओं तथा अल्पसंख्यकों के प्रति प्रतिक्रियावादी रुख रखते हैं।
हालांकि, कुछ लोग इन चरमपंथ का विरोध करते हैं, लेकिन एक तो उनकी संख्या बहुत ही कम है यानी जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं है और दूसरा यह कि यह विरोध इतना प्रखर नहीं है। विरोध उतना मुखर होकर नहीं किया जाता। अब इसी तथ्य को लीजिए कि खून-खराबे में लगे इस्लामिक स्टेट (अब इसे आईएस कहते हैं) के खिलाफ अरब जगत में बड़े पैमाने पर कितनी रैलियां निकाली गई हैं?
सारी दलील में ‘आज का इस्लाम’ यह प्रतिवाद महत्वपूर्ण है यानी इस्लाम आज किस दौर से गुजर रहा है, उसे देखना होगा। माहर और हैरिस के विश्लेषण की केंद्रीय समस्या यह है कि वे इस्लाम में अतिवाद की हकीकत को लेकर उसका वर्णन ऐसे करते हैं जैसे यही सबकुछ इस्लाम में आधारभूत ढंग से अंतर्निहित है, उसमें गूंथा हुआ है।
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Bill Maher कहते हैं, “इस्लाम एकमात्र ऐसा धर्म है, जो माफिया की तरह व्यवहार करता है। यदि आपने कोई गलत बात कह दी, कोई गलत चित्र बना दिया या गलत किताब लिख दी तो यह आपको मार डालेगा।” जहां तक ऐसे घटनाओं में क्रूरता का सवाल है, वे बिल्कुल सही कह रहे हैं, लेकिन इसे ‘कुछ मुस्लिमों’ की बजाय इस्लाम के साथ जोड़ना गलत है। यदि 1.60 अरब मुस्लिम इसी तरह सोच रहे होते तो माहर अब तक मारे जा चुके होते।
हैरिस को अपनी विश्लेषण क्षमता पर बहुत गर्व है। वे पीएचडी हैं, जो कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है। हालांकि, मैंने ग्रेजुएशन के दौरान सीखा था कि किसी बदलती स्थिति की आप किसी स्थिर कारण के आधार पर व्याख्या नहीं कर सकते, इसलिए आप यदि यह कह रहे है कि हिंसा, असहिष्णुता इस्लाम के भीतर ही मौजूद है और वह सारे बुरे विचारों का उद्गम है तो चूंकि इस्लाम दुनिया में 14 सदियों से मौजूद है तो हमें इन 14 सदियों में ऐसा ही व्यवहार देखने को मिलना चाहिए। यदि इस्लाम में ऐसा है तो इतिहास के पूरे दौर में ऐसा दिखाई देना चाहिए।
हैरिस को जाकरी कैराबेल की किताब “Peace Be Upon You: Fourteen Centuries of Muslim, Christian and Jewish Conflict and Cooperation.” पढ़नी चाहिए। ऐसा भी वक्त था जब इस्लाम आधुनिकता के शिखर पर था और आज जैसा वक्त भी रहा है, जब यह तरक्की की दौड़ में पिछड़ गया। कैराबेल ने मुझे बताया,
“यदि आप पिछले 70 साल के लगभग का समय छोड़ दें तो ईसाई जगत की तुलना में आमतौर पर इस्लाम सबसे सहिष्णू अल्पसंख्यक समुदायों में से रहा है। यही वजह है कि 1950 के दशक की शुरुआत तक अरब जगत में 10 लाख से ज्यादा यहूदी रह रहे थे। इनमें से करीब 2 लाख तो इराक में ही थे।”
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यदि ऐसा दौर था जब मुस्लिम जगत खुला, आधुनिक, सहिष्णू और शांतिपूर्ण था तो इससे पता चलता है कि धर्म में कोई आधारभूत समस्या नहीं है और चीजें एक बार फिर बदल सकती है। उसे सकारात्मक रूप दिया जा सकता है। फिर माहर क्यों ऐसी टिप्पणियां कर रहे हैं? मुझे लगता है कि सार्वजनिक क्षेत्र में सक्रिय बुद्धजीवी के रूप में उन्हें लगता है कि उन्हें कड़वा सच बोलना चाहिए।
यानी वह सच जो वे देख रहे हैं (हालांकि, यह सच बहुत सरलीकृत और अतिशयोक्तिपूर्ण है)। निश्चित ही सार्वजनिक क्षेत्र के बुद्धिजीवियों के सामने करने के लिए एक और काम है- दुनिया में अच्छे के लिए बदलाव लाना। अच्छाई को सामने लाना। विश्व कल्याण करना।
क्या वाकई उन्हें लगता है कि इस्लाम की तुलना माफिया के साथ करने से ऐसा होगा? हैरिस कहते हैं कि वे चाहते हैं कि ऐसे मुस्लिम अपने धर्म में सुधार लाएं, जो आस्था को उतनी गंभीरता से नहीं लेते। तो इस्लाम को सुधारने की रणनीति यह है कि 1.60 अरब मुस्लिमों से यह कहना कि उनका धर्म दुष्टतापूर्ण है और उन्हें इसे गंभीरता से लेना बंद कर देना चाहिए, जबकि इनमें से ज्यादातर पाक-साफ और सच्चे अर्थों में धर्मनिष्ठ हैं?
इस रास्ते से तो ईसाई धर्म अपने सदियों की हिंसा, क्रूसेड (धर्म युद्ध), धर्म-अदालतों, डायनों को जलाने और असहिष्णुता के दौर से बाहर आकर मौजूदा आधुनिक स्थिति में नहीं आया था। इसके विपरीत बुद्धिजीवियों व धर्मशास्त्रियों ने ईसाई धर्म के उन तत्वों को प्रोत्साहन दिया, जो सहिष्णू, उदार और आधुनिक थे।
इसके साथ उन्होंने धर्मनिष्ठ ईसाइयों को अपने धर्म पर गर्व करने के कारण दिए। सम्मान के साथ सुधार का यही तरीका समय के साथ इस्लाम में सुधार लाएगा। इस बहस में बहुत कुछ दांव पर लगा है। आप या तो खबर बनाने का प्रयास कर सकते हैं या आप स्थिति में फर्क ला सकते हैं। मुझे विश्वास है कि माहर दूसरा रास्ता अपनाने का प्रयास शुरू करेंगे।
(मूल अंग्रेजी लेख यहां पढ सकते हैं)
जाते जाते :
भारतीय मूल के अमेरिकी पत्रकार और लेखक हैं। वे सीएनएन में जीपीएस कार्यक्रम के होस्ट भी हैं। अंतरराष्ट्रीय संबंधों, व्यापार और अमेरिकी विदेश नीति आदी मुद्दों के मुखर आलोचक के रूप में इनकी पहचान हैं। इन्हें 2010 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया।