क्या इस्लाम में परिवार नियोजन जाईज है?

ई लोग खास तौर से महिलाएं मुझसे पूछती रही हैं कि, क्या इस्लाम में परिवार नियोजन जायज़ है। वो बताती हैं कि इमाम और उलमा कहते हैं किक़ुरआन परिवार नियोजन के लिए मना करता है। और इस सम्बंध में क़ुरआन की एक आयत का हवाला देते हैं, जो कहती हैऔर अपनी औलाद को गरीबी के डर से हत्या न करना। (क्योंकि) उनको और तुमको हम ही रिज़्क देते हैं। कुछ शक नहीं कि इनका मार डालना सख्त गुनाह है। (17:31)”

किसी भी तरह इस आयत से मुराद परिवार नियोजन नहीं है, क्योंकि इसमें कत्ल की बात कही गयी है और उसे ही मारा जा सकता है, जिसका अस्तित्व है। दुनिया में कोई भी कानून जो पैदा हो चुका है उसके कत्ल की इजाज़त नहीं देगा और इसलिए क़ुरआन सही तौर पर बच्चों के कत्ल की निंदा करता है।

कुछ लोगों का कहना है कि इससे मुराद लड़कियों को ज़िंदा दफ्न कर देने की परम्परा से है और जब उनसे पूछा जाता है तो वो कहते हैं कि हम उनकी परवरिश नहीं कर सकते हैं और तब अल्लाह कहता है, और तुमको हम ही रिज़्क देते हैं।

लेकिन इमाम रज़ी के मुताबिक इससे मुराद उन लड़के और लड़कियों से हैं जिन्हें जाहिल (अनपढ़) रखा गया। इसलिए कत्ल कर देने से मुराद उनके शरीर की हत्या से नहीं बल्कि दिमाग की हत्या से हैं, जो शरीर की हत्या से ज़्यादा बुरा है। यहाँ पर औलादशब्द का इस्तेमाल किया गया है यानि बच्चे जिनमें लड़के और लड़कियाँ शामिल हैं, सिर्फ लड़कियाँ नहीं।

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इमाम रज़ी का प्रस्ताव काफी उचित लगता है और वास्तव में बड़े परिवार का मतलब है कि गरीब माँ बाप बच्चों को उचित शिक्षा नहीं दे सकते हैं और न ही मुनासिब रिहाइश दे सकते हैं। ऐसे हालात में अच्छे मुसलमान नहीं पैदा होंगे और सिर्फ तादाद से कुछ नहीं होता है। अच्छाई सिर्फ तादाद की तुलना में ज़्यादा ज़रूरी है।

सबसे पहले हमें ये समझना होगा कि उन दिनों में परिवार नियोजन की समस्या नहीं थी और न हीं आबादी को नियंत्रित करने की कोई समस्या थी।

ये आधुनिक समय की समस्या है जो कई देशों के सामने है। तीसरी दुनिया के ज़्यादातर देशों के पास जनसंख्या की तुलना में संसाधन नहीं हैं, कि वो बड़ी आबादी की आवश्यकता को पूरी कर सकें, औऱ जब हम ज़रूरत पूरी करने की बात कर रहे हैं तो इसका मतलब सिर्फ खाना नहीं बल्कि उनको शिक्षा देना और उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं भी उपलब्ध कराना है। ये आज की सभी सरकारों का आधारभूत दायित्व है।

वास्तव में संसाधन की कमी के कारण परिवार नियोजन को अपनाना ज़रूरी हो गया है। जब क़ुरआन अवतरित हो रहा था तो उस समय न तो कोई व्यवस्थित सरकार थी और न ही शिक्षा या स्वास्थ्य सेवाएं राज्य की किसी एजेंसी के द्वारा उपलब्ध कराई जाती थी।

ये बात काफी अहम है कि क़ुरआन ने ज़कात को खर्च करने के आठ तरीके बताये हैं, लेकिन शिक्षा या स्वास्थ्य सेवाओं को शामिल नहीं किया है, जो आज आधुनिक समय की सरकारों के लिए उपलब्ध कराना अति आवश्यक है।

इसलिए इमाम रज़ी का प्रस्ताव न सिर्फ उचित है बल्कि आधुनिक समय में परिवार नियोजन की अहमियत में इज़ाफ़ा करता है, क्योंकि छोटे परिवार बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को हासिल कर सकते हैं।

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ये नोट करना काफी दिलचस्प होगा कि आयत 4:3 (जिसे मुसलमान कई निकाह के जवाज़ के तौर पर पेश करते हैं) को इमाम शाफई विभिन्न अंदाज़ में व्याख्या करते हैं।

ये आयत अला तऊलू शब्द पर खत्म होती है, जिसका आमतौर पर अनुवाद तुम नाइंसाफी मत करोयानि एक से ज़्यादा निकाह मत करो ताकि तुम नाइंसाफी से बच जाओ। लेकिन इमाम शाफई इसका अनुवाद इस तरह करते है, ताकि तुम्हारा परिवार बड़ा न हो।

कुरआन ने पहले ही ज़िक्र कर दिया है कि अगर तुम्हें नाइंसाफी की शंका हो तो एक निकाह करोऔर इसलिए इसे दोबारा कहने की ज़रूरत नहीं है। इसलिए इमाम शाफई को लगा कि इसका अनुवाद इस तरह होना चाहिए ताकि तुम्हारा परिवार बड़ा न हो।

क़ुरआन की समझ के मामले में हर प्रसिद्ध उलेमा और महान विद्वान में एक दूसरे से मतभेद है। एक आयत के एक अर्थ को सभी मुसलमानों को मानने पर मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। एक आयत का विभिन्न लोगों के द्वारा अपनी परिस्थिति और संदर्भ में भिन्न व्याख्या हो सकती है।

परिवार नियोजन आधुनिक समय की समस्या होने के नाते इसे यूँ ही दरकिनार नहीं किया जाना चाहिए और क़ुरआन की आयत को बिना किसी संदर्भ के पेश नहीं करना चाहिए।

वास्तव में परिवार नियोजन का ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि बच्चे को पैदा होने के बाद हत्या की जाये बल्कि बच्चों के जन्म का नियोजन इस तरह किया जाये ताकि माँ बाप उचित तरीके से बच्चे की शिक्षा, स्वास्थ्य और निवास इत्यादि आवश्यकताओं के सभी खर्च बर्दाश्त कर सकें।

क़ुरआन ये भी बताता है कि एक बच्चे को कम से कम दो साल तक माँ का दूध पिलाना चाहिए और ये हमें अच्छी तरह मालूम है कि जब तक एक माँ बच्चे को दूध पिलाती है वो गर्भवती नहीं हो सकती है। इस तरह क़ुरआन भी अप्रत्यक्ष रूप से बच्चों के बीच अंतर रखने की शिक्षा देता है।

यहाँ तक की हम हदीस में पाते हैं कि पैगम्बर मुहंमद (स) ने कुछ स्थितियों में गर्भ की रोकथाम की इजाज़त दी है। जब एक व्यक्ति ने पैगम्बर से अज़्ल’ (‘azl) की इजाज़त माँगी, क्योंकि वो अपीन पत्नी के साथ एक लम्बे सफर पर जा रहा था और वो नहीं चाहता था कि उसकी पत्नी इस दौरान गर्भवती हो तो पैगम्बर ने उसे इसकी इजाज़त दी।

उन दिनों में अज़्ल ही वो तरीका था जिससे बच्चों के जन्म में अंतर रखा जा सकता था। आज कई तरीके उपलब्ध हैं जैसे कॉण्डोम का इस्तेमाल।

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मशहूर आलिम और दार्शनिक इमाम ग़ज़ाली ने माँ की जान को खतरा होने की सूरत में गर्भपात की इजाज़त दी है और गर्भपात के लिए कई तरीकों को बताया है।

यहाँ तक कि स्वास्थ्य खराब होने के आधार पर माँ की खूबसूरती को खतरा हो तो गर्भपात की इजाज़त दी है, इसके लिए शर्त है कि उसके पति से आज्ञा ली गयी हो।

कुछ उलेमा आयत 23:14 को संदर्भ के रूप में पेश करते हैं और इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि तीन महीने तक के गर्भ को समाप्त किया जा सकता है, क्योंकि क़ुरआन ने इस आयत में माँ के गर्भ में शुक्राणु के विकास का वर्णन किया है और इसके अनुसार इसमें जीवन पैदा होने के लिए तीन माह का समय दरकार होता है।

फिर भी कई उलमा गर्भपात का विरोध करते हैं। बहरहाल कोई भी इस्लाम में परिवार नियोजन को निषेध करार नहीं दे सकता है, क्योंकि ये न तो एक पैदा हुए बच्चे की हत्या के बराबर है और न ये गर्भपात है, लेकिन ये अपने वित्तीय संसाधनों के अनुसार गर्भ धारण को रोककर बच्चे के जन्म का नियोजन करना है ताकि उनके जन्म में अंतर हो।

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