किताबीयत : तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर
प्रगतिशील साहित्य आंदोलन को बीत गये अब जमाने हो गये। उसके बड़े बड़े महारथीयो का दौर खत्म हो गया। 1955-60 के दौर नई तहरिक ने जन्म लिया जिसे हम आधुनिक साहित्य आंदोलन (जदिदीयत) कहते हैं।
उसने उर्दू में अपना कदोकामत (ऊंचाई) निकालना शुरू कर दिया था और तरक्की पसंदों ने आहिस्ता-आहिस्ता तरक्की पसंदी का दामन छोड़ना शुरू कर दिया था। जिसकी मिसाल चढ़ते सूरज वाली हो गई थी।
तरक्की पसंदों पर बहुत से मजामीन लिखे गए। कुछ अच्छे, कुछ बुरे! तरक्की पसंदों पर सबसे पहले बाकायदा अज़ीज अहमद की किताब (जो मज्मून की सूरत में 1942 में रिसाला ‘उर्दू’ में छपी) ‘तरक्कीपसंद अदब’ छपी थी, जिसमें बकौल खलील उर्रहमान आज़मी, ‘‘अज़ीज अहमद ने अल्लामा इकबाल, हसरत मोहानी, जोश और काजी अब्दुल गफ्फार का ही जायजा लिया था। क्योंकि तब तक कुछ चीजें ही सामने आईं थीं।’’
अज़ीज अहमद के बाद साल 1951 में अली सरदार जाफरी की ‘तरक्की पसंद अदब’ नामी किताब मंजरे आम पर आई, जो एक तरह से अज़ीज अहमद की ही किताब का विस्तार थी। अली सरदार जाफरी की किताब के दूसरे एडीशन के साथ ही खलील उर्रहमान का मकाला (शोध) किताबी सूरत में ‘उर्दू में तरक्की पसंद अदबी तहरीक’ आया।
खलील की किताब चूंकि इन दोनों किताब के बाद आई थी, इसलिए दोनों किताबों के तज्किरे (उल्लेख) और अक्स की मौजूदगी के बावजूद यह किताब उन दोनों किताबों से मवाद (सामग्री) और मालूमात के एतबार से ज्यादा अच्छी है।
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तरक्की पसंद तहरीक
ज़ाहिद खान की किताब ‘तरक्की पसंद तहरीक के हमसफर’ इन किताबों की तरह हमें तरक्की पसंद तहरीक के बारे में तफ्सील से तो नहीं बताती, मगर तरक्की पसंद लिखने वालों के जेहनी खाकों को रचते हुए, अक्स के तौर पर तरक्की पसंदी पर भी रौशनी डालती है।
उनकी किताब हमीद अख्तर की उस किताब जैसी मालूमात पहुंचाती है, जो ‘रुदादे अंजुमन’ के नाम से साल 2000 में लाहौर और 2006 में ‘तख़लीककार’, दिल्ली से उर्दू में छपी थी और जिसमें उन महफिलों-नशिस्तों के तज्किरे और बहसें बंद हैं, जो तरक्की पसंद पर मुंबई की शामों को रंगीन और संगीन करती रही हैं।
ज़ाहिद खान ने इन मजामीन में खाका निगारी के फन से खूब फायदा उठाया है। जिसमें उन्होंने लिखने वालों के जिस्मानी और जेहनी खाके लिखते वक्त अपने कलम की खूब जलवानिगारी दिखलाई है।
मसलन ‘सज्जाद जहीर की ये क्रांतिकारी सोच अचानक नहीं बनी थी, बल्कि इसके पीछे भी उस दौर की हंगामाखेज पृष्ठभूमि थी। लंदन में जहीर की तालीम के साल, दुनियावी एतबार से बदलाव के साल थे। साल 1930 से 1935 तक का दौर परिवर्तन का दौर था।’ (सज्जाद जहीर : तरक्कीपसंद तहरीक के रूहेरवां, पेज-7)
‘रशीद जहां ने तालीम के साथ-साथ महज चौदह साल की उम्र से ही मुल्क की आजादी के लिए चल रही तहरीकों में दिलचस्पी लेना शुरू कर दी थी। ………..रशीद जहां की जिंदगी में एक नया बदलाव, मोड़ तब आया जब उनकी मुलाकात सज्जाद जहीर, महमूदुज्फर और अहमद अली से हुई।’ (रशीद जहां का अदबी और समाजी जहां, पेज-19, 20) (इत्तेफाक से ‘अंगारे’ नाम के बदनाम, मगर अब मशहूर अफसानवी मजमुएं के तखलीककार यह चारों थे)
‘मंटो की तरह राजिंदर सिंह बेदी पर भी चेखव, गोर्की, वर्जीनिया वुल्फ और ज्यांपाल का गहरा असर था। उनसे मुतास्सिर होकर उन्होंने कई अच्छी कहानियां लिखीं।
मसलन उनकी कहानी ‘दस मिनिट बारिश में’ पर चेखव की ‘स्लिप’ कहानी का, ‘दिवाला’ में कहानीकार मोपासां और ‘पानी शॉप’ में वर्जीनिया वुल्फ की कहानियों का साफ प्रभाव देखा जा सकता है। एक साक्षात्कार में उन्होंने यह बात खुद कबूली थी।’ (राजिंदर सिंह बेदी : थोड़े में बहुत कुछ कहने वाला अफसानानिगार, पेज-36, 37)
इन सतरों को पढ़ने के बाद इस किताब के चाल-चलन का अंदाजा पढ़ने वालों को हो ही गया होगा। किताब 192 पन्नो की है, जिसे उर्फ आम में मुख्तसर कह सकते हैं, लेकिन किताब की हर सतर में एक किताब बराबर मालूमात छिपी है।
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क्या है ख़ासियत?
इस किताब की अच्छाई का अंदाजा यूं भी लगाया जा सकता है कि यह महज उर्दू अफसानानिगारों, शायरों तक महदूद नहीं, इसमें इप्टा का इंकलाबी इतिहास, गीतकार शैलेन्द्र, ड्रामानिगार हबीब तनवीर, विजय तेंदुलकर, नेमिचंद जैन, ए.के. हंगल, नाग बोडस और फिल्म गर्म हवा, पिंजर पर लेख होने के साथ-साथ हिंदी के बाब (अध्याय) में मुंशी प्रेमचंद, भीष्म साहनी, डॉ. कमला प्रसाद, राही मासूम रजा, कमलेश्वर, शानी और राजेंद्र यादव को भी लिया गया है।
हालांकि, पसंद अपनी-अपनी लेकिन इस हकीकत से कोई इंकार नहीं कर सकता कि मुंशी प्रेमचंद ने जब लिखना शुरू किया, तो वे उर्दू के तखलीककार थे।
यह सब जानते हैं कि उन्होंने किन वजूहात की वजह से अपने उर्दू नॉवलों की लिपि बदली। इसी तरह यह भी सच है कि राही मासूम रजा का नॉवेल ‘आधा गांव’ को कुंवर पाल सिंह ने लिपि बदल किया था।
इन दोनों को हिंदी के पाले में ले जाना ठीक नहीं है। फनकार सदैव उसी जबान में तखलीक करता है, जिस पर उसे पूरी दस्तरस (सामर्थ्य) होती है और वह लिखते समय सहूलियत महसूस करता है। यह किसी भी लिखने वाले का अदब पढ़कर, उसमें इस्तेमाल की गई जबान से समझा जा सकता है।
खैर, किताब ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ खुद को पढ़वाने का मवाद अपने अंदर रखती है। जो लोग उर्दू-हिन्दी के तरक्की पसंद अदब के बारे में जानना-समझना चाहते हैं, वे इस किताब को संजो कर रखेंगे कि यह अहम दस्तावेज है, जिसमें तरक्कीपसंद अदब की तारीख मय सबूत के मौजूद है।
ज़ाहिद खान की तहरीर यकसां रफ्तार ही नहीं रखती, उनका लफ्जों का इंतेखाब भी उम्दा है। हां कहीं-कहीं आम चलन में बह गए हैं। जिससे उन जैसे जिम्मेदार लिखारी को बचना चाहिए था।
क्योंकि, आप जिस जबान का लफ्ज इस्तेमाल कर रहे हैं, तो आपको पूरी जिम्मेदारी से लफ्ज को समझ लेना चाहिए। क्योंकि लफ्ज जब छप जाते हैं, तब वो अगर मशहूर होंगे, तो तारीफ आपको मिलेगी और मातूब (पीड़ित) होंगे, तो आप समझ सकते हैं कि…..।
ज़ाहिद पत्रकार हैं, तख़लीककार हैं। जेरे तब्सिरा किताब ‘तरक्की पसंद तहरीक के हमसफर’ के अलावा उनकी चार किताबें और आ चुकी हैं। उन्हें बहुत से इनामात से नवाजा जा चुका है। इनामात समाजी पसंद का एलान होते हैं और लिखने वाले की काबिलियत और अहमियत को जतलाते हैं।
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किताब का नाम : तरक्की पसंद तहरीक के हमसफर
लेखक : ज़ाहिद खान
प्रकाशक : उद्भावना प्रकाशन, नई दिल्ली
ऑनलाईन : उर्दू बाजार
पन्ने : 192
भाषा : हिन्दी
कीमत : 100 रुपये
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