भारत की आज़ादी से चार दशक पहले, साल 1907 में विदेश में पहली बार भारत का झंडा एक महिला ने फहराया था। इस 46 साल की पारसी महिला भीकाजी कामा ने जर्मनी के स्टुटगार्ट में हुई सातवीं ‘इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस’ में यह झंडा फहराया था जो आज के भारत के झंडे से अलग, आज़ादी की लड़ाई के दौरान बनाए गए कई अनौपचारिक झंडों में से एक था।
तीस साल से ज़्यादा समय तक भीकाजी कामा ने यूरोप और अमरीका में भाषणों और क्रांतिकारी लेखों के ज़रिए अपने देश के आज़ादी के हक़ की माँग बुलंद की।
“ऐ दुनियावालों। देखो, यही है भारत का झंडा। यही भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, इसे सलाम करो। इस झंडे को भारत के लोगों ने अपने खून से सींचा है। इसके सम्मान की रक्षा में जान दी है। मैं इस झंडे को हाथ में लेकर आज़ादी से प्यार करने वाले दुनियाभर के लोगों से अपील करती हूं कि वो भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों का समर्थन करें।”
भारत की स्वतंत्रता से चालीस साल पहले, यानि सन 1907 में पहली बार विदेशी धरती पर जिसने हमारे देश का झंडा फहराया था और उपरोक्त शब्द कहे थे, वह भीकाजी कामा थीं।
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पारसी परिवार में जन्मी
भीकाजी रुस्तम कामा भारतीय मूल की महिला पारसी थीं। उनका जन्म 24 सितंबर, 1861 को बंबई में हुआ था। पिता सोहराबजी फ्रामजी पटेल एक प्रसिद्ध व्यापारी थे। वह उदार और देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत थे।
माँ सुशिक्षित और ऊँचे विचारों की थी। मैडम कामा का पालन-पोषण सौहार्दपूर्ण वातावरण में लाड़-प्यार के साथ हुआ था। उन्होंने अंग्रेजी भाषा की शिक्षा प्राप्त की थी। समय पर उनका विवाह एक प्रसिद्ध और धनी व्यापारी के आर कामा के साथ हो गया।
“भारत में ब्रिटिश शासन जारी रहना मानवता के नाम पर कलंक है। एक महान देश भारत के हितों को इससे भारी क्षति पहुँच रही है।”
सन 1896 में तत्कालीन बॉम्बे राज्य में प्लेग बीमारी ने अपना प्रकोप दिखाया था। पीड़ितों की सेवा के दौरान भीकाजी खुद भी इस बीमारी की चपेट में आ गईं। उनकी तबियत बहुत ज्यादा खराब हो गई। कुछ दिनों तक उनकी चिकित्सा मुंबई में हुई। जब लाभ नही हुआ तो सन 1902 में बेहतर इलाज के लिए वे यूरोप चली गईं। उन्होंने इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस रह कर अपना इलाज कराया।
वह अपनी इस यात्रा में कई ऐसे भारतीयों के संपर्क में आई, जो उन दिनों वहाँ रहकर भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्नशील थे। उन भारतीयों के जीवन का कामा के हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा।
वहीं पर वह भारतीय राष्ट्रवादी श्याम जी कृष्ण वर्मा के संपर्क में आईं। उस समय श्याम जी कृष्ण वर्मा ब्रिटेन के भारतीय समुदाय में काफी चर्चित हुआ करते थे। उनकी देशभक्ति की भावनाओं से प्रभावित होकर कामा ने स्वयं भी उसी मार्ग पर चलने का निश्चय किया।
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तिरंगे से अलग था झंडा
भीकाजी कामा ने जर्मनी के स्टुटगार्ट में हुई अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस के आयोजन स्थल पर यह झंडा फहराया था जो आज के झंडे से अलग था। बताया जाता है कि कामा इस बात से आहत थीं कि इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस के आयोजन में सम्मिलित होने वाले सभी देशों का झंडा वहाँ लगा हुआ था, परंतु भारत के लिए ब्रिटिश झंडा लगा था। उन्होंने एक नया झंडा बनाया और सभा में फहरा दिया।
वह पहला मौका था, जब विदेशी जमीं पर कोई भारतीय झंडा लहराया गया था। वह 22 अगस्त 1907 की तारीख थी, जब भीकाजी कामा ने भारत में फैले अकाल की पूरी स्थिति को वहाँ मौजूद लोगों के सामने रखा। उन्होंने मानवाधिकारों, समानता और ब्रिटेन से आजादी की भी दुहाई दी थी। उन्होंने कहा था, “भारत में ब्रिटिश शासन जारी रहना मानवता के नाम पर कलंक है। एक महान देश भारत के हितों को इससे भारी क्षति पहुँच रही है।”
“हम हिंदू, मुसलमान, पारसी और सिख – चाहे जो हों, पर हम सब भारतीय हैं। भारत की स्वतंत्रता के लिए हमें आपस में मिल जाना चाहिए। हमें हर प्रकार से अंग्रेजों का बहिष्कार करना चाहिए। यदि हम अंग्रेजी सरकार की नौकरी न करें, तो भारत में अंग्रेजों का राज्य करना कठिन हो जाएगा।”
भीकाजी कामा के इस साहस ने तब खूब सुर्खियाँ बटोरी थीं। उन्होंने जो झंडा बनाया था वह आज के भारतीय तिरंगे झंडे से अलग था। इसमें हरे, पीले और लाल रंग की तीन पट्टियाँ थीं।
सबसे ऊपर हरा रंग था, जिसपर आठ कमल के फूल अंकित थे। ये आठ फूल उस वक्त भारत के आठ प्रान्तों के प्रतीक का प्रतिनिधित्व करते थे। बीच में पीले रंग की पट्टी थी। इस पट्टी पर ‘वंदे मातरम’ लिखा था। सबसे नीचे नीले रंग की पट्टी थी, जिस पर सूरज और चांद बने थे। पुणे की ‘केसरी-मराठा’ लाइब्रेरी में यह झंडा अब भी सुरक्षित रखा है।
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दांपत्य जीवन को तिलांजलि
यह वह समय था जब भारत में अंग्रेज हुकूमत का दमनचक्र जोरों से चल रहा था। सन् 1905 में बंगाल के बंटवारे को लेकर क्रांति की आग जल उठी थी। अंग्रेज बंगाली युवकों को फांसी पर चढ़ाकर उस आग को निर्ममता के साथ बुझाने की कोशिश कर रहे थे। उसका फल यह हुआ कि पूरे भारत में क्रांति की आग फ़ैल गई। साथ ही फैला ब्रिटिश सत्ता का दमनचक्र!
अब उन्होंने भारत न लौटकर आने का निश्चय किया। उन्होंने यूरोप में ही रहकर भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने का जूनून जारी रखा। कामा के पति धनी व्यापारी थे, इसलिए यदि वह इच्छा रखती तो सुख से ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकती थी पर उन्होंने ऐसे दांपत्य जीवन को तिलांजलि देकर काँटों भरा रास्ता चुना।
उन्होंने उन लोगों को अपना साथी बनाया, जो विदेशों में रहते हुए, भूख-प्यास और कठिन परिस्थितियों से लड़कर भी भारतवर्ष की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्नशील थे। कामा का यह जुनून बड़ा खतरनाक था।
उनके सिर पर सदा उत्पीडन की तलवार लटकी रहती थी, विदेशी सरकारों से गिरफ्तारी का भय बना रहता था। उनकी गतिविधियों पर गुप्तचर भी निगाह रखते थे। फिर भी, कामा को कोई परवाह नही थी। वह वीरता, साहस और धैर्य के साथ कठिन पलों का मुकाबला करते हुए महाक्रांति के मार्ग पर बढ़ती रही।
सन 1908 में जारी उनकी एक विज्ञप्ति इस प्रकार थी–
“हम हिंदू, मुसलमान, पारसी और सिख – चाहे जो हों, पर हम सब भारतीय हैं। भारत की स्वतंत्रता के लिए हमें आपस में मिल जाना चाहिए।” उनका एकता में दृढ़ विश्वास था। वे कहा करती थीं, “हमें हर प्रकार से अंग्रेजों का बहिष्कार करना चाहिए। यदि हम अंग्रेजी सरकार की नौकरी न करें, तो भारत में अंग्रेजों का राज्य करना कठिन हो जाएगा।”
कामा के ऊँचे विचार देश को बहुत ऊपर ले जाने की इच्छा से ओत-प्रोत थे। वह अपने देश का कल्याण तो चाहती ही थी, साथ ही संसार के सभी मनुष्यों के कल्याण की कामना भी चाहती थी।
वह अकसर कहा करती थी, “वह दिन कब आएगा, जब मैं कहूंगी, संसार के सभी लोग मेरे कुटुंब के हैं। पर उस दिन के आने से पूर्व मैं चाहूंगी कि संसार के सभी परतंत्र राष्ट्र स्वतंत्र हो जाएँ।”
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भारत में क्राति कि प्रयासरत
भीकाजी कामा की लगातार बढ़ती क्रांतिकारी गतिविधियों, उनकी विज्ञप्तियों, भाषणों और लेखन से भारत की ब्रिटिश सरकार की चिंताएं बढ़ गईं। उनकी विज्ञप्तियों के भारत में फैलाव पर रोक लगा दी गई। समुद्री मार्ग से आने वाली डाक की व्यापक छानबीन की जाने लगी थी। इस कड़ाई के बावजूद भी कामा के पार्सल और चिट्ठियाँ पांडिचेरी पहुँचती रहीं।
सरकार को जब पता चला कि कामा की हुकूमत विरोधी सामग्री निर्बाध आ रही है, तो वह और कुपित हो उठी। मैडम कामा को अपराधियों की श्रेणी में रखा गया। उन्हें फरार घोषित करके उनकी एक लाख रूपये मूल्य की संपत्ति जब्त कर ली गई।
ब्रिटिश सरकार को इस कार्यवाही से भी संतुष्टि नहीं मिली तो राजनयिक स्तर पर दबाव डालने की कोशिश हुई। भारत की दमनकारी विदेशी हुकूमत फ्रांस की सरकार पर भी दवाव डालने लगी कि कामा को वहाँ न रहने दिया जाए, परंतु चूँकि कामा स्थाई रूप से फ्राँस में रहने लगी थीं, अतः ब्रिटिश सरकार के दबाव का उनके लिए सकारात्मक परिणाम नही निकला। यह स्वयं भीकाजी कामा की एक बड़ी जीत थी।
“हमें पहले हब्शियों की श्रेणी में रखा जाता था, पर आज हमें क्रांति के कारण रूसियों और आयरिशों की श्रेणी में रखा जा रहा है। वह दिन शीघ्र ही आने वाला है, जब भारत स्वतंत्र हो जाएगा और हम संसार के बड़े से बड़े देश की श्रेणी में रखे जाएंगें।”
कामा फ्रांस में रहते हुए ही भारत में क्रांति की सफलता के लिए और भी अधिक प्रयत्नशील रहने लगी। सन 1914 में मैडम कामा पर यह आरोप लगाया गया कि वह फ्रांस में रहकर भारत की सरकार का तख्ता उलटने का षडयंत्र कर रही है।
तब अंग्रेज शासन के दबाव में फ्रांस सरकार ने कामा की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया। उन्हें आदेश दिया गया कि वह प्रतिदिन शाम को अपने निकटवर्ती पुलिस स्टेशन पर हाजिरी दिया करें।
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सर्वहारा वर्ग के राज्य कि मंशा
उन दिनो अमेरिका से कई भाषाओं में ‘गदर’ नामक समाचार पत्र छपता था। इसके लेखों में स्थानीय लोगों को विदेशी हुकूमत के विरुद्ध क्रांति करने के लिए उत्साहित किया जाता था। कामा ने ‘गदर’ की बहुत सी प्रतियाँ गुजराती भाषा में मुद्रित कीं और उन्हें भारत के क्रांतिकारियों के पास भेजा।
मैडम कामा ने अपने संपादन में एक समाचार पत्र भी निकाला था जिसका नाम ‘वंदेमातरम’ था। यह समाचारपत्र कई भाषाओं में प्रकाशित होता था। उसकी तमाम प्रतियाँ भारत में भी भेजी जाती थीं। ‘वंदेमातरम’ प्रवासी भारतीयों में काफी लोकप्रिय हुआ था। इसके एक अंक में उन्होंने लिखा था –
“हमें पहले हब्शियों की श्रेणी में रखा जाता था, पर आज हमें क्रांति के कारण रूसियों और आयरिशों की श्रेणी में रखा जा रहा है। वह दिन शीघ्र ही आने वाला है, जब भारत स्वतंत्र हो जाएगा और हम संसार के बड़े से बड़े देश की श्रेणी में रखे जाएंगें।”
कामा ने रूसी लेखक गोर्की से भी संबंध स्थापित किये, जो धीरे-धीरे प्रगाढ हो गए। गोर्की के अनुरोध पर उन्होंने भारतीय नारियों और उनकी स्थिति पर एक लेख भी लिखा था, जो गोर्की के समाचारपत्र में प्रकाशित हुआ था। कामा रूसी साहित्य से बहुत प्रभावित थी। वह चाहती थीं कि भारत में भी रूस की तरह क्रांति हो और ब्रिटिश हुकूमत के शासन की जगह मजदूरों अथवा सर्वहारा वर्ग का राज्य स्थापित हो।
इस ध्येय की प्राप्ति के लिए कामा दिन-रात काम में लगी रहती थीं। उन्हें अपने खाने-पीने की भी चिंता नही थी। बदली हुई परिस्थितियों में उनके पास अब आर्थिक संसाधन भी सिमट गए थे। भारत के जो क्रांतिकारी और देशभक्त नेता पेरिस जाते थे, वे कामा के ही पास ठहरते थे।
मैडम कामा उनकी हर प्रकार से सहायता किया करती थीं। इसका परिणाम यह हुआ कि वह कठिन आर्थिक समस्याओं में घिर गईं। उनका स्वास्थ खराब हो गया और वह बीमार पड़ गईं। उनकी कठिन बीमारी ने भारत के नेताओं को भी चिंतित कर दिया। अंग्रेज सरकार पर दबाव डाला गया कि वह मैडम भीकाजी कामा को भारत आने की अनुमति दे। आखिर सरकार को झुकना पड़ा। उसने बीमार कामा के भारत आने पर लगा प्रतिबंध हटा लिया।
सन 1936 में विपरीत परिस्थियों और बिमार स्थिति में कामा लौटकर भारत आई। जनता ने हर्ष और उल्लास के साथ उनका स्वागत किया, पर थोडे ही दिनों बाद वह हर्ष आँसुओं में बदल गया। 13 अगस्त सन 1936 में मैडम कामा की मृत्यु हो गई। भारत के जन-जन के हृदयों में उनकी स्मृतियाँ विद्यमान हैं। उनकी देशभक्ति की भावना और कार्यकलापों ने भीकाजी कामा को अमर बना दिया।
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लेखक आगरा स्थित साहित्यिक हैं। भारत सरकार और उत्तर प्रदेश में उच्च पदों पर सेवारत। इतिहास लेखन में उन्हें विशेष रुचि है। कहानियाँ और फिक्शन लेखन तथा फोटोग्राफी में भी दखल।