औरंगजेब दौर की दो किताबें जो उसकी धार्मिक छवी दर्शाती हैं

जामिया मिल्लिया के निमंत्रण पर मुझे एक हफ्ते के लिए जामिया जाना पडा। इसी दौरान मैने इसके कुतुबखाने की सैर की। जामिया के ओहदेदार इस मुबारकबाद के काबील हैं की, इन्होंने आठ बरस की मुख्तसर मुद्दत में अपने दुसरे डिपार्टमेंट्स के साथ इस कुतुबखाने को भी हद दर्जे तक बढाया है। इस वक्त इसकी लायब्ररी में आठ हजार किताबें है।

जिनमें अरबी, फारसी, अंग्रेजी और उर्दू की किताबें हैं। इनमें 250 के करीब अरबी और फारसी किताबों की हस्तलिखित प्रतियां है। जामिया में मैने कुछ ऐसी किताबें देखी जो वाकई काबिल ए कद्र थी। इनमें से दो किताबें ऐसी थी जो मुझे निहायत ही अजीब मालूम हुई। क्योंकी इसका कोई नुख्सा मेरी नजर से अबतक नहीं गुजरा था।

इन दोनों किताबों की कद्र करने की वजह यह है की, यह दोनो किताबें उस औरंगजेब के अहद की हैं, जिसको उसके दुश्मन और तनकीद (आलोचना) करनेवाले हिन्दुकूश, हिन्दू धर्म और संस्कृति को बरबाद करनेवाला कहते हैं।

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हिन्दू मजहब को तबाह करनेवाला और हिन्दुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनानेवाला मानते हैं। लेकीन बाद में अन्य हवालों और दलीलों के साथ आज यह दो मुर्दा और खामोश किताबें गवाही देती हैं की, शायद डंके की चोट पर जो इल्जाम लगाए जाते हैं, गलत हैं।

इनमें से एक किताब का नाम ‘मत अछुरा’ और दुसरी किताब का नाम ‘रद्द ए कुफ्र’ है। पहली किताब एक हिन्दू की है और दुसरी किताब हिन्दू से मुसलमान बने एक नव-मुस्लिम की है। पहली किताब का मकसद संस्कृत न जानने वाले हिन्दुओं को उनके मजहब से आगाह कराना है और दुसरी का मकसद बुतपरस्त हिन्दुओं का इस्लाम का रास्ता दिखाना है। यह दोनों किताबें फारसी में है, जो उस जमानें में तमाम हिन्दुस्थानियों की अदबी और इल्मी जुबान थी।

पहली किताब ‘मत अछुरा’ बडे साईज के 412 पन्नों कि है। किताब कि एक प्रत फर्रुखाबाद में 14 फरवरी 1848 को लिखवायी गयी है। इसके कातिब (हस्तलिखित प्रतियां बनानेवाला) का नाम सय्यद कलामुद्दीन शहा कादरी है, उसने यह प्रत काझी मुहंमद गुलाम मोहियोद्दीन खान (सरिश्तेदार मोहकमा कचहरी) के लिए लिखा था।

यह किताब भले फारसी जुबान में हो मगर कई जगह संस्कृत और हिन्दी के शब्दों का उपयोग किया गया है। अफसोस यह है की, किताब कि यह प्रत काफी दोषपूर्ण है। मिसाल की तौर पर देखें तो इसकी प्रस्तावना में एक जगह लिखा गया  शब्द है, ‘जाक बलक’ (मगर यह असल में जाग लग होना चाहिए)।

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रक्सेर ने विक्रमजित के जमानें इस किताब को श्लोक के रुप में लिखा था। इस किताब का नाम उस दौर में ‘स्मृति जाग ब्लग’ के नाम से मशहूर हो गया था। इसीलिए गोशय्या काम्बियानिर ने इस किताब को दुबारा लिखा और इसका खुलासा किया।

इसी खुलासे का नाम उसने ‘मत अछुरा’ रख दिया था। बादशाह औरंगजेब के जमाने में भोजपूर के एक शख्स लाल बिहारी ने भास्कर पंडित की मदद से इसको फारसी में अनुवादित किया। लाल बिहारी चाहता था की, संस्कृत से जो लोग नावाकिफ हैं, वह इसको समझें और इससे फायदा उठाएं।

इस किताब का मौजू (विषयवस्तु) हिन्दू मजहब के अहकाम (धर्मादेश) है। किताब तीन हिस्सों में बांटी गयी है और हर एक हिस्से में तीस से सत्तर तक  छोटे-छोटे लेख हैं। इसके तीन हिस्सों के फारसी नाम इस तरह हैं-

1) दर आचार अध्याय के आन रा ब जुबान ए अरब इबादत गोईंद (इस हिस्से में 29 लेख हैं।)

2) दर बेवपारा अध्याय के इबादात अज मामलात बाशुद (इस हिस्से में 45 लेख हैं।)

3) दर प्रायश्चित्त अध्याय के आं जा कुफारत ख्वाईंद (इसमें 70 लेख हैं)। इसके हिस्सों का विश्लेषण मुश्किल है मगर नामों से साफतौर पर मालूम होता है की, उस जमाने के रौशन खयाल हिन्दूओं की यह कोशिश थी की, वह अपने धर्मशास्त्र को इस्लामी फिकह (इस्लामी विधीशास्त्र) के दर्जे पर पेश करें।

जिस तरह आज अंग्रेजी कानून की तरह इस्लामी फिकह को एक नया रंग देने की कोशिश हो रही है। इस किताब की प्रस्तावना में औरंगजेब का जिन उपाधियों के साथ सम्मान किया गया है, वाकई पढने लायक हैं। इसमें औरंगजेब को न्यायी, इश्वर कि परछाई, विजेता, आसमान का बादशाह, सुलतानों का सुलतान, परोपकारी, सहिष्णु आदी शब्दों सम्मानित किया गया है। सम्मान के लिए लिखे गए शब्द तकरीबन 100 के करीब हैं।

दुसरी किताब का नाम रद्द ए कुफ्र’ है। इस किताब पर काझी मुहंमद वल्द बाकर के मिल्कियत की मुहर है। यह किताब कहां से जामिया मिल्लिया इस्लामिया कि लायब्ररी में पहुंची पता नहीं। इसका लेखक नव-मुस्लिम हिन्दू है।

इसका हिन्दू नाम हरी किशन था, मुसलमान बनने के बाद इसने अपना नाम अब्दुल कवि रखा था। यह पंजाब का रहनेवाला था। इस किताब की जुबान काफी आम जुबान है। 29 हकिकतों पर यह किताब लिखी गयी है। आखिर में किताब कुछ अधुरी सी है।

किताब में हिन्दू श्रद्धाओं का विश्लेषण किया गया है और उसपर आलोचनात्मक विश्लेषण लिखा है। इसी के साथ इस्लामी रस्म व रिवाज की खासियत बयान कि गयी है।

बहरहाल अगर ऐसे नव-मुस्लिम हिन्दू होंगे तो कौन कह सकता है, की अलमगीर के जमाने दलीलों के जोर के बजाय तलवार के जोर से हिन्दूओं को मुसलमान बनाया जाता था। 

*सय्यद सुलैमान नदवी ने यह लेख सन 1953 में लिखा था। 

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