जब सम्राट जहाँगीर ने अबुल फ़ज़ल की हत्या कर दी?

कबर अपने सहयोगी अबुल फजल पर कितना भरोसा करते थे, यह किसी से छिपा नहीं है। आखिर वह उनका सलाहकार, जीवनीकार भी था। उन्होंने अकबर के दक्षिण अभियान का नेतृत्व किया। वह तुर्की, फारसी, संस्कृत, अरबी और हिन्दी के विद्वान थे।

अबुल फजल ने मुग़लकालीन शिक्षा और साहित्य में भी अपना पूरा योगदान दिया। अबुल फजल ने दकन में अपनी लड़ाई में अकबर की सेना का नेतृत्व भी किया। बादशाह ने शहजादे सलीम को उसकी विद्रोही प्रवृत्ति कोई सुधारने में परामर्श प्राप्त करने के लिए अबुल फजल को दक्षिण से वापस आने का आदेश दिया था।

कामगार खाँ ने लिखा है कि, “एक फरमान भेज कर उसे यह आदेश दिया गया कि वह (अबुल फजल) अपने पुत्र को दक्षिण सेना के साथ छोड़कर अकेला ही दरबार में आए।”

उधर शहजादा सलीम अबुल फजल के प्रति दुराग्रह रखता था। उसे आशंका हुई कि यदि अबुल फ़जल दरबार में पहुंच जाएगा तो वह बादशाह के मन में संदेह उत्पन्न कर उसे मेरे विरुद्ध कर देगा।

सलीम ने यह भी सोचा कि दरबार में अबुल फजल की उपस्थिति के कारण उसका वहाँ प्रवेश संभव हो सकेगा और उसे उसके अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा। अतः उसने राजा मधुकर के पुत्र राजा नृसिंह देव उर्फ बीर सिंह देव को बुलाया तथा शेख अबुल फजल की हत्या करने के लिए कहा।

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अकबर हुए आहत

जब अबुल फजल उसके राज्य से जा रहा था तब उसे कुछ लोगों ने सतर्क रहने को कहा था, पर उसे किसी अनहोनी की आशंका नहीं थी। सलीम ने उनका रास्ता जरूर छुड़वा दिया परंतु एक मुठभेड़ के पश्चात फजल के सेवक छिन्न-भिन्न हो गए और वह स्वयं मारा गया।

तब अबुल फजल का कटा हुआ सिर एक विश्वस्त नौकर के साथ इलाहाबाद भेजा गया जिसने इस संपूर्ण वृतांत को बताया। इन परिस्थितियों में 19 अगस्त 1602 ईसवीं में बरखी सराय और अंतरी के बीच हुई यह दुखद घटना अकबर के लिए बहुत आहत कर देने वाली थी।

क्रोधित बादशाह अकबर ने शहजादे सलीम की भतर्सना की और बीर सिंह को मृत्युदंड का आदेश दिया, परंतु वह निकल भागा और आगे चलकर बादशाह बनने के बाद जहाँगीर का कृपापात्र बना।

बादशाह अकबर और उनके शहजादे सलीम के रिश्ते कभी सामान्य नहीं रहे। उनमें और कटुता आ गई। इस घटना का विवरण ‘वाकए असद बेग’ में यूं किया गया है,

“बीर सिंह के हर सिपाही ने कवच पहन रखे थे। उनकी तलवारें और भाले हवा में बिजली की तरह चमक रहे थे। तेज़ भागते घोड़े पर सवार एक राजपूत ने अबुल फ़ज़ल पर बर्छे से इतनी तेज़ी से वार किया कि वो उनके शरीर के दूसरे हिस्से से बाहर निकल गया।

फ़ज़ल नीचे गिरे और उनके शरीर से तेज़ी से ख़ून निकलने लगा। उनका ख़ुद का घोड़ा उन्हें रौंदता हुआ निकल गया। ताज्जुब है कि घोड़े के भार से उनकी मौत नहीं हुई। फ़ज़ल अभी जीवित थे कि बीर सिंह वहाँ पहुंच गए। वो उनकी बग़ल में बैठ गए।

उन्होंने अपनी जेब से एक सफ़ेद कपड़ा निकाला और फ़ज़ल के जिस्म से निकल रहे ख़ून को पोंछने लगे। इसी समय फ़ज़ल ने अपनी सारी ताक़त जुटाते हुए बुंदेला प्रमुख की ग़द्दारी के लिए उसे कोसा। बीर सिंह ने अपनी तलवार निकाली और एक झटके में अबुल फ़ज़ल का सिर उनके धड़ से अलग कर दिया।”

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मरवाने की वजह

एक तथ्य यह भी है कि अबुल फ़ज़ल की नज़र में जहाँगीर कोई बहुत ऊंची जगह नहीं रखते थे। लेकिन क्या सिर्फ़ यही वजह थी उनको मरवाने की? दरअसल यह एक राजनीतिक खेल था कि गद्दी पर कौन बैठेगा।

अकबर की शक्तियाँ क्षीण हो रही थी। वो अब थक रहे थे और जहाँगीर को अब आने वाली पीढ़ी से लड़ाई करनी थी, यह जानना वाकई एक विचित्र अनुभव था।

कहते हैं कि जब अकबर को अबुल फ़ज़ल की हत्या के बारे में ख़बर मिली तो वह मूर्छित हो गए। जहाँगीर इसके बारे में बिना किसी ग्लानि के अपनी आत्मकथा में बिना पश्चाताप के लिखते हैं कि, “यह मेरा किया एक अपराध था।”

इतिहास में यह भी उल्लिखित है कि अंतत: जहाँगीर जब अबुल फ़ज़ल के बेटे से मिलते हैं तब भी उनके मन में कोई अपराधबोध नहीं रहता। वो साफ़ लिखते हैं कि मेरा उद्देश्य था बादशाह बनना। अगर अबुल फ़ज़ल वापस दरबार में पहुंचते तो मैं बादशाह नहीं बन पाता।

इसके बाद सन 1602 ईसवीं में शहजादे सलीम ने औपचारिक रूप से सुल्तान की पदवी धारण कर दरबार आहूत किए। उसने अपनी बुरी भावनाओं को नहीं छोड़ा और एक संप्रभु बादशाह के समान नियमित रूप से दरबार लगाना, फरमान जारी करना, मनसबों तथा जागीरों का वितरण करना नहीं छोड़ा।

शहजादे ने विदेशी सहायता प्राप्ति तथा सेना के संगठन के लिए तत्परता दिखाई जिसके लिए राज्यों के प्रमुखों से संपर्क स्थापित किया। उसने गोवा के प्रांतीय अधिकारी से अपने दरबार में प्रमाण पत्रों सहित मिशनरी पादरियों को भी उपस्थित होने का अनुरोध किया और सैनिक सफलता प्राप्त करने के भी असफल प्रयास किये।

इतिहास के इस महत्त्वपूर्ण किस्से की दिलचस्प बात यह है कि अबुल फ़ज़ल के बेटे बाद में जहाँगीर के बहुत विश्वसनीय मंत्री के तौर पर उभरते हैं। शायद उसे भी पता था कि यह जीवन ऐसा ही है, और वह इस कृत्य के लिए शहजादे से बादशाह बने इस शाही शहजादे को सजा देने की कूवत नहीं रखता था।

फिर उसके पिता और मुल्क के बादशाह अकबर, जिन्हें महान कहा जाता है, उन्होंने भी पुत्र मोह में ही सही, उसे क्षमादान तो दे ही दिया था। इतिहासकार इस बात को मानते हैं कि सलीम को उसके अमानुषिक व्यवहार के अनुरूप ही उचित दंड मिलना चाहिए था और ऐसा न करने से अकबर के चरित्र पर स्वयं एक दाग लगता दिखता है।

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