पेशवाई खानदान का एक नाराज सदस्य राघोबा ने पेशवा (राजा) बनने की मनोकामना से अंग्रेजों कि मदद लेकर पुणे शहर पर हमला किया। पेशवाओं के सामने अंग्रजों का संकट रौद्र रुप धारण कर रहा था।
उस समय नाना फडणवीस ने हैदरअली और निजाम हैदराबाद के समक्ष भारतीय राजाओं के सार्वभौमत्त्व कि चिंता प्रस्तुत की। दोनों को उसने अंग्रेजों के खिलाफ महासंघ कि योजना से अवगत कराया और साथ ही भारतीय सत्ताओं कि एकता नारा भी दिया।
इस प्रस्ताव को हैदरअली और निजाम हैदराबाद ने स्वीकार कर लिया। इसी महासंघ में बाद में नागपूर के महादजी शिंदे को जोडा गया। ईसवीं 1779 में एक लिखित करार के साथ पेशवा, हैदरअली, निजाम और महादजी का एक महासंघ वजूद में आया।
इस करार से तय पाया था कि, महासंघ का कोई सदस्य अंग्रेजो से व्यक्तिगत तौर पर कोई संधी नहीं करेगा।
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अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा
ईसवी 1780 मे एक जंग कि शुरुआत हुई, जिसमें हैदरअली ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। उसी समय हैदरअली कि पीठ पर कॅन्सर की जख्म हुई, कई हकीम और फ्रान्सिसी डॉक्टर के इलाज के बावजूद यह जख्म ठिक न हो सकी।
इतने गंभीर बिमारी के बावजूद हैदरअली ने भारतीय हुक्मरानों के हक में अंग्रजों के खिलाफ छिडे युद्ध से मुँह नही मोडा।
अंग्रेज हमेशा से पेशवाओं और निजाम कि मदद लेते आए थें। मगर इस समय हैदरअली के समर्थन में आने की कसमें निजाम – पेशवा ने ले रखी थी। चालबाज अंग्रेजों ने निजाम, भोसले, सिंधीया और पेशवाओं के सामने व्यक्तिगत तौर पर संधी का अलग-अलग प्रस्ताव रखा, हैदरअली को छोड सभी ने अंग्रजो से दोस्ती के लिए हाथ बढाया।
महासंघ से दूर होने के बदले ब्रिटिशो ने निजाम को गंटूर का इलाका वापस कर दिया। कुछ लाख रुपये देकर महादजी को भी अंग्रेजो ने अपने साथ कर लिया। और अक्तूबर 1781 में बडोदा के गायकवाड से एक अलग संधी कर ली गई। इसके बाद पेशवाओं से 17 मई 1782 को अंग्रजो ने ‘सालबाई संधी’ को मुर्त स्वरूप दे दिया।
अंग्रेजो ने हैदरअली से भी संधी कि कोशिश की। मगर वह आखिर तक जंग लडने पर अडीग रहे। आखिरकार जंग के मैदान में कॅन्सर और दुश्मनों से लडते-लडते हुए 7 दिसंबर 1782 को हैदरअली ने नरसिंह नारायण पेठ की छावनी में आखरी सांस ली।
मगर अंग्रेजो से स्वतंत्रता कि सौदेबाजी न करने की अपनी पुरानी भूमिका पर वे मजबूती से डटे रहे। चौंकाने वाली बात यह है कि हैदरअली और टिपू सुलतान के आलोचक इस घटनाक्रम को दुर्लक्षित करते हैं और पेशवाओं जो कि स्वतंत्रता के सौदेबाज थे उनके पक्ष में खडे हो जाते हैं।
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हैदरअली की उपलब्धीयां
सन 1782 तक हैदरअली ने मैसूर कि कुछ गावों में सिमित रियासत का त्रावणकोर, मद्रास, धारवाड तक विस्तार किया। कुछ मिल का क्षेत्र जिस राज्य के अधिकार क्षेत्र में था, वह हैदरअली के प्रयास से 80 हजार वर्ग मिल तक फैल गया था।
ईसवी 1749 में एक साधारण सिपाही के तौर पर अपने राजनैतिक सफर कि शुरुआत करनेवाले हैदरअली ने मात्र 33 वर्ष के राजनैतिक सफर में एक सल्तनत कि नींव रखी।
राजनीति से जिसका कोई सरोकार न था ऐसे सामान्य परिवार में हैदरअली जन्मे थें। उन्होंने काबिलीयत के दम पर दस से ज्यादा राजसत्ताओं को अपने सामने झुकने पर मजबूर कर दिया। हैदरअली ने मात्र 18 साल का राजनीतिक सफर तय करने के बाद एक विशाल लष्कर के निर्माण में कामयाबी हासिल कि थी।
ग्रंथो में लिखा हैं कि, “ईसवी 1768 में हैदरअली के लष्कर में 11 हजार घुडसवार, 12 हजार सिपाही, 8 हजार हरकारे, कारागीर, व्यवस्थापन विभाग के तज्ज्ञों के अलावा तोफखाने में 10 हजार बैल, 100 हाथी और 800 उंट थे।” जिन्हे सत्ता विरासत में न मिली, मगर जो एक राज्य के अधिपती बन गए ऐसे दुनिया कें चंद राज्यनिर्माताओं में हैदरअली को उंचा मकाम प्राप्त हैं।
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धार्मिक दृष्टिकोण
‘सल्तनत ए खुदादाद’ हैदरअली द्वारा स्थापित उनका अपना राज्य था और किसी धर्म प्रेरित नहीं थे। हैदरअली के प्रशासन और सैन्य में काफी महत्त्वपूर्ण पदों पर हिन्दू धर्मीयों की संख्या मुसलमानों कि तुलना में अधिक थी। हिन्दू धर्म कि श्रद्धाओं का हैदरअली आदर करते थें।
मैसूर के विख्यात दशहरे में वह खुद शिरकत करते। बदनूर कि जित के बाद वहां कि टंकसाल में बनने वाले सिक्कों पर मुद्रित हिन्दू देवताओं कि छवी उसने बरकरार रखी।
श्रीरंगपट्टणम के श्रीरंगनाथ स्वामी मंदिर के बर्तन जो आज भी इस्तमाल में लाए जाते हैं, हैदरअली कि तरफ से दी हुई भेट हैं। देवनहल्ली के मंदिर को दिए गए जेवरात हैदरअली के धार्मिक सहिष्णुता का प्रतिक हैं।
श्रीगिरी के मंदिर में नवाब हैदरअली कि तीन सनद मौजूद हैं, इसमें एक खत 1769 में हैदरअली ने यहां के स्वामी को लिखा था।
इस खत में हैदरअली कहते है,
‘‘आपने बालाजी पट्टणा, व्यंकटरामय्या के जरिए जो इतल्ला दी है उससे आगाही हुई, आपकी शख्सीयत वाजिबुल तहजीम और आपका तखद्दुस बाईस ए बरकत हैं। यह कुदरती बात है के हर शख्स के दिल में आपसे मिलने और सआदत हासिल करने कि ख्वाहिश पैदा हो। मालुम हुआ के सहाब ए रघुनाथराव पेशवा ए पुना आपसे मिलना और आपकी खिदमत करना चाहते हैं।”
“इन्होने मुझसे दरख्वास्त कि है के आपको इनके पास बगर्ज मुलाकात भेजा जाए। इसीलिए मैं अब आपसे दरख्वास्त करता हूं के आप पुना तशरीफ ले जाकर सहाब ए मौसुफ कि ख्वाहिश पुरी करें आपके इस सफर के लिए एक हाथी, एक पालखी, पांच घोडे और पांच उंटो का इंतजाम कर दिया गया है।
इनके अलावा देवता के लिए जरीन कपडे, आपके अलम (निशान) के लिए पांच रेशमी थान, और खास आपके लिए दो खिलअते और एक जोडी शाल भी अरसाल ए खिदमत है। इखराजात ए सफर (प्रवास खर्च) के लिए साडे दस हजार रुपये अरसाल हैं।”
इसके अलावा व्हयसुर के मंदिर को सन 1761 में हैदरअली ने एक बडी जागीर प्रदान की। उसके बाद दो बार इसी मंदिर कि मरम्मत और नई इमारतों के निर्माण के लिए आर्थिक मदद भी कि थी।
जाते जाते –
* हिन्दू पुजारी हमेशा करते थे टिपू सुलतान के जीत की कामना
* टिपू सुलतान रोज नाश्ते पहले मंदिर क्यों जाता था?
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