अहमदनगर मध्यकालीन दकन का एक अहम शहर है। नगररचना और अद्भुत वास्तुकौशल्य तथा भौतिक विकास कि वजह से इसकी तुलना मध्यकालीन ‘बगदाद’ और ‘मिस्त्र’ के साथ होती रही। रेशम व्यापार और हबशी सरदारों का केंद्र रहे अहमदनगर को अरब जगत में काफी प्रतिष्ठा प्राप्त थी।
निज़ामशाही के संस्थापक अहमद निज़ामशाह ने इस शहर कि सन 1483 में बुनियाद रखी। बहमनी के पतन के दौर में दकन कि राजनीति में बदलाव के साथ ही इस शहर कि स्थापना का इतिहास शुरु होता है।
कासिम हिन्दुशाह फरिश्ता के बिना दकन कि मुस्लिम सल्तनतों का इतिहास ज्ञात नहीं हो सकता। फरिश्ता ने उसके प्रख्यात ग्रंथ ‘गुलशन ए इब्राहिमी’ (Gulshan E Ibrahimi) में बहामनी, आदिलशाही, बरिदशाही, अहमदनगर कि निज़ामशाही और उत्तर के खिलजी, तुगलक और अन्य सुलतानों के वृत्तांत काफी परिश्रमपूर्वक लिखे हैं।
डॉ. नरेन्द्र बहादूर श्रीवास्तव ने लिखते हैं, “फरिश्ता यद्यपी शासकीय अभियानों में अधिक व्यस्त रहता था, लेकिन लोग उसकी योग्यता से अधिक प्रभावित थे। इब्राहिम आदिलशाह (दूसरा) बडा ही विद्या प्रेमी शासक था। वह जब फरिश्ता के प्रखर ऐतिहासिक ज्ञान से परिचित हुआ तो उसने फरिश्ता को ‘हिन्दुस्तान में इस्लामी शासन काल’ का इतिहास लिखने की आज्ञा दी।”
आज ‘गुलशन ए इब्राहिमी’ किताब दकन का इतिहास जानने का एकमात्र साधन हैं। जिससे दकन के राजवंशों को लेकर अहम मालूमात मिलती है।
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निज़ामशाही कि स्थापना
फरिश्ता ने दकन कि जिन सल्तनतों का इतिहास लिखा है, उनमें अहमदनगर कि निज़ामशाही को एक अहम राजवंश माना जाता है। महमूद गवान कि हत्या के बाद बहमनी सत्ता कमजोर होती गयी। जिस वजह से बहमनी के कई सरदारों ने अपनी अलग हुकूमतों की स्थापना कि, उनमें अहमदनगर कि निज़ामशाही का भी समावेश होता है।
शुरुआती दौर में टपकापूर में अहमद निज़ामशाह ने अपनी राजधानी बनायी। वहीं उसने अपने नाम का खुत्बा जारी किया और सिक्का भी प्रचलित करवाया। इसके बाद अहमद निज़ाम साम्राज्यविस्तार कि योजना पर काम करने लगा, शुरुआत में उसने राजापुरी में कब्जा जमाया और फिर दौलताबाद कि तरफ तवज्जोह दी। इस किले कि जिम्मेदारी मलिक वजाहउद्दीन और मलिक अशरफ इन दो भाईयों के पास थी।
फरिश्ता लिखता है, “इन दोनों भाईयों ने उस क्षेत्र का प्रबंध अपनी योग्यता से किया। सभी चोर उच्चकों और बदमाशों को तबाह व बरबाद कर दिया। डाकुओं का इस तरह सफाया किया की अनेक रास्ते सुरक्षित हो गए और व्यापारी निडर होकर यात्रा करने लगे। प्रजा संपन्न हो गयी, देश कि आबादी बढ गयी। चारों तरफ अमन चैन का डंका बजने लगा।”
मलिक वजीहउद्दीन और मलिक अशरफ को काफी जन समर्थन हासिल हुआ। इन सारी वजुहात के कारण दौलताबाद का किला काफी कठीन माना जाता था। इस स्थिती को ध्यान में रखकर अहमद निज़ाम ने इन दोनो भाईयों से मेलजोल बढाया।
निज़ामशाह ने मलिक वजीहउद्दीन के सामने अपनी बहन जैनब के साथ शादी का प्रस्ताव प्रस्तुत किया। वजीहउद्दीन ने इस को कबूल किया और शादी के बाद दौलताबाद पर अप्रत्यक्ष अहमद निज़ाम का प्रभुत्व प्रस्थापित हुआ। इस रिश्ते से वजीहउद्दीन का भी काफी सम्मान बढ़ गया।
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वजीहउद्दीन कि हत्या
जैनब और मलिक वजीहउद्दीन को एक बेटा भी हुआ, जिसका नाम अहमद निज़ामशाह के निर्देश पर ‘मोती’ रखा गया। पुत्रप्राप्ती के कुछ दिन बाद ही वजीहउद्दीन और उसके भाई मलिक अशरफ में विवाद उत्पन्न हुआ।
जिसके बारे में फरिश्ता लिखता है, “मलिक अशरफ ने जब अपने भाई का दिन ब दिन बढ़ता हुआ सम्मान और वैभव देखा तो उसके हृदय में डाह की आग भडकने लगी। उसने अपने भाई को कत्ल करने का फैसला कर लिया।”
मलिक अशरफ चाहता था कि मलिक वजही को कत्ल करके दौलताबाद, रणथम्भौर और दूसरे परगणे पर अधिकार कर ले और अपने नाम का खुत्बा और सिक्का जारी करे।
किले के लोगों को अपने साथ षडयंत्र में शामिल करके अशरफ ने मलिक वजीह को मौत के घाट उतार दिया और उसके बेटे कि भी जहर देकर हत्या कर दी। जिसके बाद वह खुद दौलताबाद का शासक बन बैठा।
दौलताबाद हमले कि योजना
पती और बेटे कि हत्या के बाद जैनब अपने भाई अहमद निज़ाम के पास लौट आयी, जो उस वक्त जनीर (जुन्नर) में था। बुरी खबर को सुनते ही निज़ामशाह आग बबुला हो गया। उसने दौलताबाद पर हमले के लिए सैन्य को तैय्यार किया। वह दौलताबाद कि और कुच करनेवाला ही था, मगर उसी वक्त अमीर कासीम बरीद का एक संदेश उसे मिला।
जिसमें कासीम ने यूसुफ आदिलशाह द्वारा हो रहे हमले में निज़ामशाह कि मदद मांगी थी। निज़ामशाह ने कासीम बरीद कि मदद की विनती को कबूल किया और उसकी मदद के लिए ईसवीं सन 1483 में बिदर चला गया। कुछ ही दिनों में बिदर कि मुहीम को अधूरा छोडकर वह जनीर (जुन्नर) कि तरफ वापस लौटा, रास्ते में ‘टपकापूर’ के करीब वह कुछ देर के लिए रुका।
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अहमदनगर कि स्थापना
फरिश्ता लिखता है, “रास्ते में टपकापूर के करीब उसने अपनी यात्रा स्थगित की और इस स्थान पर एक नया शहर बनाने का विचार किया, क्योंकि यह स्थान जनीर और दौलताबाद के मध्य स्थित है।
अहमद ने इस चयनित जगह को अपनी राजधानी बनाने का फैसला किया जिससे हर साल रब्बी और खरिफ के समय में दौलताबाद के लिए गल्ला और दूसरा सामान बाहर से आए, उसे लुटा जा सके। अहमद का विचार था इस तरह दौलताबाद वालों को तंग किया जा सकता है और एक दिन ऐसा आएगा कि वह मजबूर होकर दौलताबाद किला अहमद को सुपुर्द कर देंगे।”
शहर के नींव के बारे मे फरिश्ता लिखता है, “सन 1484 में अहमद निज़ाम ने बताई हुई शुभ घडी में ‘बाग निज़ाम’ के सामने नहर सेन (सिना नदी) के किनारे पर एक नये शहर की बुनियाद डाली।
निज़ामशाह ने यह सून रखा था कि अहमदाबाद गुजरात का नाम ‘अहमद शाह गुजराती’ ने चुना था और इसका कारण यह था कि बादशाह, उसके वजीर और तीनों काजीयों का नाम अहमद था। यही इसका मुख्य कारण था। अतः निज़ाम ने नये शहर का नाम ‘अहमदनगर’ रखा।
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बगदाद, मिस्त्र से तुलना
अहमद निज़ाम ने इस शहर के निर्माण में बहुत रुची ली। कुछ समय में ही अनेक अमीरों और उच्च पद वालों ने अपने लिए भवन बनवाए। दो तीन साल के अन्दर ही यह शहर मिस्र और बगदाद की तरह आबाद हो गया। जब शहर पूरी तरह बस गया तो अहमद निज़ाम ने अपनी पूर्व योजना को साकार रुप देना प्रारंभ किया।
निज़ाम हर साल दो बार अपनी सेना को दौलताबाद पर आक्रमण करने के लिए भेजता। निज़ामशाही लष्कर दौलताबाद शहर पर हमला कर उसको बुरी तरह लूटते और मकानों को आग लगा देते।
दूसरी तरफ मलिक अशरफ के वर्तन से दौलताबाद किले के निवासी काफी तंग आ गए थे। उन्होंने अहमद निज़ाम को खत लिखकर किले पर कब्जा जमाने का न्यौता दिया। उसके कुछ ही दिनों बाद निज़ामशाह ने दौलताबाद का किले पर अपना प्रभुत्त्व स्थापित किया। इस तरह अहमद निज़ाम का अहमदनगर कि स्थापना का मकसद कामयाब रहा।
इसके बाद अहमदनगर शहर कि रचना में कई बदलाव किए गए। आदर्श नगर रचना के साथ वास्तू निर्माण, बाग एवं भूमिगत नालियों का निर्माण करवाया गया, जिसकी वजह से अहमदनगर को काफी ख्याती प्राप्त हुई।
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हबशी गुलामों कि मुक्तिभूमि
दकन ने कई गुलामों, मजदूरों, कारकूनों आम सिपाहीयों को बादशाहत का सम्मान प्रदान किया था। इनमें हसन बहामनी, यूसुफ आदिलशाह, मलिक अम्बर, इखलास खान से लेकर हैदर अली तक कईयों के नाम शामिल हैं।
मध्यकाल में हबशी गुलाम काफी संख्या में दकन लाए गए थे। मगर दकन में आते ही इनमें से सेकडों गुलामों को आजादी मिल गयी। सिर्फ आजादी ही नहीं बल्की दकन कि राजनीति में इन हबशीयों ने काफी अहम मकाम भी हासिल किया था।
महमदू गवान, इखलास खान, नासिर बहारी, मलिक अम्बर ने दकन की राजनीति में अपने बुद्धिकौशल्य से काफी महत्त्व प्राप्त किया था। अहमदनगर के बगदाद से रेशम व्यापार के संबंध थे। काफी बडी मात्रा में रेशम कि खरीद-फरोख्त की जाती थी।
बगदाद में हबशी गुलामों कि संख्या ज्यादा थी। बगदाद के जो कारोबारी अहमदनगर आते, साथ में हबशी गुलामों को लेकर आते थे। इन व्यापारीयों के द्वारा अहमदनगर के अमीरों ने कई गुलामों को खरीद लिया था।
शुरुआत में अहमदनगर में इखलास खान, नासिर बहरी और मलिक अम्बर तथा अन्य हबशी गुलामों की तरह आए, मगर कुछ ही दिनों में उन्हें मुक्ती मिल गयी। सिर्फ मुक्ती ही नहीं बल्की इखलास खान और मलिक अम्बर ने कई सालों तक निज़ामशाही पर अपना प्रभुत्व भी रखा था।
सोलहवी सदी के शुरुआत से हबशी सरदारों का गुट अहमदनगर कि राजनीति में मजबूत होता गया। एक तरह से दकन में अहमदनगर गुलामों कि मुक्तिभूमि सिद्ध हुई थी।
अहमदनगर के विकास में हबशी गुलामों ने काफी योगदान दिया। मुख्यतः बगदाद से आए यह गुलाम नगर कि रचना, वास्तुनिर्माण, जलवितरण प्रणाली के निर्माण में काफी मददगार साबित हुए।
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