“एक उम्दा मोती, खु़श लहजे के आसमान के चौहदवीं के चांद और इल्म की महफ़िल के सद्र। ज़हानत के क़ाफ़िले के सरदार। दुनिया के ताजदार। समझदार, पारखी निगाह, ज़मीं पर उतरे फ़रिश्ते, शायरे-बुजु़र्ग और आला। अपने फ़िराक़ को मैं बरसों से जानता और उनकी ख़ासियतों का लोहा मानता हूं।
इल्म और अदब के मसले पर जब वह ज़बान खोलते हैं, तो लफ़्ज़ और मायने के हज़ारों मोती रोलते हैं और इतने ज़्यादा कि सुनने वाले को अपनी कम समझ का एहसास होने लगता है। वह बला के हुस्नपरस्त और क़यामत के आशिक़ मिज़ाज हैं और यह पाक ख़ासियत है, जो दुनिया के तमाम अज़ीम फ़नकारों में पाई जाती है।”
यह मुख़्तसर सा तआरुफ़ अज़ीम शायर फ़िराक़ गोरखपुरी का है। उनके दोस्त शायर-ए-इंकलाब ‘जोश मलीहाबादी’ ने अपनी आत्मकथा ‘यादों की बरात’ में फ़िराक़ का खाका खींचते हुए, उनके मुताल्लिक यह सब खूबसूरत बातें कहीं हैं।
जिन लोगों ने भी फ़िराक़ को देखा, पढ़ा या सुना है, वे सब अच्छी तरह से जानते हैं कि उनकी शख्सियत इन सबसे कमतर नहीं थी, बल्कि कई मामलों में, तो वे इससे भी कहीं ज़्यादा थे। फ़िराक़ जैसी शख्सियत, सदियों में एक पैदा होती है।
फ़िराक़ गोरखपुरी का खाका लिखते वक्त जोश मलीहाबादी यहीं नहीं रुक गए, बल्कि अपने इसी मजामीन में उन्होंने डंके की चोट पर यह एलान भी कर दिया, “जो शख़्स यह तस्लीम नहीं करता कि फ़िराक़ की अज़ीम शख़्सियत हिन्दोस्ताँ के माथे का टीका और उर्दू ज़बान की आबरू, शायरी की मांग का संदल है, वह खुदा की क़सम पैदाइशी अंधा है।” फ़िराक़ की सतरंगी शख्सियत का इससे बेहतर तआरुफ शायद ही कोई दूसरा हो सकता है।
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फ़िराक़ तख़ल्लुस क्यों चुना?
28 अगस्त, 1896 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में जन्में रघुपति सहाय बचपन से ही शायरी से हद दर्जे के लगाव और मोहब्बत के चलते फ़िराक़ गोरखपुरी हो गए। उन्होंने अपना यह तख़ल्लुस क्यों चुना?, इसका भी एक मुख्तसर सा किस्सा है, जो उन्होंने मौलाना खै़र बहोरवी के नाम लिखे अपने एक खत में वाजेह किया था। इस खत में फ़िराक़ लिखते हैं,
“वे ‘दर्द’ देहलवी के कलाम से काफी मुतास्सिर थे। ‘दर्द’ के उत्तराधिकारी नासिर अली ‘फ़िराक़ ’ थे। चूंकि वे भी ‘दर्द’ देहलवी के कलाम के मद्दा थे, लिहाजा उन्हें यह तखल्लुस खूब पसंद आया और उन्होंने भी अपना तखल्लुस ‘फ़िराक़ ’ रख लिया।”
‘फ़िराक़ ’ तखल्लुस पसंदगी की एक और वजह शायद इस लफ्ज के मायने भी हैं, जो उनकी शख्सियत से काफी मेल खाता है। बहरहाल गोरखपुर में पैदाइश की वजह से उनका पूरा नाम हुआ, फ़िराक़ गोरखपुरी।
फ़िराक़ के वालिद मुंशी गोरख प्रसाद खुद एक अच्छे शायर थे और उनका तखल्लुस ‘इबरत’ था। वे फारसी के आलिम थे और उर्दू में शायरी करते थे। जाहिर है कि घर के अदबी माहौल ने फ़िराक़ के मासूम जेहन पर भी असर डाला। वे भी शायरी के दिलदादा (शौकीन) हो गए।
बीस साल की उम्र आते-आते वे भी शे’र कहने लगे। शुरुआत में उन्होंने फारसी के उस्ताद महदी हसन नासिरी से कुछ ग़ज़लों पर इस्लाह ली। बाद में खुद के अंदर ही शे’र कहने की इतनी सलाहियत आ गई कि किसी उस्ताद की जरूरत नहीं पड़ी।
फ़िराक़ की शुरुआती शायरी यदि देखें, तो उसमें जुदाई का दर्द, ग़म और जज्बात की तीव्रता शिद्दत से महसूस की जा सकती है। अपनी ग़ज़लों, नज्मों और रुबाईयों में वे इसका इजहार बार-बार करते हैं,
वो सोज-ओ-दर्द मिट गए, वो जिन्दगी बदल गई
सवाल-ए-इश्क है अभी ये क्या किया, ये क्या हुआ।
वे अपने जाती दर्द को इन अल्फाजों में आवाज देते हैं,
उम्र फ़िराक़ ने यों ही बसर की
कुछ गमें जानां, कुछ गमें दौरां।
जुदाई के दर्द के अलावा उनके अश्आर में ‘रात’ एक रूपक के तौर पर आती है। उनके कलाम का एक हिस्सा ऐसा है, जिसकी बिना पर उन्हें शायरे-नीमशबी कहा जा सकता है। मिसाल के तौर पर उनके कुछ ऐसे ही अश्आर हैं,
उजले-उजले से कफन में सहरे-शाम ‘फ़िराक़ ’
एक तस्वीर हूं मैं रात के कट जाने की।
तारीकियां चमक गयीं आवाजे-दर्द से
मेरी गजल से रात की जुल्फें संवर गयीं।
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मकसदी अदब के कायल
साल 1936 में मुल्क में प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ। इस संघठन के घोषणा-पत्र पर विचार-विनिमय करने के लिए संगठन के बानी सज्जाद जहीर, भारतीय भाषाओं के तमाम लेखकों से मिले। इन लेखकों में फ़िराक़ गोरखपुरी भी शामिल थे।
सज्जाद जहीर ने उनसे प्रलेस के घोषणा-पत्र पर तो राय-मशिवरा किया ही, बल्कि संगठन के पहले राष्ट्रीय अधिवेशन में उनसे अपना पर्चा भी पढ़वाया। जाहिर है कि साल 1936 के बाद फ़िराक़ गोरखपुरी के कलाम में बदलाव आने लगता है। उनके कलाम में साम्यवादी ख्याल जगह पाने लगते हैं। अब वे मकसदी अदब के कायल हो जाते हैं।
शायरी से मुआशरे में बदलाव उनका मकसद हो जाता है। उनके लहजे में तल्खियां और एहतेजाज दिखाई देने लगता है।
मायूस नहीं होते अफसुर्दा नहीं होते
हर जुर्म-ओ-गुनाह करके इन्सान है फिर इन्सां।
फ़िराक़ गोरखपुरी ने गुलाम मुल्क में किसानों-मजदूरों के दुःख-दर्द को समझा और अपनी शायरी में उनको आवाज दी। जब वे इस तरह की गजलें और नज्में लिखते थे, तो उसमें साम्यवादी चेतना साफ दिखलाई देती थी। जोश मलीहाबादी की तरह उनकी इन नज्मों का फलक बड़ा होता था। मजदूरों का आहृान करते हुए वे लिखते हैं,
तोड़ा धरती का सन्नाटा किसने? हम मजदूरों ने
डंका बजा दिया आदम का किसने? हम मजदूरों ने
ओट में छिपी हुई तहजीबों का घूंघट सरकाया किसने?
शर्मीली तकदीर की देवी का आंचल ढलकाया किसने?
कामचारे सपनों की काया में शोला भड़काया किसने?
बदनचोर इस प्रकृति कामिनी का सीना धड़काया किसने?
इसी तरह वे अपनी नज्म ‘धरती की करवट’ में किसानों को भी खिताब करते हैं। तमाम तरक्की पसंद शायरों की तरह फ़िराक़ गोरखपुरी के कलाम में भी साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और सांप्रदायिकता की मुखालफत साफ दिखलाई देती है।
बेकारी, भुखमरी, लड़ाई, रिश्वत और चोरबजारी
बेबस जनता की यह दुर्गत, सब की जड़ सरमायादारी।
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नज्मों में वतनीयत
उनकी किताब ‘गुले नग्मा’ में इस तरह की गजले और नज्में बहुतायत में हैं। फ़िराक़ गोरखपुरी हालांकि अपनी गजलों और मानीखेज शे’र के लिए जाने जाते हैं, मगर उन्होंने नज्में भी लिखी। और यह नज्में, गजलों की तरह खूब मकबूल हुईं।
‘आधी रात’, ‘परछाइयां’ और ‘रक्से शबाब’ वे नज्में हैं, जिन्हें जिगर मुरादाबादी, जोश मलीहाबादी से लेकर अली सरदार जाफरी तक ने दिल से सराहा। ‘दास्ताने-आदम’, ‘रोटियां’, ‘जुगनू’, ‘रूप’, ‘हिंडोला’ भी फ़िराक़ की शानदार नज्में हैं, जिनमें उनकी तरक्की पसंद सोच साफ जाहिर होती है। ‘हिंडोला’ नज्म में तो उन्होंने भारतीय तहजीब की शानदार तस्वीरें खींची हैं।
हिंदू देवी-देवताओं, नदियों, त्यौहारों, रीति-रिवाजों और अनेक मजहबी-समाजी यकीनों का इजहार इस नज्म में उन्होंने बड़े ही खूबसूरती से किया है। उर्दू आलोचकों ने इस नज्म को पढ़कर बेसाख्ता कहा, यह नज्म वतनीयत की बेहतरीन मिसाल है। इस नज्म में मकामी रंग शानदार तरीके से आए हैं।
फ़िराक़ गोरखपुरी की गजलों-नज्मों में फारसी, अरबी के ही कठिन अल्फाज नहीं होते थे, बल्कि कई बार अपने शे’र में उस हिन्दुस्थानी जबान को इस्तेमाल करते थे, जो हर एक के लिए सहल है। मिसाल के तौर पर उनके कुछ इस तरह के शे’र हैं,
मजहब कोई लौटा ले, और उसकी जगह दे दे
तहजीब सलीके की, इन्सान करीने के।
तुम मुखातिब भी हो, करीब भी
तुमको देखें कि तुमसे बात करें।
आए थे हंसते खेलते मय-खाने में फ़िराक़
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए।
एक मुद्दत से तेरी याद भी न आई हमें
और हम भूल गए हों, तुझे ऐसा भी नहीं।
मुहब्बत में मिरी तन्हाइयों के हैं कई उन्वां
तिरा आना, तिरा मिलना, तिरा उठना, तिरा जाना।
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लिखे चालीस हजार अशआर
फ़िराक़ ने श्रंगार रस में डूबी अनगिनत गजलें भी लिखीं। जब इनसे दिल भर गया, तो रुबाइयात लिखीं, नज्में लिखीं। उर्दू अदब को फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपने कलाम से खूब मालामाल किया। गद्य और पद्य दोनों में ही उन्होंने बेशुमार लिखा।
उर्दू अदब में बेमिसाल योगदान के मद्देनजर, फ़िराक़ गोरखपुरी कई सम्मान और पुरस्कारों से नवाजे गए। जिसमें कुछ खास सम्मान और पुरस्कार हैं साहित्य अकादमी (साल 1960), सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार (साल 1968), भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान (साल 1970)।
साल 1968 में भारत सरकार ने अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक ‘पद्म भूषण’ से उन्हें नवाजा। पचास साल से ज्यादा वक्त की अपनी अदबी जिन्दगी में फ़िराक़ गोरखपुरी ने तकरीबन 40 हजार अशआर लिखे। जिन्दगी के आखिरी वक्त तक उनका लेखन नहीं छूटा।
वे आखिरी समय तक एकेडमिक और अदबी महफिलों की रौनक बने रहे। उर्दू अदब में फ़िराक़ गोरखपुरी जैसी शोहरत बहुत कम शायरों को हासिल हुई है। 3 मार्च, 1982 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा।
फ़िराक़ गोरखपुरी की एक अकेली जिन्दगी के कई अफसाने हैं। एक अफसाना छेड़ो, दूसरा खुद ही चला आता है। एक लेख में न तो उनकी पूरी जिन्दगी आ सकती है और न ही उनके लिखे अदब के साथ इन्साफ हो सकता है।
आने वाली नस्लें तुम पर फख्र करेंगी हम-असरो
जब भी उन को ख्याल आयेगा कि तुम ने ‘फ़िराक़’ को देखा है।
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।