मुल्कराज ने लिखा अंग्रेजी मगर हमेशा रहे भारतीय

पनी 99 साला जिन्दगी में मुल्कराज आनंद ने 100 से ज्यादा किताबें लिखीं। जिनका दुनिया की 22 जबानों में अनुवाद हुआ और यह किताबें सभी जगह सराही गईं। उनकी किताबों का यदि प्रकाशन-क्रम देखें, तो जब से उन्होंने लिखना शुरू किया, तब से लगभग हर साल उनकी कोई न कोई किताब प्रकाशित हुई। 

देश-दुनिया के बड़े लेखकों आर. के. नारायण, सज्जाद जहीर, अहमद अली और राजा राव, ई. एम. फोस्टर, हरबर्ट रीड, हेनरी मिलर, जॉर्ज ऑरवेल से उनके दोस्ताना तआल्लुक रहे। मुल्कराज, प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सदस्य थे। साल 1935 में लंदन में भारतीय प्रगतिशील लेखकों का जब पहला ग्रुप बना, तो उसमें इनका बड़ा रोल था। 

लंदन में रीजैंट स्क्वायर स्थित उनके एक कमरे में इन भारतीय लेखकों की बकायदा मीटिंगें होती थीं। अपने लेखन से वे मुल्क की आजादी में किस तरह का योगदान दे सकते हैं?, इसके बड़े-बड़े मंसूबे बनते थे। आगे चलकर प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणा-पत्र का जो पहला मसैदा बना, उसको तैयार करने में भी मुल्कराज आनंद की बड़ी भूमिका रही।

12 दिसम्बर, 1905 को अविभाजित भारत के पेशावर में जन्मे मुल्कराज की शुरुआती तालीम खालसा कॉलेज, अमृतसर और पंजाब युनिवर्सिटी में हुई। उनकी आगे की तालीम कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी लंदन से हुई, जहां साल 1929 में उन्होंने फिलॉसोफी में पीएचडी की डिग्री हासिल की। पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने ‘लीग ऑफ नेशंस स्कूल ऑफ इंटेलेक्चुअल को-ऑपरेशन’ जिनेवा में अध्यापन किया। 

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सर्वहारा के दुःख-दर्द की बात 

मुल्कराज बीस साल की छोटी उम्र से ही लिखने लगे थे। ‘टू लीव्स एंड अ बड’, ‘द विपेज’, ‘अक्रॉस द ब्लैक वाटर्स’, ‘द सोर्ड एंड द सिकल’, ‘द प्राइवेट लाइफ़ ऑफ़ ऐन इंडियन प्रिंस’ उनकी दीगर अहम किताबें हैं। इन किताबों के अलावा मुल्कराज आनंद ने सात खंडों में ‘सेवन एजेज ऑफ मैन’ (इन्सान की सात उम्रें) शीर्षक से अपनी आत्मकथा भी लिखी है। जो अलग-अलग समय प्रकाशित हुई। 

मुल्कराज को अपने पहले ही नॉवेल ‘अनटचेबल’ से खूब मकबूलियत मिली लेकिन इस उपन्यास को छपवाना, उनके लिए आसान नहीं रहा। उपन्यास के विषय को देखते हुए, कई प्रकाशकों ने इसे छापने से इंकार कर दिया था। आखिरकार इंग्लिश ऑथर ई. एम. फॉर्स्टर की कोशिशों से यह उपन्यास प्रकाशित हुआ। प्रकाशित होते ही इस उपन्यास ने पूरी दुनिया में धूम मचा दी। चौबीस भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। 

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक ने इस उपन्यास की तारीफ की। किताब की प्रस्तावना ई. एम. फॉर्स्टर ने लिखी थी। जिसमें फॉर्स्टर ने लिखा है, “अछूत जैसा उपन्यास कोई भारतीय ही लिख सकता है और वह भी ऐसा भारतीय जिसने अछूतों का भली-भांति अध्ययन किया हो। कोई यूरोपियन भले ही कितना सहृदय क्यों न हो, बक्खा जैसे चरित्र का निर्माण नहीं कर सकता। क्योंकि वह उसकी मुसीबतों को इतनी गहराई से नहीं जान सकता। और कोई अछूत भी इस पुस्तक को नहीं लिख सकता।”

उन्होंने अपने दूसरे उपन्यास ‘कुली’ (1936) में भी सर्वहारा वर्ग के दुःख-दर्द की बात की। उनकी जिन्दगी की दारुण स्थितियों को दिखलाया। वहीं साल 1937 में आए उनके एक और  चर्चित उपन्यास ‘टू लीव्स एंड अ बड’ (एक कली दो पत्तियां) में सर्वहारा वर्ग का नायक, पूंजीवाद से टकराता है। उपन्यास चाय के बागान में काम करने वाले एक पंजाबी मजदूर की दुःखमय कहानी है। जिसका शोषण, बागान का अंग्रेज अफसर करता है। 

‘टू लीव्स एंड अ बड’ भारत के अलावा एक साथ ब्रिटेन और अमेरिका में भी छपा। सभी जगह इसको तारीफ मिली। उपन्यास, मशहूर निर्माता-निर्देशक-लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास को भी पसंद आया। उन्हें इस स्टोरी में भारतीय समाजवाद के उभार का एक पहलू दिखलाई दिया। इस एक नुकते का छोर पकड़कर, अब्बास ने साल 1956 में फिल्म ‘राही’ बनाई। 

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वैश्विक भाईचारे के तरफदार 

डॉ. आनंद एक रिवोल्यूशनरी थे और उनकी यह क्रांतिकारी विचारधारा उनकी रचनाओं में भी झलकती थी। इस ख्याल से उनका नाता ताउम्र रहा। अपने उपन्यास, कहानियों के अलावा दीगर लेखन में भी समाजवाद उनका केंद्रीय बिंदु होता था। वे बड़ी मुखरता से अपनी बात कहते थे। 

साल 1946 में आई किताब ‘अपॉलॉजी फॉर हीरोइज्म’ में उन्होंने सोशलिज्म को इन्सान की हर समस्या का हल बतलाया था। उनके मुताबिक़ सोशलिज्म से ही आर्थिक और राजनैतिक आज़ादी हासिल होगी।

मुल्कराज इन्सानियत और वैश्विक भाईचारे के तरफदार थे। उनके उपन्यास और कहानियों के जो भी किरदार हैं, उनमें एक अलग तरह की जिजीविषा और जीवटता दिखलाई देता है। अन्याय, अत्याचार और गैरबराबरी के खिलाफ वे संघर्ष करते हैं। 

अपने शानदार लेखन की वजह से मुल्कराज आनंद की ख्याति पूरी दुनिया के लेखकों के बीच थी। ब्रितानी लेखक जॉर्ज ऑरवेल तक उनके बड़े प्रशंसक थे। मुल्कराज आनंद की किताब ‘द सोर्ड एंड द सिकल’ (साल 1942) पर अपनी राय रखते हुए ऑरवेल ने कहा था, “आनंद का नॉवेल (भारतीय) सांस्कृतिक जिज्ञासा जगाता है।”

मुल्कराज ने अंग्रेजी में जरूर लिखा, लेकिन वे हमेशा भारतीय बने रहे। अंग्रेज़ी के वे पहले लेखक हैं, जिन्होंने अपने लेखन में पंजाबी और हिन्दी शब्दों का जमकर इस्तेमाल किया। भारतीय जबानों को लेकर उनमें कोई हीनता बोध नहीं था।

चूंकि मुल्कराज की आला तालीम लंदन में हुई और उन्होंने अपनी जिन्दगी का भी काफी वक्त वहां बिताया। लिहाजा लेखन में वे अंग्रेजी जबान में सहज थे। अंग्रेजी को ही उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।

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प्रगतिशील लेखक 

डॉ. मुल्कराज जब तक जिन्दा रहे, ‘प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन’ से उनका गहरा तआल्लुक रहा। इस तंजीम को मुल्क में आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने हर मुमकिन-नामुमकिन काम किया। कलकत्ता में जब प्रगतिशील लेखक संघ की दूसरी अखिल भारतीय कॉन्फ्रेंस हुई, तो आनंद उस वक्त लंदन में थे, लेकिन इस कॉन्फ्रेंस में शामिल होने के लिए वे खास तौर से भारत आए। 

आनंद न सिर्फ कलकत्ता कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष मंडल में शामिल थे, बल्कि उन्होंने कॉन्फ्रेंस में तरक्की पसंद तहरीक की विस्तृत रूपरेखा और उसकी आगामी चुनौतियों पर बहुत शानदार वक्तव्य भी दिया। उनका यह वक्तव्य ‘न्यू इंडियन लिटरेचर’ मैगजीन के पहले अंक में प्रकाशित हुआ।

साल 1939 में लंदन पहुंचने से पहले डॉ. मुल्कराज, स्पेन गए। वहां उन्होंने देखा, किस तरह इंग्लैंड, फ्रांस, तमाम यूरोप एवं अमेरिका के तरक्कीपसंद लेखक और बुद्धिजीवी फासिज्म के खिलाफ लड़ रहे हैं? भारत आते ही उन्होंने यह सब किया भी। 

सज्जाद जहीर लिखते हैं, “उन्होंने भारत के लेखक और बुद्धिजीवियों में यह विद्युत तरंग पैदा करने की कोशिश की, जो उस समय पश्चिमी यूरोप के लेखक-बुद्धिजीवियों के मन में दौड़ रही थी।” जाहिर है कि मुल्कराज आनंद ने यह सारी कवायद, भाग-दौड़ प्रगतिशील लेखक संघ के बैनर पर ही की।

डॉ. आनंद की शख्सियत और उनके पूरे मिजाज को अच्छी तरह से जानना-समझना है, तो उनके खास दोस्त सज्जाद जहीर, इसके लिए मौजू होंगे। अपनी किताब ‘रौशनाई तरक्कीपसंद तहरीक की यादें’ में वे लिखते हैं,

“आनंद स्वभाव से बड़ी जोशीली तबीयत के आदमी हैं। उनकी लेखनी जिस तेजी से चलती है, उससे ज्यादा तेजी के साथ उनकी जबान चलती है। ..एक भारतीय लेखक के लिए इंगलैंड में अंग्रेजी में नॉवेल लिखकर इंग्लैंड की किताबों की मंडी में अपने लिए एक ऊंची जगह बना लेना, आनंद का ही काम था।” 

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मकसदी लेखन 

मुल्कराज का सारा लेखन, मकसदी लेखन है। उन्होंने जो भी लिखा, उसमें हमें कहीं न कहीं एक मकसद दिखलाई देता है। अपने उद्देश्यों के लिए उन्होंने लगातार संघर्ष किया और उसे हासिल भी किया। तमाम संवैधानिक प्रावधानों के बाद भी देश में जो वर्ण व्यवस्था, अस्पृश्यता है, उससे मुल्कराज आनंद को तकलीफ होती थी। 

दलित वर्ग की स्थिति में वे और सुधार एवं उन्हें समानता देने की बात करते थे। इसके लिए वे सामूहिक प्रयास करने की बात करते थे। उन्हें आरक्षण के भी वे हिमायती थे और यह आरक्षण सही तरह से अमल में आए, इसकी भी वकालत करते थे।

मुल्कराज तरक्कीपसंद, जनवादी ख्याल के थे और आखिरी दम तक उनका इस ख्याल में अकीदा रहा। मुल्क में तरक्कीपसंद तहरीक जैसी मुहिम हमेशा चलती रहे, इसके वे हिमायती थे। नई पीढ़ी के लेखकों से उनका कहना था, “अपने लेखन से वे समाज को आगे ले जाएं, उसे एक नई दिशा दें।”

मुल्कराज आनंद एक साथ कई विषयों पर आसानी से लिख लेते थे। वे एक हरफनमौला लेखक थे। उपन्यास भी लिख रहे हैं, किसी विषय पर कोई लेख लिखना है, तो वह भी बीच में लिख दिया। यही नही, कहीं भाषण देने जाना है या किसी व्याख्यानमाला में शिरकत करना है, तो वह भाषण भी तैयार कर लिया।

मुल्कराज आनंद दर्शन और इतिहास के विद्वान थे। भारतीय साहित्य, कला, पुरातत्व और संस्कृति का भी उन्हें खासा ज्ञान था। वी. के. कृष्ण मेनन के साथ उन्होंने इंडिया लीग में काम किया। साल 1965 से लेकर 1970 तक वे ललित कला अकादमी के अध्यक्ष रहे। यही नहीं, साल 1967-68 में इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज, शिमला के विजिटिंग प्रोफेसर रहे। 

उन्होंने ‘मार्ग’ नामक पत्रिका की स्थापना की और ‘कुतुब पब्लिशर्स’ के निदेशक रहे। साहित्य के अलावा मुल्कराज आनंद ने कला, संस्कृति, राजनीति और इतिहास पर भी खूब लिखा। ‘मार्क्स ओर ऐंगल्स इन इंडिया’, टैगोर, नेहरू आदि शख्सियतों के अलावा एसोप्स, केबल्स, कामसूत्र आदि अलग-अलग विषयों पर भी अपनी कलम चलाई।

अपने साहित्यिक लेखन के लिए कई पुरस्कार-सम्मान से नवाजे गए। साल 1972 में उनकी किताब ‘मॉर्निंग फेस’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, तो भारत सरकार ने साल 1967 में मुल्कराज आनंद को उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए ‘पद्म भूषण’ सम्मान से सम्मानित किया गया। 

विश्व शांति परिषद् ने उन्हें ‘अंतरराष्ट्रीय शांति पुरस्कार’ से नवाजा। इतनी विराट शख्सियत होने के बाद भी मुल्कराज आनंद सादा जीवन जीने में यकीन करते थे। अपना आखिरी समय उन्होंने महानगरों के शोरगुल से दूर महाराष्ट्र के खंडाला में बिताया।
जहां का प्राकृतिक वातावरण उन्हें बहुत रास आता था। 28 सितम्बर, 2004 को यह भारतीय लेखक जिसकी अंतरराष्ट्रीय ख्याति थी, 99 साल की उम्र में हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गया।

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