..और गांधी बोले, ‘बनिया हूँ और स्वराज्य हासिल करना मेरा धंधा है’

मुंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की 7 अगस्त, 1942 को बैठक हुई। जिसमें भारत छोडों प्रस्ताव को मंजूरी मिली। इसके बाद महात्मा गांधी ने इसपर विस्तार से अपने विचार रखे। जिसमें उन्होंने कहा, सब लोगों ने इसे सोंच-समझकर स्वीकार करना हैं। उसके साथ उन्होंने आम आदमी को ताकत प्रदान करने वाले लोकतंत्र कि हिमायत  उन्होंने की थी। उनके इस भाषण को गांधी के संपूर्ण वांड्म खंड 76’ से लिया गया हैं। 

ससे पहले कि आप प्रस्ताव (भारत छोड़ो) पर विचार करें, मैं एक-दो बातें आपके सामने रखना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि आप दो बातें बिलकुल साफ-साफ समझ लें और उनपर उसी दृष्टिकोण से विचार करें जिस दृष्टिकोण से मैं उन्हें आपके सामने रख रहा हूँ।

कुछ लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या मैं वही आदमी हूँ जो 1920 में था या मुझमें कोई परिवर्तन हुआ है। आपका यह प्रश्न पूछना ठीक ही है। मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि मैं आज भी वही हूँ जो 1920 में था। फर्क सिर्फ इतना ही है कि कई बातों में मैं 1920 की अपेक्षा बहुत अधिक दृढ़ हो गया हूँ।

इस बात को स्पष्ट करने के लिए मैं कहूँगा कि एक आदमी सर्दीयोंमें तो मोटे-मोटे कपड़े पहनकर निकलता है और उसी आदमी को गर्मियों में देखें तो उसके कपड़े वैसे नहीं होते। इस बाहरी तबदीलीसे उस आदमी में कोई फर्क नहीं आता। कुछ ऐसे लोग है जो शायद कहें कि मैं आज एक बात कहता हूँ और कल दूसरी। लेकिन मैं आपसे कहूँगा कि मुझमें कोई तबदीली नहीं आई है।

मैं अहिंसा के सिद्धान्त पर उसी तरह जमा हुआ हूँ जैसा कि पहले था। यदि आप इससे ऊब चुके हों तो आप बेशक मेरा साथ न दें। इस प्रस्ताव को पास करना न आपके लिए जरूरी है और न आपका कर्तव्य ही है।

यदि आप स्वराज्य और स्वतन्त्रता चाहते है और यदि आप महसूस करते है कि मैं आपके सामने जो कुछ रख रहा हूँ वह अच्छी चीज है और ठीक चीज है, तभी आप इसे स्वीकार करें। सिर्फ इसी तरह आप मेरी पूरी – पूरी मदद कर सकते हैं।

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यदि आप ऐसा नहीं करते तो मैं समझता हूँ कि आपको अपने किये पर पछताना पड़ेगा। यदि कोई आदमी गलती करें और फिर पश्चात्ताप करे तो कोई बड़ी हानि नही होती। परंतु वर्तमान स्थिति में यदि आप गलती करेंगे तो आप देश को भी खतरे में डाल देंगे।

इसलिए मैं कह रहा हूँ यदि आपका पूरा पूरा विश्वास नहीं है तो मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप इस प्रस्ताव को स्वीकार न करें और इसे छोड दे। परंतु यदि आप इसे स्वीकार कर ले और मेरी बात को ठीक तरह न समझे तो हमारा आपस में झगड़ना जरूर होगा, चाहे वह मित्रों का सा झगड़ा हो।

जिस दूसरी बात पर मैं जोर देता चाहता हूँ वह है आपको जिम्मेवारी। अखिल भारतीय को कांग्रेस कमेटी के सदस्य संसद के समान है और ये सारे भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं।

कांग्रेस शुरु से ही किसी खास वर्ग की वा किसी जात वर्ण या जात-पात या किसी खास प्रान्त की नहीं रही है। कांग्रेस ने अपनी स्थापना ने समय से ही दावा किया है कि वह सारे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है। और आपकी तरफ से मैंने दावा किया है कि आप केवल कांग्रेसके पंजीकृत सदस्योंका ही नहीं, बल्कि सारी कौम का प्रतिनिधित्व करते है।

(नरेशों की चर्चा करते हुए महात्मा गांधीने कहा कि ये ब्रिटिश सरकार के बनाये हुये हैं।) उनको उसकी संख्या 600 या कुछ अधिक हो सकती है। जैसा कि आप जानते है, शसकों ने भारतीय भारत और ब्रिटिश भारत के बीच भेद पैदा करने के लिए उन्हें बनाया था। चाहे वह सच ही हो कि ब्रिटिश भारत और भारतीय भारत के हालात में फर्क है। पर देशी रियासत के लोगों के अनुसार कोई ऐसा फर्क है नहीं।

कांग्रेस का दावा है कि वह उनका भी प्रतिनिधित्व करती है। काँग्रेस ने रियासती के बारे में जो नीति अपनाई है वह मेरे कहने से तय की गई थी। उसमें कुछ बदलाव हुआ है, परंतु उसका आधार अब भी वही है। नरेश चाहे कुछ ही क्यों न कहे उनकी प्रजा यही कहेगी कि हम उसो चीजकी मांग करते आये हैं जिसे वह चाहती है।

यदि हम इस संघर्ष को इस ढंग से चलायें जैसे कि मैं चाहता है तो इससे नरेशों को उससे ज्यादा ही मिलेगा जितने की वे (ब्रिटिश सत्ता में) आशा कर सकते हैं। कई नरेशोंसे मेरी भेट हुई है और उन्होंने अपनी विवशता प्रकट करते हुए कहा कि उनकी अपेक्षा अधिक स्वतंत्र है, क्योंकि वे तो अधीश्वरी सत्ता द्वारा पदच्युत किये जा सकते है।

मैं आपसे फिर कहूँगा कि आपको यह प्रस्ताव भी पास करना चाहिए जब आप इसे दिल से ठीक समझे, क्योंकि यदि आप इसे ठीक न समझे तो इसे पास करके आप खतरा मोल ले रहे होंगे।

कमसे – कम सात प्रांतों में हमें शासन चलाने का अवसर मिला। हमने वाकई अच्छा काम करके दिखाया, जिसकी तारिफ बिटिश सरकार ने भी की। स्वतंत्रता प्राप्त करके ही जापका काम खत्म नहीं हो जायेगा। हमारी कार्य-योजना में तानाशाहों के लिए कोई जगह नहीं है। हमारा ध्येय स्वाधीनता प्राप्त करना है और उसके बाद जो भी शासन संभाल सके संभाल ले।

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मुमकीन है आप पारसियों को सत्ता सौपने का फैसला करें। आपको यह नहीं कहना चाहिए कि सत्ता पारसियों को क्यों सोपी जाये? मुमकीन है कि सत्ता उन्हें सौंपी जाये जिनके नाम काँग्रेस में कभी सुने न गये हो।

यह फैसला करना लोगों का काम होगा। आपको यह नहीं सोचना चाहिए कि संघर्ष करनेवालों में अधिक संख्या हिन्दुओंकी थी और मुसलमानों और पारसियोंकी संख्या कम थी। आज़ादी मिलने पर उनकी सारी मानसिकता बदल जायेगी। यदि आपके मन में लेशमात्र भी सांप्रदायिकता की छाप है तो आपको संघर्षों से दूर रहना चाहिए।

ऐसे लोग भी है जिनके दिलों में अंग्रेजों के लिए घृणा है। मैंने लोगों को कहते सुना है कि उन्हें अब वे बिलकुल ही नहीं सुहाते। आम लोगो का दिमाग अंग्रेजी सरकार और अंग्रेज लोगों में भेद नहीं करता। उनकी समझ में तो दोनों एक ही है। वे ऐसे लोग जिन्हें जापानियों का आना नहीं खलेंगा। शायद उनके खयाल से इसका मतलब यही होगा कि एक शासक गया और दूसरा आया।

पर यह खतरनाक बात होगी। आपको यह बात दिलसे निकाल देनी चाहिए। यह एक नाजुक घड़ी है। यदि हम चुप बैठे रहे और हमने अपना कर्तव्य नहीं निभाया हो यह हमारे लिए ठीक नहीं होगा।

अगर ब्रिटेन और अमेरिका को ही यह लड़ाई लड़नी और हमारा काम मात्र रूपये-पैसो की मदद देना ही है- चाहें हम यह मदद खुशी से दें, चाहे हमारी मर्जी के बिना हमसे ली जाये, तो यह ठीक बात नहीं होगी। पर हम अपना असली साहस और बल तभी दिखा सकते जब यह लड़ाई हमारी अपनी लड़ाई हो जाये। तब तो एक बच्चा भी बहादुर बन जायेगा।

हम अपनी आज़ादी लड़कर लेगे। स्वाधीनता आकाश से नहीं टपकेगी। मैं अछी तरह जानता हूँ कि जब हम काफी कुर्बानियाँ करके दिखायेंगे और अपनी ताकत का सबूत देंगे तो अंग्रेजों को हमें स्वतंत्रता देनी ही पड़ेगी। हमें अपने दिलों में अंग्रेजो के प्रति घृणा का भाव निकाल देना चाहिए। कमसे – कम मेरे दिलमें तो उनके लिए घृणा नहीं है।

सच तो यह कि अब मेरे दिलने उनके लिए पहले से कहीं अधिक दोस्ती है। इसका कारण यह है कि इस घड़ी से वे मुसीबत में है। मेरी दोस्ती का तकाजा कि मैं उन्हें उनकी गलतियों से अवगत करा दूं। चूंकि मैं ऐसी स्थिति में नहीं हूँ जिसमें कि ये है, इसलिए में उनकी गलतियां बता सकता हूँ।

मैं जानता हूँ कि ये खाई के कगार पर खड़े हैं और खाई में गिरनेवाले ही है। इसलिए यदि ये मेरे हाथ काट देना चाहे तो भी मेरी मित्रता का तकाजा है कि मैं उन्हें उस खाई से निकालने की कोशिश करुं।

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ऐसा मेरा दावा है। हो सकता है कि बहुत से लोग इसपर हंसे, पर फिर भी में कहूँगा कि मेरा दावा ठीक है। ऐसे समय में, जब कि मैं अपने जीवन का सबसे बड़ा संघर्ष छेड़नेवाला हूं, मेरे दिल में अंग्रेजों के लिए कोई घृणा नही हो सकती। मेरे दिल में ऐसा खयाल बिलकुल नहीं है कि कि में मुश्किल में फंसे हुए है, इसलिए मैं उन्हें धक्का दे दूँ। ऐसा खयाल मेरे दिलमें कभी नहीं रहा।

हो सकता है कि वे गुस्से आकर कभी ऐसी बात कर बैठे जिससे कि आपको तेश आ जाये। फिर भी आपके लिए यह ठीक नहीं होगा कि आप हिंसा पर उतर आये और अहिंसा को बदनाम करें।

जब ऐसी बात होगी तब समझ लिजिए कि में जहाँ भी होऊ, आप मुझे जिन्दा नहीं पायेंगे। मेरे खूनका पाप आपके सिरपर होगा। अगर आप इस बात को नहीं समझते तो बेहतर यही होगा कि आप इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दे ऐसा करना आपकी शोभा देगा।

जो बात आपको समझ में ही न आ सके उसके लिए मैं आपको कैसे दोष दे सकता हूँ? इस लडाई में एक सिद्धान्त है, जो आपको अपनाना होगा। यह न समझिए – जैसे कि मैंने कभी नहीं समझा – कि अंग्रेजोंकी हार होनेवाली है। मैं उन्हें कायरो को कौम नहीं समझता। मैं जानता हूँ कि पेशतर इसके कि वे हार माने, ब्रिटेन का एक – एक व्यक्ति बलिदान हो जायेगा।

मुमकीन हैं कि वे हार जायें और आपको छोड़कर चले जायें – जैसे कि वे बर्मा, मलाया या अन्य देशों के लोगों को छोड़कर चले गये है – इस खयाल से कि जब भी मुमकीन होगा वे हारे हुए इलाके पर फिर कब्जा कर लेंगे। ऐसा करना उनकी समर नीति हो सकती है।

लेकिन फर्ज कीजिए कि वे हमें छोड़कर चले ही जाते हैं। तब हमारा क्या बनेगा, उस सूरत में जापान यहाँ आ जायेगा। जापान के यहाँ आने का मतलब होगा चीन का अन्त और शायद उसका भी अन्त। इस मामलो मे पंडित नेहरू मेरे गुरु है। मैं उस (जापान) की या चीन की हारका सामान नहीं बनना चाहता। यदि बचें तो मुझे अपने – आपसे घृणा हो जायेगी।

आप आनते है कि मैं तेज रफ्तार से चलना चाहता हूँ। लेकिन शायद मैं उतना तेज नहीं चल रहा हो जितना कि आप चाहते हैं कि मैं चलूं। सरदार पटेल ने कहा – बताते है कि शायद हमारा संघर्ष एक सप्ताह में समाप्त हो जाये। मैं जल्दबाजी नहीं करना चाहता। यदि संघर्ष एक सप्ताह के भीतर समाप्त हो जाये तो यह एक चमत्कार होगा। और यदि ऐसा होता है तो इसका मतलब है कि अंग्रेजों का दिल पसीज गया।

हो सकता है कि अंग्रेजों को अकल आ जाये और वे यह बात समझ जायें कि जो लोग उनके लिए लड़ना चाहते उन्हीं को कैद में डालना गलत बात होगी। हो सकता है कि आखिरकार श्री. (मुहंमद अली) जिन्ना के विचार बदले और ये सोचे कि जो लोग लड़ रहे है ये इसी धरती के लाल हैं और अगर वे (श्री. जिन्ना) चुप बैठे रहते है तो उनके लिए पाकिस्तान किस काम का होगा।

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अहिंसा एक अनुपम अस्त्र है, जो हर किसी को मदद पहुँचा सकता है। मैं जानता हूँ कि हमने अहिंसा पर बहुत अमल नहीं किया है, अतः यदि ऐसी तबदिली होती है तो मैं समझुंगा कि यह हमारे पिछले 22 सालों के कोशिशो का परिणाम है और ऐसी तबदीली लाने में ईश्वर ने हमारी मदद की है।

जब मैंने भारत छोड़ोका नारा लगाया था तब भारत के लोगों ने, जो कि निराश हो चुके थे, महसूस किया कि मैंने उनके सामने कोई नई चीज रखी है। अगर आप सच्ची आज़ादी चाहते है तो आपको मेल-जोल पैदा करना होगा। ऐसे मेल-जोलसे ही सच्चा लोकतंत्र पैदा होगा। ऐसा लोकतंत्र जैसा कि पहले देखने में नहीं आया और न ही जिसके लिए पहले कभी कोशिश हो की गई।

मैने फ्रान्सकी क्रांति के बारेमें बहुत कुछ पढ़ा है। कारलाइल के ग्रंथ मैंने जेल मै पढ़े थे। में फ्रान्सीसियों की बहुत तारीफ करता हूँ। पंडित जवाहरलाल ने मुझे रूस के क्रांति के बारे बारे में सब – कुछ बताया है। पर मेरा विचार है कि यद्यपि उनका संघर्ष जनता के लिए था, तो भी वह सघर्ष ऐसे सच्चे लोकतंत्र के लिए नहीं था जिसकी कल्पना मैं करता हूँ। मेरे लोकतंत्र का मतलब है कि हर व्यक्ति अपना मालिक खुद हो।

मैंने काफी इतिहास पढ़ा है और मेरी नजरो से यह बात नहीं गुजरी कि अहिंसा द्वारा लोकतंत्र स्थापित करने का ऐसा प्रयोग इतने बड़े पैमाने पर कभी किया गया हो। अगर आप एक बार इन चीजोंको समझ लें तो आप हिन्दुओं और मुसलमानों के मतभेदो को भूल जायेंगे।

आपके सामने रखे गये प्रस्ताव में कहा गया नि हम कुएँ मेंढक बनकर नहीं रहना चाहते।  हमारा उद्देश्य तो विश्व – संघ की स्थापना है, जिसकी एक प्रमुख इकाई भारत होगा। यह केवल अहिंसा से ही स्थापित हो सकता है।

नि:शस्त्रीकरण तभी मुमकीन है जब आप अहिंसा के अनुपम अस्त्र का प्रयोग करें। कुछ शायद यह कहें कि मैं खयालो की दुनिया में रहता है। पर मैं आपसे कहता हूँ कि मैं असली बनिया हूँ और मेरा धंधा स्वराज्य प्राप्त करना है। व्यवहार कुशल बनिये के रूपमें मेरा कहना है कि यदि आप [अहिंसात्मक आचरण को] पूरी कीमत चुकाने को तैयार हों तो इस प्रस्ताव को पास कीजिए अन्यथा इसे पास मत कीजिए।

अगर आप इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करते तो मुझे कोई अफसोस नहीं होगा। बल्कि में सो खुशी में नाच उठूंगा, क्योंकि तब आप मुझे उस भारी जिम्मेदारी से, जो आप अब मुझे सौंपनेवाले हैं, बचा देंगे।

मैं चाहूंगा कि आप अहिंसा को अपनी नीतिकी तरह अपनाये। मैं तो इसे अपना धर्म समझता हूँ, परंतु यहां तक आपका संबंध है, मैं चाहूंगा कि आप इसे अपनी नीतिके रूप में स्वीकार कर लें। अनुशासनबद्ध सैनिकों की भांति आपको इसे पूर्णतया स्वीकार करना होगा और जब आप संघर्ष में शामिल हों, तब इसपर पूरा आचरण करना होगा। 

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