कार्य समिति के प्रस्ताव (भारत छोड़ो) के प्रकाशित होते ही सारे देश में बिजली की लहर सी दौड़ गई। लोग यह भी न सोच पाये कि इस प्रस्ताव में क्या-क्या बातें निहित हैं, परंतु उन्होंने यह महसूस किया कि काँग्रेस अंग्रेजों को भारत से हटाने के लिए जन-आंदोलन शुरुआत कर रही है।
फौरन ही जनता और सरकार दोनों ही इसकी चर्चा ‘भारत छोड़ो प्रस्ताव’ के रूप में करने लगीं। कार्य – समिति के कुछ सदस्यों की तरह जनता के मन में गांधी जी के नेतृत्व का बेहद यकिन था और वह यह महसूस करती थी कि गाँधी जी के मन में कोई ऐसा आंदोलन है जिससे सरकार का सारा कामकाज ठप्प हो जाएगा तथा सरकार समझौता करने के लिए मजबूर होगी।
यहाँ मैं यह भी कबूल करता हूँ कि ज्यादातर लोग यह समझते थे कि गांधी जी किसी जादू या किसी अतिमानवीय तरीके से भारत को आज़ादी दिला देंगे, इसलिए ऐसे लोग कोई विशेष व्यक्तिगत कोशिश करना भी जरुरी नहीं समझते थे।
इस प्रस्ताव के पास करने के बाद कार्य समिति ने यह फैसला किया कि वह इस बात का इंतजार करेगी कि सरकार की प्रतिक्रिया क्या है। यदि सरकार ने यह मांग कबूल कर ली अथवा कम से कम समझौता करने की प्रवृत्ति दिखाई तो आगामी विचार-विमर्श के लिए गुंजाइश होगी। यदि दूसरी ओर सरकार ने इस मांग को नामंजूर कर दिया तो गांधी जी के नेतृत्व में संघर्ष शुरू कर दिया जाएगा।
मेरे दिल में इस प्रकार का तनिक भी शक नहीं था कि सरकार किसी प्रकार का दबाव होते हुए बातचीत करने से इंकार कर देगी। भविष्य की घटनाओं से यह साबित हो गया कि जो कुछ मैंने सोचा था, वह सही था। विदेशी संवाददाताओं की बहुत बड़ी संख्या वर्धा में आ पहुँची थी क्योंकि वे यह जानने की प्रबल लालसा रखते थे कि कार्य – समिति ने क्या निर्णय लिया है।
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15 जुलाई ने गांधी जी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई। गांधीजी नें एक सवाल के जवाब में कहा कि यदि आंदोलन शुरू हुआ तो यह ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक अहिंसात्मक क्रांति होगी। मैं यह कबूल करता हूँ कि इस पूर्ण स्थिति से मैं खुश नही था। मैंने इस प्रस्ताव का विरोध नही किया जिसमें सिधी कार्यवाही पर जोर दिया गया था, पर मैं इस प्रस्ताव के बारे में ज्यादा आशावान नही था।
जब प्रस्ताव पास हो गया त महादेव देसाई ने मिस स्लेड (जो हिन्दुस्तान में मीरा बेन के नाम से परिचित थीं) से कहा कि वे वाइसराय से जाकर मिलें और उन्हें समझाएँ कि इस प्रस्ताव का आशय क्या है। यह भी सुझाव दिया गया कि इस प्रस्तावित आंदोलन का मिजाज क्या होगा और यह आंदोलन किस प्रकार चलाया जाएगा।
मिस स्लेड वर्धा से चलकर वाइसराय से मिलने गईं और उन्होंने वाइसराय के साथ मुलाकात करने के लिए इजाजत मांगी। वाइसराय के निजी सचिव ने जबाव दिया कि गांधी जी पहले ही घोषित कर चुके हैं कि वे विद्रोह करने का इरादा रखते हैं, ऐसी दशा में वाइसराय मिस स्लेड से भेंटवार्ता करने के लिए तैयार नहीं हैं।
उन्होंने यह साफ़ किया कि (महा) युद्ध के दौरान सरकार कोई भी विद्रोह न सहेगी चाहे वह विद्रोह हिंसात्मक हो अथवा अहिंसात्मक। इसके अतिरिक्त सरकार इस बात के लिए भी तैयार नहीं है कि काँग्रेस संगठन के किसी भी प्रतिनिधि से विचार-विमर्श करे जबकि यह संगठन विद्रोह की बात उठाए।
बाद में मीरा बेन वाइसराय के निजी सचिव से मिलीं और उनके साथ उन्होंने काफ़ी देर तक बातचीत की। उस समय मैं दिल्ली में था और उन्होंने मुझे अपनी बातचीत के बारे में रिपोर्ट दी। उसके फौरन बाद वे फिर वर्धा चली गईं और गांधी जी को भी इस भेटवार्ता के बारे में बताया।
इसके तुरंत बाद महादेव देसाई ने एक वक्तव्य जारी किया जिसमें यह कहा गया था कि गांधी जी के इरादे के बारे में कुछ गलतफ़हमी है। उन्होंने कहा कि यह कहना सही नहीं है कि गांधी जी ने प्रस्तावित आंदोलन को खुली अहिंसात्मक क्रांति बताया है।
मैं यह कबूल करता हूँ कि महादेव देसाई के वक्तव्य ने मुझे हैरत में डाल दिया। हाँलाकि बात यह थी कि जवाहरलाल ने इस जुमलों का इस्तेमाल किया था और उसके बाद गांधी जी ने इन्हीं अलफाजों को बार-बार दोहराया था।
शायद गाँधी जी के मन में इन शब्दों का कोई अलग मतलब रहा होगा, पर आम जनता के लिए उनके जुमले का मतलब था कि काँग्रेस ने अब पक्का इरादा कर लिया है कि वह ब्रिटिश सरकार को सत्ता त्यागने के लिए मजबूर कर देगी और इसके लिए अहिंसात्मक क्रांति के अतिरिक्त अन्य सभी तरीके अपनाएगी।
मैं पहले ही कह चुका हूँ कि मैंने अंदाजा लगा लिया था कि सरकार की प्रतिक्रिया क्या होगी। इसलिए जब वाइसराय ने गाँधी जी या उनके प्रतिनिधि से मिलने से इनकार कर दिया तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ।
इस घटना के दौर में मैंने यह निर्णय किया कि अखिल भारतीय काँग्रेस समिति की एक बैठक बुलाई जाए, जो इस विषय में ज्यादा सोच-विचार करें और यदि जरूरी हो, तो कार्य – समिति के प्रस्ताव का समर्थन करें।
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मैंने यह भी महसूस किया कि इस प्रकार सरकार को सारे हालात पर सोचने का ज्यादा समय मिल जाएगा। आखीर में अखिल भारतीय काँग्रेस समिति की बैठक 7 अगस्त, 1942 को बंबई में बुलाई गई।
14 जुलाई से 5 अगस्त तक मेरा सारा समय काँग्रेस के नेताओं के साथ सलाह-मशवरे में बीता था, जो देश के अलग-अलग भागों से मेरे पास आए थे। मैं उन्हें यह बात समझाता था कि यदि सरकार ने हमारी मांग स्वीकार कर ली अथवा हमें काम करने दिया, तो यह आंदोलन गांधी जी की नीति के अनुसार ही चलाया जाएगा, पर यदि सरकार ने इसका घोर विरोध किया तो देश हर मुमकीन कोशिशों द्वारा सरकार की हिंसा का मुँहतोड़ जवाब देगा।
मेरे सामने जो तस्वीर आई थी उससे यह लगता था कि बंगाल, बिहार, युक्त प्रांत, मध्य प्रांत, बंबई और दिल्ली इस आंदोलन के लिए पूरी तौर पर तैयार हैं और इन प्रांतों में यह आंदोलन सशक्त होगा। अन्य प्रांतों के बारे में यह कहा जा सकता है कि वहाँ इसके लिए माहौल पैदा नहीं हुआ था और मैं कबूल करता हूँ कि मेरे समझ यह तस्वीर ज्यादा साफ न थी।
वाइसराय ने मीराबेन से भेंटवार्ता करने से इनकार कर दिया। अतः गांधी जी ने महसूस किया कि सरकार आसानी से नहीं झुकेगी। उनके दिल में इस बारे में जो यकिन था वह एक बार हिल गया। फिर भी, वे इस यकिन पर अडिग थे कि सरकार कोई भी दमन चक्र नहीं चला सकेगी।
उन्होंने सोचा कि अखिल भारतीय काँग्रेस समिति की बैठक के बाद काफी समय मिलेगा जिसमें इस कार्यक्रम की तैयारी की जा सके और धीरे – धीरे इस आंदोलन की गतिविधि में तीव्रता आती जाएगी। मैं उनके इस आशावाद का समर्थन नहीं कर सका।
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28 जुलाई को मैंने गाँधी जी को एक लंबा खत लिखा जिसमें मैंने कहा कि सरकार ने पूरी तैयारी कर ली है और बंबई में अखिल भारतीय काँग्रेस समिति की बैठक के तुरंत बाद ही वह कार्रवाई करेगी। गांधी जी ने उत्तर दिया कि मुझे जल्दी से निष्कर्ष नहीं निकालने चाहिए। स्वयं भी इस स्थिति का अध्ययन कर रहे थे और उन्हें अब भी विश्वास था कि कोई न कोई रास्ता निकल आएगा।
3 अगस्त को मैं कलकत्ते से बंबई के लिए रवाना हुआ। मुझे बिल्कुल यकिन न था, परंतु मुझे अंदर से एहसास हुआ कि मैं कलकत्ता काफी समय के लिए छोड़ रहा हूँ। मुझे कुछ रिपोर्ट भी मिली थी कि सरकार ने अपनी योजनाएं पुरी कर ली हैं, प्रस्ताव के पास होने के बाद सभी नेताओ को फौरन ही गिरफ्तार करने का सोच लिया गया है।
5 अगस्त को कार्य – समिति की बैठक हुई और उस बैठक में एक प्रस्ताव का मसौदा तैयार किया गया जिसे 7 अगस्त को अखिल भारतीय काँग्रेस समिति के सामने प्रस्तुत किया गया।
मैंने अपने शुरुआती भाषण में समिति की गत बैठक से अब तक की गतिविधियों का सार रूप में विवरण दिया। मैंने कुछ विस्तार से उन कारणो को बताया जिनसे कार्य समिती को अपना रवैय्या बदलना पड़ा और हिंदुस्तान की आज़ादी के लिए संघर्ष छेड़ने हेतु राष्ट्र का आह्वान करना पड़ा।
मैंने यह बताया कि राष्ट्र निष्क्रिय होकर नहीं बैठ सकता, जबकि उसका भाग्य अधर में लटका हुआ है। हिन्दुस्तान लोकतंत्रात्मक देशों का साथ देना चाहता है पर ब्रिटिश सरकार ने उसे सम्माननीय सहयोग न देकर इस हालात को नामुमकीन बना दिया है।
जापान के हमले का शक है, अतः राष्ट्र ने दुश्मन से सामना करने के लिए शक्ति का संचय किया है। यदि ब्रिटिश लोग चाहें तो हिन्दुस्तान छोड़ सकते हैं, जैसे कि, वे सिंगापुर, मलाया और बर्मा छोड़ चुके हैं। हिन्दुस्तान के लोग अपना देश नहीं छोड़ सकते, अतः उन्हें ब्रिटिश लोगों को हिलाने के लिए अपनी शक्ति का संचय करना है और किसी भी नए हमलावर के आक्रमण को रोकने के लिए तैयार होना है।
ऐसे कुछ साम्यवादी थे जिन्होंने इस प्रस्ताव का विरोध किया अन्यथा अखिल भारतीय काँग्रेस समिति के अन्य सभी सदस्यों ने कार्य – समिति के प्रस्ताव का स्वागत किया। गांधी जी ने भी इस बैठक में अपना भाषण दिया और इस विषय पर दो दिन तक सोच-विचार चलता रहा और आखिर में 8 अगस्त की शाम के समय ‘भारत छोड़ो’ का ऐतिहासिक प्रस्ताव पास हुआ।
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