मार्क्स ने 1857 के विद्रोह कि तुलना फ्रान्सीसी क्रांति से की थीं

जगविख्यात दार्शनिक तथा अर्थशास्त्री कार्ल मार्क्स ने गुलाम भारत को लेकर लोगों द्वारा क्रांति कि भविष्यवाणी की थी। अंग्रजों के खिलाफ 1857 के बगावत पर उन्होंने न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून मे कई लेख लिखे थें।

उन लेखों में भारतीय सैन्यों द्वारा किए गए विद्रोह को मार्क्स ने क्रांति कहा था। आगे चलकर इस विद्रोह ने केवल ब्रिटिश इंडिया ही नही बल्कि समूचे ब्रिटेन साम्राज्य के नींव को हिलाकर रख दिया। प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब की मार्क्स और उनके भारत के दृष्टिकोण की चर्चा हम दे रहे हैं। जो सहमत द्वारा प्रकाशित पुस्तिका से लिया गया हैं।

भारत को पहली बार 1959 में कार्ल मार्क्स के 1857 के विद्रोह पर किए गए विस्तृत लेखन का पता चला था। यह उस समय हुआ जब मास्को से आई एक किताब में, जिसे द फर्स्ट इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस का नाम दिया गया था, मार्क्स के सभी संबंधित लेखों को संकलित किया गया था।

इस विद्रोह का मार्क्स ने जो चरित्रांकन किया वाकई इस विद्रोह की हमारी समझ के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसमें विश्व इतिहास की एक घटना के रूप में इस विद्रोह की समझ भी शामिल है और हमारे अतीत के एक महत्वपूर्ण हिस्से के तौर पर उसकी समझ भी।

मार्क्स ने लिखा था, “मौजूदा भारतीय गड़बड़ी (महज) एक फौजी बगावत नहीं है बल्कि एक राष्ट्रीय विद्रोह हैं। सिपाही उसके औजारों की ही भूमिका अदा कर रहे हैं।

मार्क्स ने इस विद्रोह की तुलना 1789 की महान फ्रान्सिसी क्रांति से की थी, “फ्रान्सीसी राजशाही पर पहला प्रहार कुलीन वर्ग की ओर से ही आया था न कि किसानों की ओर से। (इसी तरह) भारतीय विद्रोह रैयतो से शुरू नहीं हुआ था, जिन्हें अंग्रेजों ने यातनाएं दी थी, अपमानित किया था और नंगा कर के छोड़ा था बल्कि सिपाहियों से आया था

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जिन्हें अंग्रेजो ने वर्दी से सजाया था, खिलाया था, दुलराया था, तगड़ा किया था और सिर चढाया था। लेकिन एक बार जब विद्रोह शुरू हो गया, अंग्रेजी के अलग-थलग पड़ने की बुनियादी सचाई इस सत्य से तय हो रही थी कि उन किसानों की सदभावनाओं का अभाव था।

बहरहाल किसानों से आगे भी भूमिधर अधिपति थे। उनके बीच ही असंतुष्ट थे और अवध के ताल्लुकेदारों की तरह उन्होंने, “बागी सिपाही से हाथ मिला लिया था। मार्क्स यह स्पष्ट करते हैं कि, “जहां तक (आमतौर पर) भारतीयों की उदासीनता या ब्रिटिश शासन के प्रति उनकी सहानुभूति के दावों का सवाल है, यह सब बकवास है।

इस आम समर्थन के चलते ही इस विद्रोह ने इतना विशाल रूप लिया था कि अंग्रेज, “क्रांति के सागर के बीच अलग-थलग चट्टानों पर ब छोटी-छोटी चौकियोंके रूप में सीमित होकर रह गए थे। एक क्रांति’ 1857 के विद्रोह के लिए यह शब्द कितना उपयुक्त है। यह दूसरी बात कि मार्क्स को इसका एहसास था, जिसका जिक्र उन्होंने अन्यत्र किया। था कि यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि एक भारतीय क्रांति युरोपीय क्रांति के लक्षणों से संपन्न होगी।

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सबसे बड़ा विद्रोह 

यह सिर्फ एक सशस्त्र विद्रोह ही नहीं था, हालांकि यह भारत में पैमाने का इकलौता सशस्त्र विद्रोह था। लेकिन, यह उससे ज्यादा भी था। यह 19वीं सदी का सारी दुनिया का सबसे बड़ा उपनिदेश – विरोधी विद्रोह था। अगर हम समूची उन्नीसवीं सदी पर नजर डालेंगे, दुनिया भर में हुई उपनिवेशविरोधी क्रांतियों के बीच हमें, लॅटिनी अमरीका की सफल उपनिवेशविरोधी क्रांतियां दिखाई देंगी।

फिर भी हमें ऐसी कोई दूसरी उपनिवेशविरोधी क्रांति दिखाई नहीं देती है, जो दूर-दूर तक इस भारतीय क्रांति के पैमाने के आसपास भी आती हो। महान बोलीवार के नेतृत्व सशस्त्र क्रांतिकारी सक्रिय तो रहे थे, लेकिन उनकी संख्या कभी भी कुछ हज़ार सशस्त्र सैनिकों से ज्यादा की नहीं थी।

दूसरी ओर यहां भारत में, बंगाल आर्मी के सवा लाख सिपाहियों सशस्त्र बगावत की थी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार बंगाल आर्मी में सवा लाख से ऊपर देसी या नेटिवसिपाही थे। ब्रिटिश संसद में 1858 में गई रिपोर्ट के अनुसार इनमें से करीब सात हजार ही अंग्रेजों के प्रति बफादार बने रहे थे। इस तरह, पूरे सवा लाख सैनिकों ने बगावत की थी।

हम उस सेना की बात कर रहे हैं जो उस समय में एशिया की सबसे आधुनिक सेना थी और समुद्रपारीय ब्रिटिश साम्राज्य की सबसे बड़ी सेना थी। जहां तक संबंधित विद्रोही इलाके में बसी आबादी के अनुपात का सवाल है, आज के भारतीय संघ की आबादी के करीब 30 फीसद के बराबर हिस्सा इस क्षेत्र में आता था।

इस तरह हम इस विद्रोह के पैमाने पर किसी भी पहल से विचार क्यों न करे, 1857 की बगावत भारतीय इतिहास की ही एक प्रमुख घटना नहीं थी, आधुनिक विश्व इतिहास की भी एक बड़ी घटना थी।

क्रांतियां अक्सर खुद शासक वर्ग द्वारा पैदा की गई परिस्थितियों में ही फूटती हैं। बंगाल आर्मी, जो कि जैसा मार्क्स ने भी दर्ज किया था ब्रिटिश राज की चहेती संतान थी, अगर बागी हुई थी तो ऐसा एक हद तक ब्रिटिश औपनिवेशिक विस्तार के एक नये चरण, मुक्त व्यापार के साम्राज्य के कारण हुआ था, जिसने इस समूची सेना पर अभूतपूर्व दवाब डाला था। 

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