देश में मुख्यधारा के मीडिया में स्थापित पत्रकारिता संस्थानों, प्रतिष्ठित अखबारों और कुछ हद तक टीवी चैनलों का नाम आता है।
मीडिया के नये तरीके, जैसे वेबसाइट्स, ऐप्स आदि को मुख्यधारा का मीडिया अभी नहीं माना जाता है क्योंकि किसी अखबार या चैनल की तरह उनका अस्तित्व मूर्तरूप में नहीं दिखता है, हालांकि इसमें से कई की काफी अच्छी मौजूदगी है। देश में द वायर और स्क्रॉल जैसी वेबसाइट करीब एक दशक से चल रही हैं और उनकी पाठक संख्या भी अच्छी खासी है।
फिर भी इन नये सूचना माध्यमों के पास रिपोर्टिंग के वह संसाधन नहीं है जो मुख्यधारा के स्थापित माध्यमों के पास हैं। या फिर ऐसा कह सकते हैं कि जिन क्षेत्रों के बारे में मुख्यधारा ने रिपोर्टिंग करना बंद कर दिया वहां यह माध्यम अभी नहीं पहुंच पा रहे हैं।
मुख्यरूप से भारत में मीडिया को पैसा विज्ञापन के जरिए मिलता है। पाठक या दर्शक बहुत कम पैसा खर्च करते हैं और हमारे हां तो अखबारों की कीमत दुनिया भर में सबसे कम है। लेकिन अब विज्ञापन और समाचार पत्रों का प्रकाशन कम हो रहा है।
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घट रहा हैं राजस्व
2019 में पहली बार डिजिटल विज्ञापनों ने अखबारों में प्रकाशित विज्ञापनों को पछाड़ दिया। 2019 में जहां डिजिटल माध्यमों को कुल विज्ञापन राजस्व का 27 फीसदी हिस्सा मिला, वहीं अखबारों के हिस्से में ये सिर्फ 22 फीसदी ही रहा।
टीवी अब भी नंबर एक पर है और उसे कुल विज्ञापन राजस्व का 43 फीसदी हिस्सा हाथ लगा। हालांकि अब इस साल टीवी और अखबार दोनों का विज्ञापन राजस्व नीचे आने की संभावना है। कोरोना संकट ने इस प्रक्रिया को और तेज कर दिया है।
हमें एक बात समझनी होगी कि डिजिटल का अर्थ सिर्फ गूगल और फेसबुक है क्योंकि भारत में विज्ञापन राजस्व का सबसे बड़ा हिस्सा इन्हीं के हाथ लगता है और यह देश के दो बड़े अखबार समूह टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स से अधिक कमाई करते हैं। यह प्रक्रिया जारी ही रहने की संभावना है और अखबारों की हिस्सेदारी विज्ञापन में कम होना शुरु हो चुकी है। यह ऐसा बदलाव है जो हमारे सामने हो रहा है।
एक और बदलाव मीडिया में हो रहा है जिसे हम सब अपनी आंखों के सामने देख सकते हैं, वह है मुख्यधारा के मीडिया द्वारा बहुसंख्यकवाद या हिंदुत्व की तरफदारी करना। आखिर यह बहुसंख्यकवाद या हिंदुत्व है क्या?
यह वह विचार है जिसमें माना जाता है कि समाज का एक वर्ग विशिष्ट होते हुये सभी सुविधाओं का हकदार है और वह सबसे ऊपर है। संवाद के तौर पर बाकी वर्गों को इस वर्ग की दया पर रहना होगा या फिर जुल्म सहना होगा।
जाहिर है ये बदलाव राजनीतिक भाषा और विमर्श से उपजा है। कांग्रेस के सत्ता शासन दौर में आप उससे सहमत हों या न हो, उसकी भाषा और भाव समावेशी रहता था। वह किसी पृष्ठभूमि या किसी अन्य आधार पर भारतीयों को बांटने का काम नहीं करती थी।
लेकिन बीजेपी का तो अस्तित्व ही इस बार पर टिका है कि वह लोगों को विभाजन के आधार पर उकसाने में कामयाब रही। वैसे इसमें और किसी अन्य पार्टी में कोई खास फर्क नहीं है, बस इतना है कि वह खुलकर खुद को कट्टर और काफी हद तक धर्मांध स्वीकारती है।
वह दुनिया भर में कोरोना वायरस फैलने के लिए किसी एक धर्म को जिम्मेदार ठहरा सकती है। लेकिन एक खास धर्म के लोग अगर उसी तरह की हरकत करते हैं तो वह उसे अनदेखा कर देती है।
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श्लोकों से स्वागत
मीडिया भी शासन के कई पैमानों पर सरकार की नाकामी की अनदेखी कर रही है। दुश्मन ने हमारी जमीन का वह टुकड़ा हड़प लिया जिसकी रक्षा करते हुए 1962 में करीब 3000 भारतीय सैनिक शहीद हुये थे। लेकिन हम हमारे लड़ाकू विमानों का स्वागत श्लोकों से कर रहे हैं। क्या हम मानें कि इन लड़ाकू विमानों का इस्तेमाल हमारी जमीन से घुसपैठियों के खदेड़ने के लिए किया जाएगा? बात सिर्फ इतनी है कि ये विमान भारत पहुंच गए हैं।
31 जुलाई (शनिवार) को खबर सामने आई कि जुलाई 2020 में मनरेगा के तहत काम मांगने वालों की संख्या 70 फीसदी बढ़ी है। यह पिछले साल के मुकाबले कहीं अधिक है। इस महीने में कम से कम 3 करोड़ परिवारों ने मनरेगा के तहत काम मांगा। यानी कम से कम 15 करोड़ भारतीय इस योजना पर आश्रित हैं।
एक और खबर थी कि सरकार कर्ज न चुकाने वालों के लिए राहत की योजना बना रही है। कंपनियों को कहा गया है कि वह कार, घर या पर्सनल लोन जैसे मीयादी कर्ज पर ली जाने वाली किस्तों में छूट दे दें और इस दौरान का ब्याज लेकर कुछ महीनों बाद इसकी भरपाई कर लें।
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गिरावट का दौर
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन कहती हैं कि ऐसा करना इसलिए जरूरी है। क्योंकि लॉकडाउन के चार महीने बाद भी कुछ क्षेत्रों की हालत खराब है और इन क्षेत्रों ने ऐसी मांग की है। क्योंकि वे समय से कर्मचारियों को पैसा नहीं दे पा रहे हैं।
देश में ऑटोमोबाइल और मोटरसाइकिल की बिक्री पिछले करीब 18-19 महीने से गिरावट का दौर देख रही है। कमर्शियल वाहनों की बिक्री तो 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद से संभली ही नहीं है। इसका अर्थ तो यही है कि देश का औद्योगिक विकास बुरी तरह प्रभावित है और बुरे हाल में है।
लेकिन मीडिया का फोकस सिर्फ एक व्यक्ति (अभिनेता सुशांत सिंह) की आत्महत्या पर है। इस मामले में भी पीएमओ द्वारा ईडी का दुरुपयोग किसी के लिए कोई चिंता की बात नहीं है। कहानी सिर्फ इतनी बना दी जा रही है कि फिल्म इंडस्ट्री पर किसी एक धर्म के लोगों का कब्जा हो गया है।
एक दशक पहले हालांकि इस किस्म की भावना महसूस की जाने लगी थी, लेकिन इसे व्यक्त करने में लोगों ने संकोच किया क्योंकि हमारी संस्कृति ऐसी है जो संविधान के मूल्यों का आदर करती है। वे मूल्य जो बताते हैं कि भारत एक विविध और सेकुलर राष्ट्र है। लेकिन आज की राजनीति और मुख्यधारा के मीडिया में यह संस्कृति खत्म हो चुकी है।
सभार : नवजीवन
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लेखक राजनीतिक विश्लेषक और एमनेस्टी इंटरनेशनल के पूर्व संचालक (भारत) हैं।