जंग-ए-आज़ादी में सबसे अव्वल ‘इन्क़लाब ज़िन्दाबाद’ का जोशीला नारा बुलंद करना और मुल्क मुकम्मल आज़ादी (संपूर्ण स्वराज) की मांग, महज ये दो बातें ही मौलाना हसरत मोहानी की बावकार हस्ती को बयां करने के लिए काफी हैं। वरना उनकी शख्सियत से जुड़े ऐसे अनेक किस्से और हैरतअंगेज कारनामे हैं, जो उन्हें जंग-ए-आज़ादी के पूरे दौर और फिर आज़ाद हिंदोस्तां में उन्हें अजीम बनाते हैं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उनके बारे में कहा था, “मुसलमान समाज के तीन रत्न हैं और मुझे लगता है कि इन तीनों में मोहानी साहब सबसे महान हैं।” वे एक ही वक्त में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सहाफी, एडिटर, शायर, काँग्रेसी, मुस्लिम लीगी, कम्युनिस्ट थे। उन्होंने अपने लिए जो भी काम चुना या अपने सिर कोई जिम्मेदारी ली, उसे दिल से निभाया। उस काम में अपनी छाप छोड़ी।
अपना सा शौक़ औरों में लाएँ कहाँ से हम
घबरा गए हैं बे-दिली-ए-हमरहाँ से हम
कुछ ऐसी दूर भी तो नहीं मंज़िल-ए-मुराद
लेकिन ये जब कि छूट चलें कारवाँ से हम।
14 अक्तूबर, 1878 को उन्नाव (उत्तर प्रदेश) के मोहान में एक जागीरदार परिवार में जन्मे मौलाना हसरत मोहानी का वास्तविक नाम सय्यद फ़ज़ल-उल-हसन था। मोहान कस्बे में पैदा होने की वजह से उनके नाम के पीछे मोहानी लग गया और बाद में ’हसरत मोहानी’ के नाम से ही मशहूर हो गए।
उनकी शुरूआती तालीम घर पर ही हुई। पढ़ने-लिखने का उन्हें बेहद शौक था। यही वजह है कि सभी क्लासों में वे अव्वल नंबर पर रहे। उन्नाव की डौडिया खेड़ा के राजा राव रामबक्श सिंह की शहादत का उनके दिलो दिमाग पर ऐसा असर पड़ा कि वे छात्र जीवन से ही आज़ादी के आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे।
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पढ़ाई के साथ आज़ादी की तहरीक में
आला तालीम के लिए जब मौलाना हसरत मोहानी का दाखिला अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हुआ, तो एक नई जिन्दगी उनका इंतजार कर रही थी। एक तरफ वतनपरस्तों की टोली थी, दूसरा ग्रुप खुदी में मस्त था, देश-दुनिया के मसलों से उनका कोई साबका नहीं था।
मोहानी अपनी फितरत के मुताबिक वतनपरस्तों के ग्रुप में शामिल हो गए। सज्जाद हैदर यल्दरम, क़ाज़ी तलम्मुज़ हुसैन और अबु मुहंमद जैसी बेमिसाल शख्सियत उनके दोस्तों में शामिल थीं। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उस वक्त आज़ादी के हीरो के तौर पर उभरे मौलाना मुहंमद अली जौहर और मौलाना शौकत अली से भी उनका वास्ता रहा।
हसरत मोहानी, पढ़ाई के साथ-साथ आज़ादी की तहरीक में हिस्सा लेने लगे। जहां भी कोई आंदोलन होता, वे उसमें पेश-पेश रहते। अपनी इंकलाबी विचारधारा और आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लेने की वजह से कई बार वे कॉलेज से निष्कासित हुए, लेकिन आज़ादी के जानिब उनका जुनून और दीवानगी कम नहीं हुई।
पढ़ाई पूरी करने के बाद, वे नौकरी चुनकर एक अच्छी जिन्दगी बसर कर सकते थे, मगर उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना। पत्रकारिता और कलम की अहमियत को पहचाना और साल 1903 में अलीगढ़ से ही एक सियासी-अदबी रिसाला (पत्रिका) ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ निकाला। जिसमें अंग्रेजी हुकूमत की नीतियों की कड़ी आलोचना की जाती थी।
इस रिसाले में हसरत मोहानी ने हमेशा आज़ादी पसंदों के लेखों, इंकलाबी शायरों की क्रांतिकारी गजलों-नज्मों को तरजीह दी, जिसकी वजह से वे अंग्रेज सरकार की आंखों में खटकने लगे। साल 1907 में अपने एक मज़मून में उन्होंने सरकार की तीखी आलोचना कर दी। जिसके एवज में उन्हें जेल जाना पड़ा और सजा, दो साल क़ैद बामशक़्क़त !
जिसमें उनसे रोज़ाना एक मन गेहूँ पिसवाया जाता था। क़ैद के हालात में ही उन्होंने अपना यह मशहूर शे’र कहा था,
है मश्क़-ए-सुख़न जारी, चक्की की मशक़्क़त भी
इक तुर्फ़ा तमाशा है शायर की तबीयत भी।
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तीन राजनैतिक दलों के सदस्य
मोहानी ने इस दरमियान साल 1904 के आसपास भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की मेंबरशिप भी ले ली। अब वे काँग्रेस की गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे। वैचारिक स्तर पर वे काँग्रेस के ‘गर्म दल’ के ज्यादा करीब थे। बाल गंगाधर तिलक के विचारों से उनका ज्यादा लगाव था।
काँग्रेस के ‘नर्म दल’ के लीडरों की नीतियों से वे रजामंद नहीं थे। वक्त पड़ने पर वे इन नीतियों की काँग्रेस के मंच और अपनी पत्रिका ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ में सख्त नुक्ताचीनी (आलोचना) भी करते। साल 1907 में काँग्रेस के सूरत अधिवेशन में बाल गंगाधर तिलक काँग्रेस से जुदा हुए, तो वे भी उनके साथ अलग हो गए। यह बात अलग है कि बाद में वे फिर काँग्रेस के साथ हो लिए।
साल 1921 में हसरत मोहानी ने ना सिर्फ ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ नारा दिया, बल्कि अहमदाबाद में हुए काँग्रेस संमेलन में ’आज़ादी ए कामिल’ यानी पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव भी रखा। काँग्रेस की उस ऐतिहासिक बैठक में क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक़उल्ला खान के साथ-साथ कई और क्रांतिकारी भी मौजूद थे।
महात्मा गांधी ने इस प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया। बावजूद इसके हसरत मोहानी ‘पूर्ण स्वराज्य’ का नारा बुलंद करते रहे और आखिकार यह प्रस्ताव, साल 1929 में पारित भी हुआ। नेहरू के इस प्रस्ताव को गांधीजी ने स्वीकार कर लिया।
इसी तरह भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद समेत तमाम क्रांतिकारियों ने आगे चलकर हसरत मोहानी के नारे ‘इंकलाब जिंदाबाद’ की अहमियत समझी और देखते-देखते यह नारा आज़ादी की लड़ाई में मकबूल हो गया। एक समय देश भर में बच्चे-बच्चे की जबान पर यह नारा था।
यह बात भी बहुत कम लोग जानते होंगे कि महात्मा गांधी को स्वदेशी आंदोलन की राह मोहानी ने ही सुझाई थी। खुद उन्होंने भी इसका खूब प्रचार-प्रसार किया। यहां तक कि एक खादी भण्डार भी खोला, जो कि बहुत मकबूल हुआ था।
इस दरमियान अपनी क्रांतिकारी और साहसिक सरगर्मियों के लिए मोहानी दो बार साल 1914 और 1922 में भी जेल गए। लेकिन उन्होंने अपना हौसला नहीं खोया। वे जेल से सजा काटकर वापिस आते और फिर उसी जोश और जज्बे से अपने काम में लग जाते। अंग्रेज हुकूमत का कोई जोर-जुल्म उन पर असर नहीं डाल पाता था।
न सूरत कहीं शादमानी की देखी
बहुत सैर दुनिया-ए-फ़ानी की देखी।
साल 1925 में मोहानी का झुकाव कम्युनिज़्म की तरफ़ हो गया। यहां तक कि ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया’ के पहले संमेलन की नींव उन्होंने ही रखी। साल 1926 में कानपुर में हुई पहली कम्युनिस्ट कॉन्फ्रेंस में मोहानी ने ही स्वागत भाषण पढ़ा। जिसमें उन्होंने पूर्ण आज़ादी, सोवियत रिपब्लिक की तर्ज़ पर स्वराज की स्थापना और स्वराज स्थापित होने तक काश्तकारों और मज़दूरों के कल्याण और भलाई पर ज़ोर दिया।
बावजूद इसके मोहानी के व्यक्तित्व में कई विरोधाभास थे। एक तरफ वे ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया’ की कायमगी में पेश-पेश रहे, तो दूसरी ओर ‘ऑल इंडिया मुस्लिम लीग’ और ‘जमीयत उलेमा ए हिंद’ के भी संस्थापक सदस्य रहे। यहां तक कि मुस्लिम लीग के एक अधिवेशन की अध्यक्षता की और आज़ादी से पहले मुस्लिम लीग के टिकट पर असेंबली चुनाव भी जीते।
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क़ौमी एकता के सिपाही
‘मुस्लिम लीग’ में रहे, लेकिन उसके द्विराष्ट्रीय सिद्धान्त का विरोध किया। यहां तक कि पाकिस्तान बनने के विरोध में खड़े हो गए और जब बँटवारा हुआ, पाकिस्तान जाने से साफ मना कर दिया। पांचों वक्त के नमाजी और परहेजगार थे, मगर भगवान कृष्ण के भी मुरीद थे।
मोहानी, हिंदुस्तानी तहजीब के एक बड़े और सच्चे मुहाफ़िज़ थे। रंगों के पर्व ‘होली’ पर भी उनकी एक नज्म है। जिसमें वे कृष्ण भक्ति में लिखते हैं,
मोहे छेड़ करत नंद लाल
लिए ठाड़े अबीर गुलाल
ढीठ भई जिन की बरजोरी
औरां पर रंग डाल-डाल।
मोहानी, क़ौमी एकता के सच्चे सिपाही थे और उन्होंने हमेशा अपने अदब और मजमून में हिंदू-मुस्लिम इत्तेहाद की बात की।
बचपन से शायरी का शौक
मोहानी को बचपन से ही शायरी का बड़ा शौक था। मशहूर शायर तसलीम लखनवी और नसीम देहलवी जैसे शायर उनके उस्ताद थे। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में तालीम के दौरान ही वे ‘शे’र-ओ-सुख़न’ की महफ़िलों में हिस्सा लेने लगे थे।
साल 1902 में कॉलेज के जलसे में मोहानी ने अपनी मसनवी ‘मुशायरा शोरा-ए-क़दीम दर आलम-ए-ख़याल’ सुनाई, जिसे खूब पसंद किया गया। उस जलसे में फ़ानी बदायुंनी, मीर मेहदी मजरूह, अमीर उल्लाह तस्लीम जैसे आला दर्जे के शायर मौजूद थे।
स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी और पत्रकारिता की वजह से अदब के लिए उन्हें बेहद कम समय मिलता था। लेकिन जो भी वक्त मिलता, वे अदब की तख्लीक करते। अपने रिसाले ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ के ज़रिये उन्होंने अवाम को ना सिर्फ बहुत से गुमनाम शायरों से वाकिफ कराया, बल्कि समकालीन शायरी का रिश्ता क्लासिकी अदब से भी जोड़ा।
मोहानी, फारसी और अरबी जबान के बड़े विद्वान थे। उनका अध्ययन भी बड़ा व्यापक था। उन्होंने अपने पूर्वज शायरों को खूब पढ़ा और उनसे फ़ैज़ भी उठाया। इस बात का जिक्र उन्होंने खुद अपने एक शे’र में किया है,
ग़ालिब-ओ-मुसहफ़ी-ओ-मीर-ओ-नसीम-ओ-मोमिन
तबा-ए-‘हसरत’ ने उठाया है हर उस्ताद से फ़ैज़।
लेकिन इसके ये मायने नहीं हैं कि मोहानी की खुद की कोई पहचान नहीं थी। उनके कलाम में अपना ही एक रंग है, जो सबसे जुदा है। हुस्न-ओ-इश्क में डूबी उनकी गजलें, हमें एक अलग हसरत मोहानी से तआरुफ कराती हैं। मिसाल के तौर यहां बिख़री उनकी गजलों के कुछ अश्आर नजर करें।
मोहानी की ऐसी और भी कई गजलें हैं, जो आज भी बेहद मकबूल हैं। खास तौर पर उनकी गजल,‘‘चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है’’ तो जैसे उनकी पहचान है।
उन्होंने अपनी जिन्दगानी में 13 दीवान संकलित किए और हर दीवान पर ख़ुद ही प्रस्तावना लिखी। उनके अशआर की तादाद भी तक़रीबन सात हज़ार है। जिनमें से आधे से ज़्यादा उन्होंने जेल की क़ैद में लिखे हैं। उनकी लिखी कुछ खास किताबें ‘कुलियात-ए-हसरत’, ’शरहे कलामे ग़ालिब’, ’नुकाते सुखन’, ’मसुशाहदाते ज़िन्दां’ (आत्मचरित्रपर) हैं।
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सासंद रहते वीआईपी सहूलियत नहीं ली
मोहानी को किसी भी तरह की औपचारिकता, बनावट और पाखंडपूर्ण बर्ताव से नफरत थी। किसी भी बात की परवाह किए बिना वे सच कहने से नहीं हिचकिचाते थे।
दिल को ख़याल-ए-यार ने मख़्मूर कर दिया
साग़र को रंग-ए-बादा ने पुर-नूर कर दिया।
एक बार जो फैसला उन्होंने कर लिया, वे उस पर आखिर तक अटल रहते थे। आज़ादी के बाद भी वे लगातार मुल्क की खिदमत करते रहे। संविधान बनाने वाली कमेटी में मोहानी शामिल थे। संविधान सभा के मेंबर और संसद सदस्य रहते, उन्होंने कभी वीआईपी सहूलियतें नहीं लीं। यहां तक कि वे संसद से तनख्वाह या कोई भी सरकारी सहूलियत नहीं लेते थे।
सादगी इस कदर कि ट्रेन के थर्ड क्लास और शहर के अंदर तांगे पर सफ़र करते थे। छोटा सा मकान उनका आशियाना था। दिल्ली में जब भी संविधान सभा की बैठक में आते, तो एक मस्जिद में उनका क़याम होता। मोहानी की जिंदगानी से जुड़ा एक और दिलचस्प वाकिया है, जो उनके उसूल पसंद होने को दर्शाता है।
मोहानी, संविधान सभा के एक अदद ऐसे मेम्बर थे, जिन्होंने संविधान पर अपने दस्तखत नहीं किये, और वो इसलिए कि उन्हें लगता था कि देश के संविधान में मजदूरों और किसानों की हुकूमत आने का कोई ठोस सबूत नहीं है। 13 मई, 1951 को मुल्क के इस जांबाज सिपाही, आज़ादी के मतवाले मौलाना हसरत मोहानी ने दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।
क़िस्मत-ए-शौक़ आज़मा न सके
उन से हम आँख भी मिला न सके।
जाते जाते :
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।