महात्मा गांधी ने विनोबा को चुना था ‘पहला सत्याग्रही’

विनोबा भावे मशहूर भूदान आंदोलनके लिए जाने जाते हैं। इस आंदोलन से उनकी पहचान जनमानस में स्थापित हो गई। विनोबा महान जंग ए आज़ादी के सेनानी औऱ सामाजिक कार्यकर्ता थे। वे गांधी के परम अनुयायी भी थे। साल 1940 में महात्मा गांधी ने उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ सत्याग्रह आंदोलन के हले सत्याग्रही के रूप में चुना था

11 सितम्बर 1895 को कोकण के एक गांव में जन्मे विनोबा साल 1958 में कम्यूनिटी लीडरशीप के लिए अंतरराष्ट्रीय रेमन मैगसेसे पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले भारतीय थे। देश के प्रति उनके कार्यों के चलते वर्ष 1983 में सरकार ने उन्हें भारतरत्न से सम्मानित किया। आज उनका जन्मदिन हैं, इस मौके पर हम गांधीजी द्वारा उन पर लिखा गया आलेख दे रहे हैं। – संपादक

[श्री. विनोबा भावे कौन हैं? मैंने उन्हें ही इस सत्याग्रह के लिए क्यों चुना? और किसी को क्यों नहीं? मेरे हिन्दोस्ताँ लौटने पर सन 1916 में उन्होंने कॉलेज छोड़ा था। वे संस्कृत के पंडित हैं। उन्होंने आश्रम में शुरु में ही प्रवेश किया था। आश्रम के सबसे पहले सदस्यों में से वे एक हैं।

अपने संस्कृत के अध्ययन को आगे बढ़ाने के लिए वे एक साल की छुट्टी लेकर चले गए। एक साल के बाद ठीक उसी घड़ी, जबकि उन्होंने एक साल पहले आश्रम छोड़ा था, चुपचाप आश्रम में फिर आ पहुंचे। मैं तो भूल भी गया था कि उन्हें उस दिन आश्रम में वापस पहुंचना था। वे आश्रम में सब प्रकार की सेवा-प्रवृत्तियों-रसोई से लगाकर पाखाना सफाई तक में हिस्सा ले चुके हैं।

उनकी स्मरणशक्ति आश्चर्य-जनक हैं। वे स्वभाव से ही अध्ययनशील हैं। पर अपने समय का ज्यादा हिस्सा वे सूत कातने में ही लगाते है, और उसमें ऐसे निष्णात हो गए हैं कि बहुत ही कम लोग उनकी तुलना में रखे जा सकते हैं। उनका विश्वास है कि व्यापक कताई को सारे कार्यक्रम का केंद्र बनाने से ही गांवों की गरीबी दूर हो सकती है।

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स्वभाव से ही शिक्षक होने के कारण उन्होंने श्रीमती आशादेवी को दस्तकारी के द्वारा बुनियादी तालीम की योजना का विकास करने में बहुत योगदान दिया है। श्री विनोबा ने कताई को बुनियादी दस्तकारी मानकर एक पुस्तक भी लिखी है। वह बिलकुल मौलिक चीज है।

उन्होंने हंसी उड़ानेवालों को भी यह सिद्ध करके दिखा दिया है कि कताई एक ऐसी अच्छी दस्तकारी है कि जिसका उपयोग बुनियादी तालीम में बखूबी किया जा सकता है। तकली कातने में तो उन्होंने क्रांति ही ला दी है और उसके अंदर छिपी हुई तमाम शक्तियों को खोज निकाला है। हिन्दोस्ताँ में हाथकताई में इतनी संपूर्णता किसीने प्राप्त नहीं की जितनी कि उन्होंने की है।

उनके हृदय में छुआछूत की गंध तक नहीं हैं। सांप्रदायिक एकता में उनका उतना ही विश्वास है जितना कि मेरा। इस्लाम धर्म की खूबियों को समझने के लिए उन्होंने एक साल तक कुरआन शरीफ का मूल अरबी में अध्ययन किया। इसके लिए उन्होंने अरबी भी सीखी। अपने पड़ोसी मुसलमान भाइयों से अपना सजीव संपर्क बनाए रखने के लिए उन्होंने इसे आवश्यक समझा।

उनके पास उनके शिष्यों और कार्यकर्ताओं का एक ऐसा दल है जो उनके इशारे पर हर तरह का बलिदान करने को तैयार है। एक युवक ने अपना जीवन कोढ़ियों की सेवा में लगा दिया है। उसे इस काम के लिए तैयार करने का श्रेय श्री विनोबा को ही है।

औषधियों का कुछ भी ज्ञान न होने पर भी अपने कार्य में अटल श्रद्धा होने के कारण उसने कुष्ठरोग की चिकित्सा को पूरी तरह समझ लिया है। उसने उनकी सेवा के लिए कई चिकित्साघर खुलवा दिए। उसके परिश्रम से सैकड़ों कोढ़ी अच्छे हो गए हैं। हाल ही में उसने कुष्ठ-रोगियोंके इलाज के संबंध एक पुस्तिका मराठी में लिखी है।

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विनोबा कई सालों तक वर्धा के महिला-आश्रम के संचालक भी रहे हैं। दरिद्रनारायण की सेवा-प्रेम उन्हें वर्धा के एक गांव में खींच ले गया। अब तो वे वर्धा से पांच मील दूर पवनार नामक गांव में जा बसे हैं और वहां से उन्होंने अपने तैयार किए हुए शिष्यों के द्वारा गांव वालों के साथ संपर्क स्थापित कर लिया है।

वे मानते हैं कि हिन्दोस्ताँ के लिए राजनैतिक स्वतंत्रताजरुरी है। वे इतिहास के निष्पक्ष विद्वान हैं। उनका विश्वास है कि गांव वालों को रचनात्मक कार्यक्रम के बगैर सच्ची आज़ादी नहीं मिल सकती। और रचनात्मक कार्यक्रम का केंद्र है खादी।

उनका विश्वास है कि चरखा अहिंसा का बहुत ही उपयुक्त बाह्य चिह्न है, उनके जीवन का तो वह एक अंग ही बन गया है। उन्होंने पिछली सत्याग्रह की लड़ाइयों में सक्रिय भाग लिया था। वे राजनीतिके मंच पर कभी लोगों के सामने आए ही नहीं।

कई साथियों की तरह उनका यह विश्वास है कि सविनय आज्ञाभंग के अनुसंधान में शांत रचनात्मक काम कहीं ज्यादा प्रभावकारी होता है, इसकी अपेक्षा कि जहां आगे ही राजनैतिक भाषणों का अखंड प्रवाह चल रहा है वहां जाकर और भाषण दिए जाए।

उनका पूर्ण विश्वास है कि चरखे में हार्दिक श्रद्धा रखे बिना और रचनात्मक कार्य में सक्रिय भाग लिए बगैर अहिंसक प्रतिकार संभव नहीं। श्री विनोबा युद्धमात्र के विरोधी हैं; परंतु वे अपनी अंतरात्मा की तरह उन दूसरों की अंतरात्मा का भी उतना ही आदर करते हैं जो युद्धमात्र के विरोधी तो नहीं है, परंतु जिनकी अंतरात्मा इस वर्तमान युद्ध में शरीक होने की अनुमति नहीं देती।

अगरचे श्री विनोबा दोनों दलों के प्रतिनिधि के तौर पर हैं, यह हो सकता है कि सिर्फ हाल के इस युद्ध में विरोध करने वाले दल का खास एक और प्रतिनिधि चुनने की मुझे आवश्यकता लगे।

हरिजन-सेवक

मो. क. गांधी]

(25 दिसम्बर 1940 को महात्मा गांधी द्वारा हरिजन में लिखा यह आलेख, संपूर्ण गांधी वाङ्मय खंड-72 से लिया गया हैं।)

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