राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत के अवशेष हमारे गौरवमयी ऐतिहासिक चिन्ह स्वरूप, पांडुलिपियों में मौजूद हैं। यह अमूल्य धरोहर हमारी सभ्यता, संस्कृति तथा समाज के उत्थान और उन्नति की प्रतीक हैं।
आदिकाल से जब मनुष्य ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए लिखना अथवा चित्र बनाना शुरु किया, उसने कई तरह की सामग्री का इस्तेमाल किया। लेखन हेतु सामग्री में सबसे पहले पत्थर तथा मिट्टी से बनी ईटों का इस्तेमाल किया। इसके अतिरिक्त लकड़ी की तख्तियों का भी उपयोग किया गया।
ईसा से पूर्व पार्चमेट का उपयोग मिस्त्र, अरब तथा यूरोप के देशों में अधिक हुआ। जबकि एशियाई देशों में चौथी और पांचवी शताब्दी के शुरू में पेड़ो से प्राप्त ताड़ पत्र (पाम लीफ) तथा भोजपत्र (बर्च बार्क) लिखने के काम में आये। कागज के अविष्कार के साथ इन सामग्रियों का उपयोग कम होता गया।
चौदहवीं शताब्दी से कागज बनाने तक उसके उपयोग की गति तेज हुई। लिखाई के लिए जितना अधिक कागज का इस्तेमाल हुआ, उतना किसी और सामग्री का नही हुआ। और इसका प्रयोग आज भी बहुत ज्यादा हो रहा है।
लेखन सामग्री में स्याही का भी अपना महत्व है क्योंकि यह लिखाई का अभिन्न अंग रही है। कार्बन के साथ अनेक रंगों की स्याही लिखने के काम आयी और आज भी आ रही है। स्याही की गुणवत्ता पांडुलिपि की लिखाई के लिये अपना महत्व रखती है।
पांडुलिपियों में उपयोग की गयी लेखन सामग्री मूल रूप से कार्बनिक है और इसीलिए समय के साथ-साथ उनमे रसायनिक बदलाव होते रहते है। यही परिवर्तन उनके खराबी के कारण बनते है। इसके अतिरिक्त वातावरण के बदलते वायुमण्डल, तापमान, सापेक्षिक आर्द्रता (रिलेटिव ह्यूमिडिटी), प्रदूषण तथा जैविक कारक के नष्ट होने के कारण है।
वास्तव में जब से पांडुलिपि की सामग्री बनती है, उसी समय से वातावरणीय प्रभाव के कारण खराब होना शुरू हो जाती है।
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पांडुलिपियों की हैंडलिंग
प्राचीन तथा दुर्लभ ग्रन्थों, पांडुलिपियों इत्यादि के सुचारू वैज्ञानिक ढंग से रखरखाव के लिए और भविष्य में उनको उचित ढंग से इस्तेमाल करने के लिए यह आवश्यक है कि उन विविध सामग्रियाँ जो कि उनके सूजन के काम आयी है, का विश्लेषणात्मक परीक्षण करके उनके ह्रास को रोककर विभिन्न विधियों का उपयोग करके हम जीर्ण-शीर्ण और क्षतिग्रस्त पांडुलिपियों का वैज्ञानिक संरक्षण करके उनको स्थायी रख रखाव के लिए उपयुक्त बना सकते है।
पांडुलिपियों में प्रयुक्त कागज रसायनिक रूप से सेल्यूलोज है जो कि कार्बनिक रसायन है। सेल्यूलोज का रेशा लचीला तथा नमी लिए रहता है और सोखने के गुण से संयुक्त होता है। अम्लीय अथवा क्षारीय रसायन अधिक मात्रा में होने पर सेल्यूलोज के रेशों का लचीलापन कम होता है और यही कागज के खराबी का कारण बनता है।
(1) दोनों हाथों का प्रयोग कर के सावधानी पूर्वक पकड़ कर हैंडिल करें। (2) पांडुलिपियों को एक स्थान से दूसरे स्थल ले जाने के लिए सदैव ट्रे या सख्त सपोर्ट का प्रयोग करें। (3) अच्छे प्रकार के डिब्बों में पैक कर पांडुलिपियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाएं।
परीक्षण एवं डाक्यूमेंटेशन : (1) पृष्ठों को खोलने के लिए पानी या थूक का प्रयोग न करें। (2) साफ सुथरे हाथों का प्रयोग करें। (3) उचित प्रकाश व्यवस्था हो। (4) आवश्यक उपकरण, सामग्री और पेंसिल, रबर व नोट बुक रखें।
लेबेलिंग : (1) उचित प्रायोगिक विधि का अनुसरण करें तथा पांडुलिपि पर सीधे लिखें। (2) लोहे की पिनों का प्रयोग पृष्ठों को लेबल लगाने के लिए न करें।
खुले पृष्ठों का रखना : (1) एक आकार के पृष्ठों को एक साथ रखें। (2) पृष्ठों को उचित आकार के बाक्स में रखें जिससे वे ज्यादा हिले व डुले नहीं। (3) अकेले पृष्ठों को टिशू पेपर में लपेट कर रखें।
जिल्द पांडुलिपियों का रखना : (1) एक ही आकार की जिल्दबन्द पांडुलिपियों को एक साथ रखें। (2) एक के ऊपर एक से ज्यादा पांडुलिपियों को न रखें।
प्रदर्शन : (1) पांडुलिपियों को नीचे उचित सपोर्ट रख कर प्रदर्शित करें। (2) प्रदर्शन केस के अन्दर प्रकाश व्यवस्था न करें अगर करनी हो तो उचित रूप से तथा उचित दूरी पर करें। (3) पांडुलिपियों के पृष्ठों को समय समय पर बदलते रहें। (4) 50 लक्स से कम तीव्रता तथा पराबैंगनी रहित ही प्रकाश का प्रयोग करें।
(5) पांडुलिपियों का निर्माण विभिन्न उद्देश्य से विभिन्न व्यक्तियों द्वारा किया जता है तथा उपयोग की गयी सामग्री विभिन्न गुणवत्ता की होती हैं जिसमें संरक्षण की प्रक्रिया एक ही तरह से नहीं की जा सकती हैं जिस हेतु विशेष प्रशिक्षित कन्जरवेटरों की आवश्यकता होती है। उन्ही के पर्यवेक्षण में संरक्षण की प्रतिक्रियायें करायी जानी चाहिए।
पांडुलिपियों के संरक्षण या उपचार करने से निम्न बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए।
(1) संरक्षण के कारण उसके मूलरूप पर कोई प्रभाव न पड़े। (2) संरक्षित की गई पांडुलिपियों को आसानी से पढ़ा जा सके। (3) लिखाई पर कोई भी प्रभाव न पड़े। (4) संरक्षण में प्रयुक्त विधि रिवर्सिबिल होनी चाहिए। (5) संरक्षण हेतु प्रयोग में लायी गई सामग्री का किसी भी प्रकार का प्रभाव पांडुलिपियों पर न पड़े। (6) संरक्षण हेतु प्रयोग लायी गई सामग्री ड्यूरेबल तथा मूल सामग्री या उसके समकक्ष होनी चाहिए।
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वैज्ञानिक संरक्षण
पांडुलिपियों को क्षति पहुंचाने वाले कारक निम्नलिखित हैं जिस कारण पांडुलिपियां समय के साथ क्षतिग्रस्त होती है। (1) ताप (2) नमी (3) प्रकाश (4) जैवीय कारक फफूंदी, दीमक, कीड़े, मकोड़े, चूहा आदि। (5) धूल और मिट्टी (6) वातावरणीय प्रदूषण (7) अनुचित रखरखाव।
(8) मानवीय आपदा- युद्ध, लापरवाही, चरमपंथ, धार्मिक उन्माद, चोरी आदि। (9) अनुचित एवं सस्ती सामग्री के कारण। (10) वायु का उचित आवागमन का न होना।
पांडुलिपियों की हिफाजत वैज्ञानिक रूप से दो तरह से करते हैं- क्यूरेटिव संरक्षण तथा दूसरा निरोधात्मक संरक्षण हैं जिसमें क्षति ग्रस्त या खराब हो चुकी पांडुलिपियों को क्यूरेटिव संरक्षण के द्वारा उपचारित करते है तथा क्षतिग्रस्त या खराब होने से बचाने के लिए निरोधात्मक संरक्षण (प्रिवेन्टिव कन्जर्वशन) करते है।
ताप व नमी से बचाव : अत्याधिक ताप व नमी के कारण पांडुलिपियों के खराब होने का खतरा बहुत ज्यादा रहता है। अतः पांडुलिपियों को रखे जाने वाले कमरों का तापमान व नमी की मात्रा एक समान रखे जाने की कोशिश की जानी चाहिये।
आदर्श तापमान 20-25 डिग्री सेल्सियसतथा सापेक्षित आर्द्रता 45-45 प्रतिशत होनी चाहिये। अगर एअर कन्डिशन का प्रयोग किया जाये तब अत्यधिक नमी को सिलिका जेल की सहायता से कम किया जा सकता है। कमरे में हवा का आवागमन अच्छी तरह का होना चाहिये।
अगर पांडुलिपियां किसी कारण से भीग जाये तो उन्हे सीधे धूप में न सुखा कर साये में सुखाना चाहिये। नमी की मात्रा 35 प्रतिशत से नीचे नहीं होना चाहिय नही तो कागज नमी की कमी के कारण कमजोर हो जायेगा और नष्ट हो जायेगा। आर्द्रता तथा तापमान थर्मो हाइग्रोग्राफ तथा इलेक्ट्रानिक हाइग्रोमीटर से मापन किया जा सकता है।
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प्रकाश से बचाव
पांडुलिपियों को सीधे सूर्य के प्रकाश में तथा बिजली के बल्बों के पास सीधे नही रखना चाहिये। प्रकाश की तीव्रता 40 लक्स से ज्यादा नही होना चाहिये। बिजली के बल्बों को पांडुलिपियों से उचित दूरी पर रखा जाना चाहिये क्योकि इन में पराबैंगनी किरणें होती है जिनसे पांडुलिपियां खराब हो जाती है।
प्रकाश की तीव्रता का मापन लक्समीटर से किया जा सकता है। प्रकाश की पराबैंगनी किरणों से बचने के लिए पर्दे तथा खिड़कियों पर पराबैंगनी फिल्टर एवं जिंग ऑक्साइड या टिटेनियम आक्साइड का दीवारों पर पेन्ट के रूप में प्रयोग करना चाहिये। जब प्रयोग न हो तो बल्बों को बन्द कर देना चाहिये या पांडुलिपियों को ढक देना चाहिये।
कीड़ो, फफूंदी तथा चूहो आदि से बचाव : अत्याधिक नमी वाले तथा अन्धेरे स्थान पर कीड़े तथा फफूंदी के प्रकोप का ज्यादा खतरा रहता है अत: उनसे बचना चाहिये। पांडुलिपियों का नियमित रूप से पैरा – डाईक्लोरोंबेंजीन या थायमल की सहायता से धूमीकरण करते रहना चाहिए।
नई पांडुलिपियों को अपने संग्रह में शामिल करने से पहले उनका धूमीकरण जरूर करें। संग्रह वाले स्थान पर खाना आदि का प्रयोग न करें। क्योकि कीड़े खाने की ओर आकर्षित होते है। संग्रह वाले स्थान को पूरी तरह साफ सुथरा रखे।
कीड़ों से बचाव के लिये कीटनाशक दवाओं या नैप्थलीन की आधा किलो वजन वाली ब्रिक्स को कपड़े में लपेट कर कुछ दूरी पर रखना चाहिये। अच्छी किस्म की लकड़ियों की ही अल्मारियों का प्रयोग करें तथा उनमें नियमित रूप से कीटनाशक दवाओं का प्रयोग करते रहें।
चूहों से बचाव के लिये चूहेदानी का प्रयोग करें। चूहेदानी का स्थान हमेशा बदलते रहना चाहिये और उसमें रखा दाना भी ताजा होना चाहिये साथ ही बाहर की ओर जाने वाली नालियों, छेद, खिड़की, दरवाजों के छेद को भी जाली या सीमेंट लगा कर बन्द कर देना चाहिये।
धूल व वातावरणीय प्रदूषण से बचाव : पांडुलिपियों को धूल व प्रदूषण वाले स्थान से बचा कर रखना चाहिये। धूल के कारण उन्हे बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाता है अत: अपने संग्रह को हर नये मौसम से पहले नियमित रूप से साफ करें।
सफाई के लिये झाड़न का प्रयोग न करें बल्कि चौड़े व मुलायम ब्रुश से व धीमी गति से धूल के कण को अन्दर से बाहर की ओर निकालना चाहिये। पांडुलिपियों को बन्द अल्मारियों में ही रखना चाहिये तथा कमरे को नियमित रूप से गीले पोछे तथा दरवाजें पर डोर- मेट का प्रयोग में लाया जाना चाहिये।
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उचित रखरखाव
अल्मारियों को दीवारों से कम से कम 15 इंच दूरी तथा नीचे का शैल्फ कम से कम 8 इंच ऊपर होना चाहिये। धूम्रपान का प्रयोग इन स्थानों पर पूरी तरह प्रतिबन्धित करना चाहिये। पांडुलिपियों को हमेशा स्टार्च निकाल कर उसे सूती लाल या पीले कपड़ो में लपैट कर रखना चाहिये।
इसके अतिरिक्त बिना जिल्द की पांडुलिपियों को एसिड फ्री माउण्ट बोर्ड में या हैंडमेड पेपर में लपेट कर रखना चाहिए। बोर्ड का आकार पांडुलिपियो से थोड़ा बड़ा रखे। पांडुलिपियों को और अधिक सुरक्षित रखने हेतु ऐसिड फ्री माउण्ट बोर्ड के बाक्सों में रखना चाहिये।
पारंपरिक तरीकों से बचाव : पांडुलिपियों के रखरखाव की प्राचीन पद्धतियों का प्रयोग उनकी सुरक्षा के लिये किया जा सकता है। इसके लिये सदियों से प्रयोग की जा रही साये मे सूखी नीम की पत्तियों, मार पंख, सांप की केंचुल, हल्दी पाउडर, अजवाईन तथा लोंग का तेल प्रयोग कर हम अपने संग्रह को कीड़े आदि से बचा सकते हैं।
इसके अतिरिक्त इमली के बीज को भून कर पीस कर पोटली बना कर अल्मारी में रखकर या कोनो में छिड़क देना चाहिये जिसें खाकर कीड़े वापस चले जाते है।
अन्त में कहना उचित होगा कि वर्तमान की जड़े अतीत में होती है। उस अतीत को जनाने के लिए पांडुलिपियाँ एक माध्यम है जिसमें हमारी शताब्दियां, प्राचीन इतिहास धरोहर, विरासत एवं परम्परा रची बसी चली आ रही है।
पांडुलिपियां राष्ट्र की अमूल्य धरोहर हैं और उनका समुचित संरक्षण (कन्जर्वेशन) हमारी सभ्यता का प्रतीक हैं अत: इन पांडुलिपियों को आने वाली पीढ़ियों के लिये सहेजना हम सबका कर्तव्य है। आइए आप और हम सब मिलकर इन अनमोल एवं बेशकीमती धरोहरों को वैज्ञानिक विधि से संरक्षित करने प्रतिज्ञा करें।
(यह फीड रामपूर रज़ा लाइब्रेरी से मिला मिला हैं, जिसे हमनें संपादकीय संस्कार के साथ प्रकाशित किया हैं। जो दिनेश कुमार वर्मा, उपाधीक्षक पुरातत्व रसायनज्ञ, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा लिखा गया हैं।)
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