जब अपने दोस्त जगन्नाथ के हाथों काटे गये क्रांति योद्धा अहमदुल्लाह

1787 में एक साधारण परिवार में जन्मे सिकंदर शाह को हम अहमदुल्लाह शाह मौलाना के नाम से जानते हैं। उनके पिता मूल रूप से हरदोई के रहने वाले थे और अर्काट के नवाब के कारिंदे थे। बाद में वे हैदर अली की फ़ौज में सिपाही रहे थे।

बड़े होने पर बेटे ने इस्लाम का अध्ययन किया और युद्ध विद्या में भी प्रवीणता प्राप्त की। समय पर उसने हज भी किया। वापस आकर हाजी मौलाना ग्वालियर के एक सूफी पीर के मुरीद हो गये और आततायी ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ने कि कसम ली

मौलाना थोड़े गर्म मिजाज के इन्सान थे। उनका मानना था कि देश की आज़ादी के लिए लड़ कर जीतना जरूरी है। इसके लिए सभी साथियों को अनुशासित होना चाहिए।

आप अपने मकसद और जुनून के साथ दिल्ली, लख़नऊ, पटना, शाहजहाँपुर और कलकत्ता के लोगों में इंकलाब की अलख जगाते रहे।

उन्होंने इंकलाब के नाम के पर्चे बांटे जिनमें अपना मकसद साफ किया, लोगों से अपेक्षा बताई, जरूरत के अनुसार नाम बदले और इस प्रक्रिया में जल्दी ही फिरंगी सरकार की निगाह में आ गये।

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क्रांति की लहर

ईसवीं सन 1857 की क्रांति की जड़ें बैरकपुर में थीं। यह मेरठ के असामयिक विद्रोह के माध्यम से संयुक्त प्रांत के कई गाँवों, कस्बों और शहरों में पहुँची।

इस विशाल प्रदेश के दूरस्थ इलाकों में वह कैसे पैठ बना पाई, यह कम लोग ही जानते हैं। दरअसल, यह यह इन मौलाना और उनके जैसे कुछ जुनूनी लोगों का ही कमाल था। इसी दौरान जब मौलाना फैजाबाद पहुंचे तो तब तक अवध अंग्रेजों के कब्जे में जा चुका था।

मौलाना ने लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया और अपने अगले गंतव्य पटना में गिरफ्तार कर लिए गए। उन पर देशद्रोह का केस लगा और मौत की सजा सुनाई गई, लेकिन उनकी किस्मत में अभी देश की सेवा करना लिखा था।

उनकी कोशिशें रंग लाईं और सभी जगह यह ग़दर अपने व्यापक स्वरूप में भड़क उठी। ऐसे में उनके साथियों ने उस छावनी पर हमला किया जहां उनको कैद कर रखा गया था और उन्हें छुड़ा ले गये।

वहां से मौलाना फिर से लख़नऊ गये, जहाँ बेगम हज़रत महल अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रही थी। वह बेगम के खास लेफ्टिनेंट बन गये। लख़नऊ उस समय तक अंग्रेजों के कब्जे में था। मौलाना और बरकत अली अवध की फ़ौज के सिपहसालार बनाये गये।

उन्होंने ब्रिटिश फौजों पर रणनीति के अनुसार हमला किया। इस धुँआधार आक्रमण में अंग्रेजों की पराजय हुई। उन्हें लख़नऊ से अपना कब्जा छोड़ना पड़ा। तमाम बर्तानी अधिकारियों और उनके परिवारों को लख़नऊ रेजिडेंसी में कैद कर लिया गया।

अवध के इस जीत के बाद बेगम हज़रत महल और वाजिद शाह के कम उम्र बेटे बिरजीस कदर को अवध का नवाब बनाया गया। मौलाना ने लगातार लख़नऊ, फैजाबाद और शाहजहाँपुर के लोगों को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करने का जज्बा और जूनून बनाये रखा।

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मौलवी की रणनीति

मौलाना को अवध के इस दरबार में उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप ओहदा दिया जाना प्रस्तावित किया गया था। पर उन्होंने विनम्रतापूर्वक इसे क़ुबूल करने से इन्कार दिया। उनका कहना था कि उनका मकसद आज़ाद अवध नहीं बल्कि आज़ाद हिंदुस्तान था।

अब उन्होंने साथियों के साथ शाहजहांपुर की तरफ कूच किया, वहां नाना साहिब और खान बहादुर खान के साथ बरेली और शाहजहाँपुर के पास डेरा डाला।

उधर लख़नऊ में अंग्रेजों ने ब्रिटेन से इस उद्देश्य के साथ ही आये जनरल कॉलेज कैंपबेल के नेतृत्व में विद्रोहियों के खिलाफ बड़ा हमला कर दिया ब्रिटिश सेना को कड़ा मुकाबला मिला

परंतु एक तो भारतीय पक्ष के लोग कम थे, दूसरे उनके पास हथियारों का पर्याप्त जखीरा नहीं था, तीसरे वह पूरी तरह से तैयार भी नहीं थे। इसलिए अंततः उनकी पराजय हुई ब्रिटिश पक्ष ने खोया हुआ अवध और लख़नऊ वापस ले लिया।

अब जनरल कॉलिन कैम्पबेल की समझ में आया कि इस अवध और लख़नऊ कि उनकी पूर्व में हुई हार का कारण सिर्फ मौलाना की रणनीति और उसका युद्ध रहा था अतः उन्होंने अब उन मौलाना को ढूंढना प्रारंभ किया। उन्हें मालूम चला कि वह शाहजहांपुर में मौजूद है।

राजा जगन्नाथ में इतनी भी हिम्मत न थी कि सामने से आकर सिपाहियों के साथ मौलाना को गिरफ्तार कर सकता इसलिए अंदर से बिन बताये फायर करवा दिया गया।

कैंपबेल द्वारा लख़नऊ का पतन किए जाने के बाद मौलाना अपने सैनिकों के साथ लख़नऊ छोड़ने वाला अंतिम योद्धा था। मौलवी साहब ने अंत में अपने 1200 साथियों की हथियारबंद टुकड़ी के साथ शाहजहाँपुर की ओर रुख किया था। तब उनको जिंदा या मुर्दा पकड़ने पर पचास हजार रुपयों का इनाम रखा गया था।

उधर मौलाना ने शाहजहाँपुर पर चढ़ाई करके अंग्रेज ब्रिगेडियर जॉन को वहां से भागने पर मजबूर कर दिया था। 20 मई को कैम्पबेल ने पीछा कर शाहजहाँपुर पर चढ़ाई की।

पूरी रात की जंग के बाद जब अंग्रेज फ़ौज ने शहर को चारों तरफ से घेर लिए तो मौलाना ने नाना साहिब के साथ शहर छोड़ दिया। कॉलिन कैम्पबेल ने खुद मौलाना का पीछा किया लेकिन वह उसकी पकड़ से बाहर रहे।

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दोस्त से मिली मौत कि सौगात

मौलाना ने वहां से निकलने के बाद पोवायाँ की ओर रुख किया जो नगर से लगभग 30 किमी दूर एक राजपूत रियासत थी।

वहां के राजा जगन्नाथ सिंह उन दिनों मौलाना के खास मित्र हुआ करते थे। मौलाना उनसे सक्रिय मदद की अपेक्षा करते थे, इसलिए उनके पास पहुंचे और हाथी पर सवार किले के गेट के सामने खड़े होकर अंदर आने की कोशिश की, लेकिन मौलाना इस नये तथ्य से अनभिज्ञ थे कि दोस्त की नज़र कुछ और थी।

मौलाना पर पचास हज़ार चांदी के सिक्कों का इनाम एक आकर्षक प्रस्ताव था, जिनका लालच मित्र के लिए दोस्ती की कीमत से ज्यादा हो गया। मित्र राजा ने निहत्थे मौलाना पर तोप से फायर करा दिया।

यह फायर राजा के कहने पर उनके भाई ने किये थे। मौलाना अगले ही पल कटे वृक्ष की तरह जमीन पर आ गिरे। यह पांच जून सन 1858 की घटना है।

बाद में राजा का वही भाई उनका सिर काट कर ब्रिटिश हुकूमत की शान में शाहजहाँपुर ले गया। उन्हें बदले में चांदी के पांच हजार पौंड कीमत के सिक्के मिले और सारी उम्र के लिए अंग्रेजों की हमदर्दी भी।

आसपास के लोगों में हुकूमत की पहुँच के प्रति खौफ पैदा करने के लिए अगले दिन मौलाना का सर कोतवाली पर टांग दिया गया।

उनकी मौत को आँखों से देखने वाले शायर फजले हक खैराबादी लिखते हैं कि, “राजा जगन्नाथ में इतनी भी हिम्मत न थी कि सामने से आकर सिपाहियों के साथ मौलाना को गिरफ्तार कर सकता इसलिए अंदर से बिन बताये फायर करवा दिया गया।

ब्रिटेन के चर्चित इतिहासकार जी बी मेल्सन, जिन्होंने सन 1857 की क्रांति पर छह खंडों में विस्तार से इतिहास लिखा, ने इस प्रसंग के विषय में यूँ लिखा है,

वो अकेला ही था जिसने कैम्पबेल को दो बार आमने-सामने से चैलेंज किया और हराया भी। वो अकेला ही था जिसने सही मायनों में अंग्रेजों से जंग लड़ी, वरना कोई अपने राज के लिए लड़ा तो कोई अपने धर्म के लिए और किसी ने अपने लिए अपनों से ही गद्दारी की।

और इस प्रकार फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्ला शाह मौलाना की मौत हो गई। एक देशभक्त, एक ऐसा व्यक्ति, जो अपने देश के लिए, स्वतंत्रता के लिए और जमीन के लिए लड़ा, धोखे से मारा गया। निश्चित रूप से, मौलवी एक सच्चे देशभक्त थे।

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राजा को ब्रिटिशों से मिली सहुलते

शाहजहाँपुर के पोवायाँ के यह राजा जगन्नाथ सिंह उन राजा उदय सिंह के वंशज थे, जिन्होंने सन 1705 में पठानों को परास्त कर अपना राजघराना स्थापित किया था और पोवायाँ में एक सुदृढ़ किला बनाया था। एक समय में यह रूहेलखंड का सबसे बड़ा और सम्मानित राजपूत घराना माना जाता था।

इस द्रोहपूर्ण घटना के इनाम के रूप में ब्रिटिश हुकूमत ने इन राजा और उनके वंशजों को कभी असुविधा नहीं होने दी, न उन पर पालिसी ऑफ़ लेप्सलागू की, और न उन्हें राजा लिखने से रोका।

कहते हैं कि एक समय में पोवायाँ के राजा के अधीन आसपास के 537 गाँवों की रियाया और जमीन आती थी। परंतु राजा जगन्नाथ के एक द्रोही कृत्य ने इस वंश की जो इज्जत मिटटी में मिलाई, अभी तक एक उसका जवाब देते नहीं बनता है।

दुखद यह भी था कि मौलवी की हत्या करने के बाद राजा जगन्नाथ सिंह का भाई उनके कटे हुए सिर को रक्त रंजित अवस्था में लेकर सीधे शाहजहांपुर के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के बंगले पर जा पहुंचा। यह वह समय था जब कलेक्टर साहब दोपहर का ख़ाना खा रहे थे।

उन्हें उनकी डाइनिंग टेबल पर ही यह सौगात पेश की गई। उन्होंने जितना जल्दी हो सकता था, इसके बदले में इनाम के रकम की व्यवस्था करा दी। आखिर यह उनके लिए एक जश्न का काम जो हुआ था।

इस घटना का तमाम जगह तथ्यात्मक और अभिलेखीय वर्णन होने के बावजूद राजा जगन्नाथ के वंशज इस प्रकरण और उल्लिखित राजा के लिए यूँ लिखा करते हैं, “Raja Jagannath Singh, 6th Raja of Pawayan 1850/1880, born 1813, during his rule, the rebel leader, Maulvi Ahmad-Ullah Shah was killed at the outer gate of the Pawayan Fortress in a skirmish when the Maulvi was trying to forcefully break through the outer gate

राजा जगन्नाथ बे-औलाद थे। जैसे वे स्वयं वहां के चौथे राजा रघुनाथ सिंह के दत्तक पुत्र थे, ऐसे ही उन्होंने अपने भतीजे को गोद लिया। दसक्तूबर सन 1858 को जन्मा यह बच्चा (याने अहमदुल्ला के प्रसंग के चार महीने बाद) राजा फतेह सिंह के नाम से पोवायाँ के राजा के उत्तराधिकार का हकदार बना।

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मिलने बुलाया और की हत्या

एक धर्मपरायण मुस्लिम होने के साथ ही अहमदुल्लाह मौलवी धार्मिक एकता और फैजाबाद की गंगा-जमुनी संस्कृति के एक बड़े पैरोकार थे। सन 1857 की क्रांति में उन्होंने कानपुर के नाना साहिब, आरा के कुंवर सिंह और अन्य लोगों के साथ मिलकर रणनीतियां बनाई थीं।

मौलवी की 22वीं पैदल रेजिमेंट के कमांडर सूबेदार घमंडी सिंह हुआ करते थे। उमराव सिंह उस बटालियन के सूबेदार थे। उन्होंने लख़नऊ के घेराबंदी के दौरान वहाँ हुई चिनहट की प्रसिद्ध लड़ाई में अंग्रेज सेना को बुरी तरह परास्त किया था।

मौलवी को कभी भी पुवायाँ के राजा जगन्नाथ के मन में चलने वाली किसी षड्यंत्रकारी बात का कोई भान नहीं था। वह मन से चाहते थे कि राजा जगन्नाथ देश में जागृत हुई उपनिवेशवाद विरोधी ताकतों के साथ खुलकर आये और इस संघर्ष में वह जनता के साथ जुटें।

5 जून 1858 की जिस घटना में उनकी हत्या की गई वह राजा से पूर्व निर्धारित रूप से मिलने का एक तय समय था, परंतु उन्हें यह आभास नहीं था कि मुख्य दरवाजे पर उनका खुद पुवायाँ के राजा के भाई और उनके लोगों की ओर से गोलीयों के बौछार से स्वागत किया जाएगा।

अदम्य साहस का व्यक्तित्व

मौलाना का मूल्यांकन करते हुए उनके समकालीन एक अंग्रेज इतिहासकार ने लिखा था, “अहमदुल्लाह मौलवी महान क्षमताओं का एक व्यक्ति, अदम्य साहस का, दृढ़ निश्चय का, और विद्रोहियों के बीच सबसे अच्छा सैनिक, सब कुछ था।

एक बात और। आजादी की लड़ाई के इस अनथक योद्धा मौलवी अहमदुल्लाह के साथ जब द्रोहघात कर उनकी हत्या की गई तब उनकी उम्र 71 साल के पड़ाव पर थी। वह तब भी अपने सहयोगी सब युवाओं से कहीं ज्यादा ऊर्जा से सरोबर थे।

यह किस्सा उन लोगों की सोच पर भी एक तमाचा है जो आज़ादी के लिए जुनून रखने वाले योद्धाओं को धर्म, संप्रदाय और जातियों की विचारधारा से देखा करते हैं। ये दिन वो थे, जब न कोई हिन्दू था, न मुसलमान, न ऊँची या नीची जातियाँ अथवा अमीर या गरीब।

बात यह भी थी कि अहमदुल्लाह जैसे लोग अंग्रेजों के राज की समाप्ति के बाद भी कुछ अलग से लाभान्वित न होते। लाभ तो तब भी कुलीन वर्ग को, व्यापारियों को और राजघराने के लोगों को ही मिलना था।

उनके खुद के पास न तो कोई ज़मींदारी थी, न ख्वाहिश, 71 साल में कोई काम-धंधे से जायदाद खड़े करने का कोई ख्वाव। था तो बस देश और देशवासियों को विदेशी आक्रांताओं से मुक्त कराने का एक जुनून!

ऐसे वीर योद्धा को नमन! आज उन जैसे निःस्वार्थ जुनूनी लोगों के बलिदानों का प्रतिफल ही हमें मिला हुआ है।

जाते जाते :

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