‘1857 विद्रोह’ के बर्बर घटनाओं का दस्तावेज हैं ‘गदर के फूल’

किताबीयत : गॅदरिंग दि अशेस

ह आक्षेप जितने आम हैं कि भारतीय भाषाभाषी लोग कतई राजनीति-इतिहास निरपेक्ष किस्म के जीव होते हैं, उतनी ही यह धारणा भी कि हमारे सही सटीक इतिहास पर शोध तथा उसका बोध तो कमोबेश मान्य योरोपीय इतिहासकारों की मार्फत ही आया है।

आर.सी. मजूमदार सरीखे अंग्रेजी में दीक्षित भारतीय अकादमिक भी प्रायरू इसी विचार परंपरा को सहारा देते चले गए हैं। भारत में आन बसे एक ब्रिटिश लेखक ने भी 2011 में 1857 के गदर पर लिखी अपनी किताब के विमोचन पर जब यही दोहराया, तो समारोह में मौजूद उनकी भारतीय शिष्य-मित्र परंपरा को अपना हंडे जैसा सिर सहमति में हिलाते देख मन किया कि इस सबको चुनौती देना जरूरी है।

पर तत्काल बेवजह साक्ष्य सामने लाए बिना इस भीड़ से तकरार ठानना सफल न होता। सो यह तय किया कि निजी स्तर पर ही सही, हिन्दी और अन्य भाषाओं में उपलब्ध समकालीन प्रत्यक्षदर्शियों के लिखे ब्योरे अंग्रेजी अनुवादों की मार्फत सामने लाते हुए विदेशियों में इतिहास के भारतीय लेखन को लेकर बद्धमूल अज्ञान और अपने लोगों में इस बाबत मौजूद आत्महीनता को एक साथ निरस्त किया जाए।

1907 से गदर पर उन्नीसवीं सदी के एक घुमंतू चितपावन ब्राह्मण विष्णुभट्ट गोडसे का बहुत ही सरस, बड़ा ही मार्मिक आंखों देखा हाल मराठी में माझा प्रवास शीर्षक से उपलब्ध है जिसका हिन्दी के यशस्वी लेखक अमृतलाल नागर ने हिन्दी में (आँखो देखा गदर) काफी पहले अनुवाद भी किया था।

तुरत इस मूल ग्रंथ का प्रामाणिक संस्करण भी मंगवाया और अंग्रेजी के जाने-माने प्रकाशक हार्पर कॉलिंस से बात की। उम्मीद के उलट उनसे तुरत सहर्ष स्वीकृति मिली। फिर जब एक आम गरीब बेरोजगार मानुष की मार्फत उत्तर भारत के राजे-रजवाड़ों, सामंती दरबारियों ही नहीं, उनकी प्रजा के भी त्याग या कायरता से भरपूर भाषायी इतिहास सामने आने लगा तो प्यारी जू जब-जब देखूं तेरो मुख नयो-नयो लागत है,” की तर्ज पर 19वीं सदी के उत्तर भारत की बाबत हर ब्योरे के साथ बहुत कुछ नया जाना।

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पहली बार यह साफ जाहिर हुआ कि अपने तमाम कील मुहांसों और परछाइयों सहित पर्दानशीं बेगमों और राजरानियों से लेकर कुटनियों, टकहिया वेश्याओं, बादशाहों, नवाबों से लेकर किसानों, हरवाहों, नाइयों, भिखारियों और तीर्थयात्रियों तक से भरा-पूरा विविधरंगी और कोलाहलमय गदरकालीन राज समाज दरअसल था कैसा?

किस प्रेरणा से अंग्रेजी राज के खिलाफ इतने भिन्न समूहों ने विस्मयकारी एकजुटता के साथ जात-बिरादरी और धर्म-संप्रदाय के झगड़े त्यागे और रातोरात दो मुस्लिम नेताओं (दिल्ली का बादशाह और अवध की बेगम) के नेतृत्व को स्वीकार कर दिलेरी से गदर का बगावती झंडा पकड़ लिया?

डेढ़ सदी पहले के इस आंखों देखे विवरण के अंग्रेजी अनुवाद (1857, The real story Of an appraising) की भारत तथा विदेश से इतनी मांग आई कि दो साल के भीतर उसका तीसरा संस्करण तैयार हो गया।

अब मैंने प्रकाशकों से फिर बात की। क्यों न गदर के सौ साल पूरे होने पर खुद अमृतलाल नागर जी ने पुरानी अवध रियासत के गांवों से अवाम के बीच गदर की बच रही स्मृतियों की जो दुर्लभ बटोर, 1957 में गदर के फूल नाम से छपवाई थी, उसका भी अंग्रेजी में अनुवाद कर इस देसी इतिहास के क्रम को बढ़ाया जाए? संपादक वी.एस. कार्तिका का जवाब था, वाह, नेकी और पूछ-पूछ?

तुरत लखनऊ में नागर जी के सुपुत्र शरद नागर जी से संपर्क किया। क्या वे अनुवाद के लिए मुझे तथा प्रकाशकों को इसका कॉपीराइट दे सकते हैं? मेरे लिए तो यह वैसा ही पुण्यकार्य बन चुका था जैसा 1957 में नागर जी के लिए मात्र 1,000 रुपये के सरकारी मानदेय पर मूल ग्रंथ रचना रहा होगा।

शरद जी का लौटती डाक से जवाब आया कि यदि मैं खुद यह काम कर रही हूं तो उनकी स्वीकृति है। उन्होंने अपने स्वर्गीय भाई के बेटे से भी बात कर ली है। वह भी राजी है। प्रकाशक ने अपना दूत लखनऊ दौड़ाया और हाथ के हाथ स्वीकृति आ भी गई।

शरद जी से फोन पर संपर्क तथा पत्राचार जारी था। उनकी निरंतर गिरती स्वास्थ्य की दशा और क्षीण होती दृष्टि उन्हें लगभग शैयाग्रस्त बना चुकी थी। फिर भी उनकी तरफ से पूर्णातिपूर्ण सहयोग मिला। असाध्य रोग के कष्ट तथा दृष्टिहीनता से जूझने के क्षणों के बीच ही रोगशैया पर ही उनकी सुयोग्य उत्तराधिकारी दीक्षा तथा ऋचा ने उनको उनकी लिखी पुस्तक की प्रस्तावना पढ़कर भी सुनाई।

ऋचा ने बताया कि पुस्तक के मसौदे को हाथ से छूते हुए उनकी टिप्पणी थी, “अब मुझे दवा की जरूरत नहीं रही।यह मेरे अगाध शोक का बायस रहेगा कि किताब के छप कर आने से पहले ही वे दिवंगत हो चुके थे। पर इस अनुवाद का पूरा श्रेय उन्हीं का है, मैं तो शायद विधना द्वारा कुछ समय तक नियुक्त उनका पितृऋण और नागर जी की अनन्य मित्र तथा पाठिका अपनी मां शिवानी का मातृऋण चुकाने का एक निमित्त भर थी।

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शरद जी ने इस पुस्तक की रचनाप्रक्रिया पर मेरे अनुरोध पर विशेष रूप से लिखे अपने आलेख गदर के फूल की रचना (अ सन रिमेंबर्स) में बड़ी सुथराई और शालीनता से बताया है कि किस तरह 1956 में आकाशवाणी की ड्रामा प्रोड्यूसर की घुटन भरी नौकरी को त्याग कर नागर जी ने स्वैच्छिक सेवा मुक्ति ले ली थी। आजीविका का संघर्ष जारी रहा पर लेखन कभी नहीं छूटा।

गदर के किस्से नागर जी के इलाहाबाद में बिताए बचपन का अंग रहे थे। लखनऊ आ बसने के बाद स्थानीय मित्रों और उनके परिवारों से भी उसकी बाबत अनेक मालूमात हासिल होते रहे। उनका मन बना कि गदर की पृष्ठभूमि पर विस्तृत फलकवाली एक उपन्यास त्रयी रची जाए।

मुझे लगा कि अपने उपन्यास के क्षेत्र अवध में घूम-घूमकर गदर संबंधी स्मृतियां और किंवदंतियां आदि एकत्र किए बिना मेरी गढ़ी हुई कहानी में झेकोले रह जाएंगे… जनश्रुतियों के सहारे ही इतिहास की गैल पहचानी जा सकती है। हमारे देश में स्वजनों की चिता के फूल चुने जाते हैं। सौ वर्ष बाद ही सही, मैं भी गदर के फूल चुनने की निष्ठा लेकर अवध की यात्रा के आयोजन करने लगा..” (नागर जी, प्रथम संस्करण की भूमिका से)।

नौकरी थी नहीं, निजी संसाधनों के बल पर गांव-गांव जाकर जानकारियां जमा करना कठिन था। इसीलिए प्रदेश सरकार की तरफ से 1957 में गदर की शती समारोह के लिए संस्मरणों से भरी यह पुस्तिका लिखने का प्रस्ताव उनको रुचा। मेहनताना कम था तो क्या? सफर और रहने-सहने की सुविधा तो सरकार दे ही रही थी न? सो शरद जी के शब्दों में, “…बा (पत्नी) ने उनका झेला सजा दिया और 4 जून 1957 को बाबूजी ने चप्पलें फटफटाते घर से निकल अपनी यात्रा का पहला दौर शुरू किया…

अपनी लेखिका मां के निरूस्पृह जीवन से वाकिफ मैं जानती हूं कि एक ईमानदार हिन्दी लेखक की कुल थाती होती ही कितनी है? हमारी लेखिका मां भी अकसर सुदामा चरितकी पंक्तियां सुनातीं थीं, “या घर तें कबहूं न गयो पिय, टूटो तवा अरु फूटि कठौती..

सो नागर जी के झोले में भी न टेप रिकॉर्डर था, न कैमरा। औजार के रूप में थे एक अखबारी कार्यकर्ता बालसखा के दिए विभिन्न आकार के कुछ पैड, 3-4 पेंसिलें, पेंसिल शार्पनर, कलम और एक दो रूलदार स्कूली कॉपियां। दो-चार जोड़ी कपड़े और निरंतर सहचर उनका पनडिब्बा। हाथ से प्रतिलिपि करने का भी समय न था।

रोज सरकारी रात्रिनिवास में अकसर लालटेन की रोशनी में नागर जी उस दिन जमा की सामग्री को लिखकर लखनऊ भिजवाते और फर्मे छपते रहते। इस पुस्तक की पांडुलिपि तक उपलब्ध नहीं। निगोड़ी पेंसिल की लिखाई समय के साथ अकसर धूमिल जो हो गई थी। शरद जी के पूछने पर कि मसौदा कलम से क्यों नहीं लिखा?

नागर जी का भोला उत्तर था कि वे वक्ता के हाव-भाव और तर्जेबयां पर भी लगातार नजर रखते थे लिहाजा अचानक सियाही चुकाने का खतरा मोल लेने की अपेक्षा उनको पेंसिल की लिखाई अधिक सहज लगी।

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गदर के फूल की ताकत और उसकी मार्मिकता का रहस्य कहीं खुद लेखक की इसी बेबाक, सतत जनकेंद्रित दृष्टि में छिपा है। गदर के तमाम ज्ञात-अज्ञात शहीदों की पुण्य स्मृति को अंजलि देते हुए भी न वे अपने देहाती स्रोतों की सहज भाषा को साहित्यिक रंगत देने की चतुर कोशिश करते हैं और न ही तत्कालीन समाज के कुछेक बदनुमा पहलुओं से नजरें चुराते हैं।

मध्य 19वीं सदी के पतनशील समाज से उनको प्रेम नहीं था, लेकिन तमाम सड़ांध के बीच बार-बार दिखनेवाले मानवीय त्याग, सहकारिता और करुणा को भी पुस्तक अनदेखा नहीं करती।

उनकी तीखी नजर की मार्फत पाठकों को शायद पहली बार यह भी अचानक दिखने लगता है कि इस युद्ध में बेवा रानी झांसी, बेगम हजरत महल (जो कुटनियों द्वारा कभी अवध नवाब के हरम के लिए खरीदी गई थी), तुलसीपुर की रानी और कानपुर की तवायफों सरीखी औरतों ने अचानक अपनी बेडिय़ां काट कर खुली भागीदारी की, वह भारतीय राज समाज के लिए कैसी ऐतिहासिक और सदियों से पर्दानशीं और पुरुष आधिपत्य में पिसती रही इन महिलाओं के लिए कैसा आऌहादकारी अनुभव साबित हुई।

नागर जी को इतिहास से विशेष प्रेम था और इतिहास में भी भारत के इतिहास से, उसमें भी अवध के अट्ठारह सौ सत्तावनी इतिहास से जिसमें मौजूद राजा बेनी माधो, देवीबक्श सिंह, बलभद्र सिंह और जंगनामा के लेखक सरीखे पात्रों से। वजह? अपने एक पत्र में खुद नागर जी ने लिखा था 1857 ईसवीं में देश की सब नाडिय़ां छूट जाने के बाद भी अवध में भारत का वज्रकठोर कोमल फूल जैसा हृदय बन कर धड़कता रहा…

21 जुलाई से 16 सितम्बर, 1957 के बीच लिखी गई पुस्तक के अनुवाद, तथा संपादक मंडल के सुझाव पर नए पाठकों की सहूलियत के लिए अपनी तरफ से मैंने उसमें बीच-बीच में तत्कालीन अवध के राज समाज तथा भौगोलिक अवस्थितियों और तत्कालीन प्रशासनिक इकाइयों की बाबत कुछ ब्योरे जोड़े हैं।

उसके आगे बस यही कहना हैः त्वदीयम् वस्तु गोविंदमड् तुभ्यमेव समर्पयामि। नागर जी की अमृतस्वरूपा कृति का यह स्वरूप भी उनकी पुण्य स्मृति को समर्पित।

(यह आलेख 2014 में आज तक की वेबसाइट पर छपा था।)

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कीताब का नाम : Gathering the Ashes’

लेखक : अमृतलाल नागर

अनुवादक : मृणाल पांडे

भाषा : अंग्रेजी

कीमत : 399 (पेपरबैक संस्करण)

पन्ने :208

प्रकाशक : हार्पर कॉलिंग

ऑनलाइन : गॅदरिंग दि अशेस

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