क्या न्या. रानडे एक महापुरुष थे? उनका व्यक्तित्व निःसंदेह महान था। यह भीमकाय व्यक्ति थे। यह आशावादी स्वभाव, मिलनसार तथा हंसमुख मनोवृत्ति एवं बहुमुखी क्षमता वाले व्यक्ति थे। उनमें सच्चाई थी, जो सब नैतिक गुणों का संगम है और उनकी सच्चाई इस प्रकार की थी, जिसका वर्णन कार्लाइल ने किया है।
यह सच्चाई अहंकारी आत्मप्रशंसा वाली नहीं थी। वह स्वाभाविक सच्चाई थी। वह एक मूलभूत व स्वाभाविक विशेषता थी उसमें बनावट नहीं थी। वह न केवल डीलडौल तथा सच्चाई की नजरिये से बड़े थे, बल्कि प्रतिभा के भी धनी थे।
रानडे एक उच्च प्रतिभा संपन्न इन्सान थे। इसमें किसी व्यक्ति को संदेह नहीं हो सकता। वह उच्च न्यायालय के मात्र एक वकील तथा न्यायाधीश ही नहीं थे, बल्कि वह पहले दर्जे के अर्थशास्त्री, पहले दर्जे के इतिहासकार, पहले दर्जे के शिक्षाविद तथा पहले दर्जे के धर्मतत्त्वज्ञ भी थे।
वह राजनीतिज्ञ नहीं थे। कदाचित, यह अच्छी बात है कि वह राजनीतिज्ञ नहीं थे। क्योंकि यदि वह राजनीतिज्ञ होते, तो हो सकता कि वह महान व्यक्ति न हो सकते। जैसा कि अब्राहम लिंकन ने कहा था, “राजनीतिज्ञ ऐसे व्यक्ति होते हैं, जिनका हित लोक-हित से अलग होता है और जिनको अर्थात् उनमें से अधिकांश को समूह के रूप में लिया जाता है और वे ईमानदार मनुष्यों से काफी हटकर होते हैं।”
रानडे यद्यपि राजनीतिज्ञ नहीं थे, परंतु राजनीति के पारंगत विद्यार्थी थे। वास्तव में, भारत के इतिहास में रानडे के समकक्ष व्यापक विद्वता, प्रचंड बुद्धि तथा दूरदृष्टि वाले किसी व्यक्ति को ढूंढना कठिन होगा।
ऐसा कोई भी विषय नहीं था, जिसे उन्होंने छुआ न हो और जिसमें उन्होंने गूढता व महारत हासिल न की हो। उनका अध्ययन विशाल स्तर का था और वह हर प्रकार से पूर्ण विद्वान थे। वह न केवल अपने समय मापदंड के अनुसार, बल्कि किसी भी मापदंड के अनुसार महान थे।
जैसा कि मैंने कहा है, महान व्यक्ति बनने का कोई भी दावा सच्चाई तथा प्रतिभा में से किसी एक पर या इनके संयुक्त रूप पर निर्भर नहीं होता। यदि रानडे में ये दो गुण ही होते और इनसे अधिक गुण न होते तो उनको महान नहीं कहा जा सकता था।
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सुधारक कि उपाधि
महान व्यक्ति होने की उनकी उपाधि, उन्होंने सामाजिक कार्य किए थे, जिस तरीके से वे कार्य किए, उस पर निर्भर करती है। इस संबंध में कोई संदेह नहीं हो सकता। रानडे को एक इतिहासवेत्ता, अर्थशास्त्री या शिक्षाविद की अपेक्षा एक समाज सुधारक के रूप में ही अधिक जाना जाता है।
उनका संपूर्ण जीवन ही समाज सुधार के लिए निरंतर अभियान में समर्पित रहा। समाज सुधारक के रूप में उनकी जो भूमिका रही है, वही उनके महान होने की उपाधि का आधार है। रानडे में साहस तथा दूरदृष्टी दोनों ही थे, जिनकी आवश्यकता सुधारक के लिए होती है। जिन परिस्थितियों में उनका जन्म हुआ था, उनमें उनके साहस और दूरदृष्टि का बराबर का महत्व था।
जिस दौर में वह जन्में थे, उसमें यह बात सिर्फ अचरज की बात होती कि उनमें पैगम्बर की सी दूरदृष्टि थी। मैंने तो यह बात यहूदी नजरिये से कही है। रानडे का जन्म 1842 किकी के युद्ध से लगभग 24 साल बाद हुआ था। उस जंग में मराठा साम्राज्य का अंत हो गया था।
मराठा साम्राज्य के पतन ने विभिन्न लोगों के अंदर विभिन्न प्रतिक्रियाएं उत्पन्न की। नातू जैसे कुछ लोग इस बात से प्रसन्न थे कि ब्राह्मण पेशवा अभिशप्त शासन समाप्त हो गया है। परंतु इस बात में कोई संदेह नहीं हो सकता कि महाराष्ट्र में अधिकांश लोग इस घटना से स्तंभित रह गए थे।
जब समूचा भारत विदेशी गिरोहों के बढ़ते कदमों से घिरता जा रहा था और भारत की जनता को तिल-तिल करके क्रमशः दास बनाया जा रहा था, तब यहां महाराष्ट्र नन्हे से कोने में एक हट्टी-कट्टी जाति रहती थी, जो यह जानती थी कि स्वतंत्रता क्या होती है?
उसने स्वतंत्रता के लिए भूरपूर लड़ाई लड़ी थी और मीलों तक इसकी स्थापना की थी। अंग्रेजों की विजय से उनकी यह अनमोल थाती समाप्त हो गई थी। इस बात की कल्पना की जा सकती है कि महाराष्ट्र की सर्वोत्तम प्रतिभा किस प्रकार पूर्णतया भौचक व हैरान हो गई थी और उसके सामने पूर्णतया अंधेरा छा गया था।
ऐसी महान विपत्ति के प्रति क्या स्वाभाविक प्रतिक्रिया हो सकती थी? यह होनी के आगे आत्म-समर्पण और घुटने टेकने के अलावा और क्या हो सकता है? इस पर रानडे की क्या प्रतिक्रिया हुई? यह अत्यंत भिन्न रूप में हुई। आशा थी कि जो गिरे हैं, वे उठेंगे भी, वास्तव में उनके अंदर एक नया विश्वास उपजा जो इस आशा का आधार था। मैं उनके ही शब्दों का उद्धृत करता हूँ –
“मैं अपने धर्म के दो सिद्धांत के प्रति अनन्य आस्था व्यक्त करता हूं। हमारा यह देश आशावाद का साकार रूप है। हमारी जाति यह श्रेष्ठ जाति हैं।”
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हिन्दू समाज में सुधार
वह आशा तथा विश्वास के नवीन मूसा सिद्धांत को केवल प्रस्तुत करके ही चुप नहीं बैठे। उन्होंने इस आशा की प्राप्ति के प्रश्न पर भी अपना ध्यान दिया। इसकी पहली आवश्यकता, वास्तव में पतन के कारणों का निष्पक्ष विश्लेषण करने की थी। रानडे ने यह महसूस किया कि यह पतन हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में कुछ कमजोरियों के कारण हुआ था और जब तक इन कमजोरियों को दूर नहीं किया जाता, तब तक आशा व आकांक्षा पूरी नहीं हो सकती।
आखिरकार उन्होंने नवीन सिद्धांत के बाद कर्तव्य के लिए आह्वान किया था। यह हिन्दू समाज में सुधार करने के कर्त्तव्य के अलावा कोई और कर्तव्य नहीं था। अतएव सामाजिक सुधार उनके जीवन का एक प्रमुख उद्देश्य हो गया था।
उनके अंदर सामाजिक सुधार की भावना विकसित हुई और इसका बढ़ावा देने में उन्होंने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। इसके लिए उन्होंने जो तरीके अपनाए, उनमें बैठकें करना, शिष्ट मंडल भेजना, भाषण व उपदेश, लेख, साक्षात्कार व पत्र शामिल थे।
ये सब कार्य उन्होंने निरंतर व अथक उत्साह के साथ किए। उन्होंने अनेक सभाओं, सोसायटियों की स्थापना की। उन्होंने कई पत्रिकाओं को स्थापित किया। परंतु वह इससे संतुष्ट नहीं हुए। वह सामाजिक सुधार के काम को बढ़ावा देने के लिए कुछ ऐसी चीजे चाहते थे, जो अपेक्षाकृत और अधिक स्थायी और अधिक व्यवस्थित हों।
अतएव उन्होंने सामाजिक संमेलन (सोशियल काफ्रेंस) नामक एक अखिल भारतीय संगठन की स्थापना की। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक सहायक के रूप में चला। सामाजिक बुराइयों पर चर्चा करने के लिए सालोंसाल बैठकें होती थीं। रानडे हर साल उसके वार्षिक अधिवेशनों में हाजिरी देते थे, जैसे कि यह उनकी तीर्थयात्रा हो वह सामाजिक सुधार के हेतु कार्य व उद्देश्यों को प्रोत्साहित करते थे।
सामाजिक सुधार के कार्य व हेतु को प्रोत्साहित करने में रानडे ने बहुत उत्साह दिखाया। इस पीढ़ी के बहुत से लोग ऐसे दावे पर शायद हसेंगे। जेल में जाना भारत में शहादत का काम हो गया है। इसे देशभक्ति का काम तथा साहस का काम माना जाता है।
अधिकांश लोग जो अन्यथा ध्यान देने के अयोग्य होंगे और जिनके मामले में यह कहना ठीक ही हो सकता था कि वे बदमाश व दुष्ट थे जिन्होंने राजनीति को अपने अंतिम सहारे के रूप में अपना लिया था, जेल में जाकर वे शहीद हो गए है और उन्होंने नाम तथा प्रसिद्धि प्राप्त कर ली है, जो कम से कम कहने के लिए तो अति विस्मयकारी है।
यदि जेल के जीवन में वैसी यातनाएं होती, जिन्हें तिलक जैसे व्यक्तियों तथा उनकी पिढी के लोगों ने सहा था तो इस विचार में कुछ सार होगी। जेल के जीवन में आज कोई आतंक या भय नहीं रहा है। यह अब केवल नजरबंदी का मामला हो गया है।
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समाज को दी चुनौती
राजनीतिक कैदियों को अब अपराधी नहीं माना जाता। उनको एक अलग श्रेणी में रखा जाता है। उनको किसी कठिनाई या परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता। उनकी प्रसिद्धि या प्रतिष्ठा को कोई ठोस नहीं पहुंचती और उनको अलग भी नहीं रखा जाता। इसके लिए किसी प्रकार के साहस की आवश्यकता नहीं। परंतु जब जीवन में जैसा कि तिलक के समय में वास्तव में यातनाएं थीं।
राजनीतिक बंदी एक समाज सुधारक से अधिक साहस रखने का दावा नहीं कर सकते थे। अधिकांश लोग यह महसूस नहीं करते हैं कि समाज एक व्यक्ति के विरुद्ध सरकार की अपेक्षा कहीं अधिक मात्रा में अत्याचार तथा दमनचक्र चला सकता है। दमन के जो साधन तथा क्षेत्र समाज के समक्ष खुले हैं, वे सरकार के सामने खुले साधनों तथा क्षेत्रों की अपेक्षा बहुत अधिक व्यापक हैं और वे उनसे अधिक प्रभावी भी है।
दंड संहिता में ऐसे व्यवस्था है, जिसकी तुलना बहिष्कार के दंड की गंभीरता तथा मात्रा से की जा सके अधिक साहस किसमें होता है? उस समाज सुधारक में जो समाज को चुनौती देता है और अपने लिए बहिष्कार की सजा को आमंत्रित करता है, या उस राजनीतिक बंदी में जो सरकार को चुनौती देता और केवल कुछ महिनों की या कुछ सालों कि जेल कि सजा पाता है?
इनमें एक और भी फर्क है, जिसे समाज सुधारक तथा राजनीतिक द्वारा दर्शाए गए साहस का अनुमान लगाने। मूल्यांकन करने में प्रायः ध्यान में नहीं रखा जाता।
जब समाज सुधारक समाज को चुनौती देता है, तब कोई भी व्यक्ति उसको शहीद कहकर उसका स्वागत नहीं करता। कोई भी व्यक्ति उसका मित्र तक बनने के लिए तैयार नहीं होता। उससे लोग घृणा करते हैं और बचकर रहते हैं, परंतु जब राजनीतिक देशभक्त सरकार को चुनौती देता है, तो सारा समाज उसका समर्थन करता है।
उसकी प्रशंसा की जाती है, उसकी सराहना की जाती है और उसे उद्धारक के रूप में तथा के रूप में आदर किया जाता है। कौन अधिक साहस दिखाता है? वह समाज सुधार जो अकेला लड़ता है, या वह राजनीमिक देशभक्त जो बहुत बड़ी संख्या में अपने समर्थकों सहयोग से लड़ता है।
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तिलक बने विरोधी
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि रानडे में समाज सुधार के कार्य को हाथ में लेते समय साहस दिखाया था। वास्तव में उन्होंने उच्चकोटि का साहस दर्शाया था।
क्योंकि आप यह बात याद रखें कि उनके समय में सामाजिक तथा धार्मिक प्रयासों तथा रीतिरिवाजों को, चाहे वे जितने घटिया तथा अनैतिक थे, परम पवित्र तथा अलंघनीय (जिसे लांघा नही जा सकता) माना जाता था तथा जब उनके दैवी व उत्कृष्ट तथा नैतिक आधार पर कोई संदेह प्रकट करता था, या उस पर कोई सवाल खड़ा करता था, चुनौती देता था, तो उसकी बात को केवल एक अपसिद्धांत शासन विरुद्ध ही नहीं माना जाता था, बल्कि उसे असहनीय ईशनिंदा तथा धर्मविरोध व देवदोह के रूप में माना जाता था।
एक सुधारक के रूप में उनका मार्ग सरल व निष्कंटक नहीं था। वह अनेक दिशाओं से बाधाए थी। जिन लोगों को वह सुधारना चाहते थे, उनकी भावनाएं प्राचीन अतीत में गहरी धंसी हुई थीं। उनका विश्वास था कि उनके पूर्वज सबसे अधिक बुद्धिमान तथा सबसे कुलीन व उत्कृष्ट व्यक्ति थे और उन्होंने सर्वोच्च आदर्श समाज व्यवस्था की स्थापना की थी।
हिन्दू समाज की जो लज्जास्पद तथा त्रुटिपूर्ण बातें रानडे को महसूस हुई, वे उनके लिए धर्म की सबसे पवित्र निषेधाज्ञाएं थीं। जनसाधारण की यह मनोवृत्ति थी। बुद्धिजीवी दो वर्गों में बंटे हुए थे एक वर्ग वह था जो रूढ़िवादी विश्वास वाला था, परंतु उसका दृष्टिकोण राजनीतिक नहीं था और एक वह था जो अपने विचारों से आधुनिक था, परंतु उसके लक्ष्य तथा उद्देश्य मूलतः राजनीतिक थे।
पहले वर्ग का नेतृत्व श्री. चितलेकर कर रहे थे और दूसरे का श्री. तिलक। ये दोनों रानडे के विरुद्ध एकजुट हो गए और उन्होंने उनके मार्ग में यथासंभव अधिक से अधिक कठिनाइयां उपस्थित की। उन्होंने केवल समाज सुधार के ध्येय को ही सबसे ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचाया, बल्कि जैसा कि अनुभव से पता चलता है, उन्होंने भारत में राजनीतिक सुधार के ध्येय को भी सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है।
*‘रानडे, गांधी और जिन्ना’ किताब के संपादित अंश
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