गोपाल दास ‘नीरज’ उस कवि संमेलन परंपरा के आखिरी वारिस थे, जिन्हें सुनने और पढ़ते हुए देखने के लिए हजारों श्रोता रात-रात भर बैठे रहते थे। उनकी रचनाओं में गीतों का माधुर्य और जीवन का संदेश एक साथ होता था। नीरज का नाम हिन्दी के उन कवियों में शुमार किया जाता है, जिन्होंने मंच पर कविता और गीतों को नई बुलंदियों तक पहुंचाया।
नीरज की आवाज और गीतों का जादू श्रोताओं के सिर चढ़कर बोलता था। जब वे अपनी विरल स्वर लहरी में गीत पढ़ते, तो सुनने वालों के जेहन पर नशा सा तारी हो जाता। श्रोता मदहोश हो जाते। भाव अतिरेक में झूमने लगते। ज्यों-ज्यों नीरज के गीतों को सुनते, उनकी प्यास और भी ज्यादा बढ़ती जाती।
कहानी बन कर जिये हैं इस जमाने में
सदियां लग जाएंगी हमें भुलाने में
आज भी होती है दुनिया पागल
जाने क्या बात है नीरज के गुनगुनाने में।
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शुरुआती जिन्दगी
उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के पुरवाली गांव में 4 जनवरी, 1925 को जन्मे नीरज की शुरुआती जिन्दगी काफी संघर्षपूर्ण रही। बचपन में ही उनके सिर से पिता का साया छिन गया।
जीवनयापन के लिए पढ़ाई के साथ-साथ उन्होंने कई छोटी-मोटी नौकरियां कीं। मेरठ और अलीगढ़ के कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक भी रहे। लेकिन उनका जी गीतों में ही बसता था। बाद में सब कुछ छोड़-छाड़ के वे गीत के ही हो लिए।
गीत उनकी जिन्दगी थे। दीगर कवि, गीतकारों की तरह कवि संमेलनों के सर्वोच्च मुकाम तक पहुंचने में नीरज को ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा। जब नीरज नौवीं कक्षा के छात्र थे, तब उन्होंने अपनी पहली कविता कवि सोहन लाल द्विवेदी की अध्यक्षता में एटा के कवि संमेलन मंच पर पढ़ी और यह सिलसिला जिन्दगी के आखिर तक जारी रहा।
कवि संमेलनों की वे आन, बान और शान थे। उनकी मौजूदगी भर से मंच की गरिमा बढ़ जाती थी। साल 1942 में दिल्ली में एक कवि संमेलन था, नीरज की जब बारी आई, तो उनके गीत और आवाज का कुछ ऐसा जादू हुआ कि श्रोता वन्स मोर.. वन्स मोर चिल्लाने लगे।
उसके बाद उन्होंने और भी कई कविताएं और गीत सुनाये और सबका समान असर हुआ। इस संमेलन के बाद, उनकी मकबूलियत पूरे मुल्क में फैल गई। नीरज कवि संमेलनों में बुलाये जाने लगे और इस तरह से उनकी एक नई यात्रा शुरू हुई।
थोड़े से ही अरसे में वे हरिवंश राय बच्चन, गोपाल सिंह ‘नेपाली’, बलबीर सिंह ‘रंग’, देवराज दिनेश, रामअवतार त्यागी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, वीरेन्द्र मिश्र, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जैसे अग्रिम पंक्ति के गीतकारों में शामिल हो गए।
नीरज अपनी शुरूआत में ‘भावुक इटावी’ के नाम से कविताएं पढ़ते थे। बाद में उन्होंने ‘नीरज’ उपनाम रखा, जिसने उनके असल नाम गोपालदास सक्सेना को पीछे छोड़ दिया।
साल 1944 में शिमला में गांधी-जिना संमेलन के बाद नीरज ने एक गीत लिखा, “आज मिला है गंगा जल, जल जमजम का।”
जाहिर है कि अपने अलग तरह के भाव और विचारभूमि के चलते गीत काफी लोकप्रिय हुआ। यह गीत जब वे दिल्ली के एक कवि संमेलन मंच पर पढ़ रहे थे, तो उनका यह गीत सुनकर मशहूर शायर हफीज जालंधरी, जो कि उस वक्त ‘साइन्स पब्लिसिटी ऑर्गेनाइजेशन’ में डायरेक्टर थे, बहुत मुतास्सिर हुये।
उन्होंने नीरज को अपने महकमे में नौकरी की पेशकश की, जिसे नीरज ने मंजूर कर लिया। इस नौकरी में नीरज की जिम्मेदारी थी कि वे गीतों के माध्यम से सरकारी योजनाओं का प्रचार करें। इस काम के तहत देश में जगह-जगह संमेलन हुये। जिसमें उन्होंने अपने गीतों के जरिए जनता के बीच जागरूकता फैलाई।
हाथ मिले और दिल न मिले हों
ऐसे में नुकसान रहेगा
जब तक मंदिर और मस्जिद हैं
मुश्किल में इंसान रहेगा
‘नीरज’ तो कल यहां न होगा
लेकिन उसका गीत-विधान रहेगा।
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ग़ज़ल कि ओर झुकाव
हफीज जालंधरी की संगत में आकर, नीरज का झुकाव गजल के जानिब हुआ। उर्दू के कई नामचीन शायरों से वे मिले। इसका असर यह हुआ कि वे गजल भी लिखने लगे। गीत की तरह उनकी गजलों ने भी कमाल दिखाया। नीरज कवि संमेलनों के साथ-साथ मुशायरों में भी बुलाए जाने लगे।
यहां भी वे कवि संमेलनों की तरह कामयाब रहे। उनकी एक नहीं, कई ऐसी गजलें हैं, जो आज भी हमें गुनगुनाने को मजबूर करती हैं। सीधी-साधी जबान में लिखी गई, इन गजलों में जिन्दगी का एक बड़ा फलसफा छिपा हुआ है।
साल 1955 में नीरज ने अपना कालजयी गीत “कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे……” लिखा, यह गीत, उन्होंने पहली बार लखनऊ रेडियो स्टेशन से पढ़ा। गीत रातों-रात पूरे देश में लोकप्रिय हो गया।
इस गीत की लोकप्रियता का आलम यह था कि हर कवि संमेलन या मुशायरे में श्रोता इसी गीत की बार-बार फरमाइश करते थे। सच बात तो यह है कि मंचीय कविता को नीरज ने नई ऊंचाइयां प्रदान की।
हम तेरी चाह में ऐ यार वहां तक पहुंचे
होश ये भी न जहां है कि कहां तक पहुंचे
एक सदी तक न वहां पहुंचेगी दुनिया सारी
एक ही घूंट में मस्ताने जहां तक पहुंचे।
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जिगर मुरादाबादी थे मुरीद
शंहशाहे-तरन्नुम शायर ज़िगर मुरादाबादी तक नीरज की आवाज के शैदाई थे। देहरादून के एक मुशायरे में, जिसकी सदारत जिगर मुरादाबादी खुद कर रहे थे, जब उन्होंने नीरज की कविता सुनी, तो एक के बाद एक उन्होंने उनसे उनकी तीन कविताएं पढ़वाईं और हर कविता के बाद नीरज की पीठ ठोककर यह कहा, “उम्रदराज हो इस लड़के की। क्या पढ़ता है, जैसे नगमा गूंजता है।”
ज़िगर साहब की दुआओं का ही असर था कि नीरज लंबे समय तक जिए और अपने नगमों से लोगों का मनोरंजन और उन्हें जीवन की नई सीख देते रहे।
नीरज नजले के मरीज थे, जिसकी वजह से उनकी आवाज में एक खरखराहट थी। श्रोताओं को उनकी आवाज को सुनकर, ऐसा एहसास होता कि वे मानो शराब पीकर गीत पढ़ रहे हों। बहरहाल, बाद में यही उनका स्टाइल हो गया।
श्रोता तरन्नुम में ही उनसे उनके गीत सुनने की फरमाइश करते। दूसरे कवि अपनी बारी का इंतजार करते रहते और श्रोताओं का नीरज के गीतों से जी नहीं भरता।
एक दौर ऐसा भी रहा, जब नीरज का नाम कवि संमेलन के सौ फीसदी कामयाब होने की गारंटी माना जाता था। सात दशकों तक वे लगातार संमेलन मंचों पर छाये रहे। उनको सुनकर देश की चार पीढ़ियां जवान हुईं।
नीरज अपनी जिन्दगी में कई सम्मानों से नवाजे गए। शिक्षा और साहित्य में उनके विशेष योगदान को देखते हुए, भारत सरकार ने साल 1991 में उन्हें ‘पद्मश्री’ और साल 2007 में ‘पद्मभूषण’ सम्मान प्रदान किया। इनके अलावा उन्हें ‘गीत गंधर्व’, ‘गीत सम्राट’, ‘गीत कौस्तुभ’, ‘गीत ऋषि’, ‘धरती तिलक’ आदि उपाधियों से भी विभूषित किया गया।
तमाम उम्र मैं एक अजनबी के घर में रहा
सफर न करते हुए भी किसी सफर में रहा।
अब तो मजहब कोई ऐसा भी चलाए जाये
जिसमें इन्सान को इन्सान बनाया जाये।
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फ़िल्मी सफर
नीरज ने फिल्मों के लिए गीत भी लिखे। निर्देशक आर. के. चंद्रा ने साल 1960 में अपनी फिल्म ‘नई उमर की नई फसल’ में उन्हें गीत लिखने का पहला मौका दिया।
नीरज का पहला ही गीत ‘‘कारवां गुज़र गया….” सुपर हिट रहा। उसके बाद यह सिलसिला आगे भी जारी रहा। लेकिन फिल्मी दुनिया उन्हें ज्यादा रास नहीं आई। साल 1972 में वे फिल्म नगरी को अलविदा कहकर वापस अलीगढ़ लौट आये।
लेकिन तब तक उनके खाते में कई कामयाबियां जुड़ गई थीं। नीरज ने कम वक्फे में ही रोशन, शंकर जयकिशन, एस.डी. बर्मन, इकबाल कुरैशी, जयदेव, हेमंत कुमार जैसे संगीतकारों और देव आनंद, राजकपूर, मनोज कुमार जैसे अभिनेता-निर्देशकों के साथ काम किया।
उनकी चर्चित फिल्मों में ‘नई उमर की नयी फसल’, ‘कन्यादान’, ‘तेरे मेरे सपने’, ‘प्रेम प्रतिज्ञा’, ‘प्रेम पुजारी’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘चंदा और बिजली’, ‘चा चा चा’, ‘छुपा रूस्तम’, ‘शर्मीली’, ‘पहचान’ आदि हैं।
नीरज का फिल्मी सफर भले ही छोटा रहा, पर इस सफर में उन्होंने ऐसे कई गीत दिए, जो कभी भुलाए नहीं जा सकते।
फिल्मों में लिखे उनके गीतों ‘‘फूलों के रंग से दिल की कलम से’’, ‘‘खिलते हैं गुल यहां खिलके बिछुड़ने को’’, ‘‘बस यही अपराध हर बार करता हूं’’, ‘‘शोखियों में घोला जाये फूलों का शबाब’’, ‘‘रंगीला रे तेरे रंग में…’’, ‘‘मेघा छाए आधी रात, बैरन बन गई निंदिया’’ आदि ने खूब धूम मचाई।
फिल्मी दुनिया के बड़े पुरस्कार ‘फिल्म फेयर अवार्ड’ के लिए नीरज का नाम लगातार तीन साल 1970 से 1972 तक नामांकित किया गया और साल 1970 में उन्हें फिल्म ‘चंदा और बिजली’ फिल्म के गीत ‘काल का पहिया घूमे रे भइया’ के लिए यह प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला।
नीरज ने भले ही फिल्मों में कम गीत लिखे, लेकिन इन गीतों में भाषा के स्तर पर उन्होंने तरह-तरह के मौलिक प्रयास किए। फिल्मी गीतों पर जब उर्दू जबान पूरी तरह से छाई हुई थी, उन्होंने शुद्ध हिन्दी के गीत लिखे। जो लोगों को पसंद भी आये।
वे नीरज ही थे, जिन्होंने फिल्मी गीतों के इतिहास में पहली बार फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में छंद मुक्त कविता ‘‘ऐ भाई जरा देख के चलो…’’ को गीत के तौर पर इस्तेमाल किया और यह गीत खूब हिट हुआ।
चुप-चुप अश्क बहाने वालो
मोती व्यर्थ लुटाने वालो
कुछ सपनों के मर जाने से
जीवन नहीं मरा करता है।
कालजयी गीत लिखने वाले गीतों के जादूगर नीरज का कहना था कि ‘‘कविता अपने प्रशंसक और लोकप्रियता तभी कायम रख सकती है, जब कविता उसी भाषा में हो, जिस भाषा का श्रोता वर्ग या पाठक वर्ग हो। कविता में श्रोता के हृदय की भाषा हो। जनता की भाषा हो।
आप उसी भाषा में कहें, जो उसे समझ आये। कविता जब देश के सामूहिक, देशीय संस्कार को स्पर्श करेगी, तभी हृदय में बैठेगी।”
19 जुलाई, साल 2018 को नीरज ने इस जहान-ए-फानी से अपनी आखरी रुखसती ली। उन्होंने 93 साल की लंबी जिन्दगी जी, सैकड़ों अर्थपूर्ण गीत लिखे और अपने गीतों से पाठको और श्रोताओं को नये संस्कार दिए। उनके जाने से जैसे कवि संमेलनों का नूर ही चला गया।
वह पुरअसर आवाज खामोश हो गई, जो श्रोताओं के कानों में मिश्री घोलती थी। नीरज आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका एक नहीं, अनगिनत गीत ऐसे हैं जो श्रोताओं और पाठकों के जेहन में कल भी जिन्दा थे, आज भी जिन्दा हैं और आगे भी रहेंगे।
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।