हैदरअली वह पहला भारतीय शासक है जिसने वर्णव्यवस्था को चुनौती देकर दलितों के लिए कानून बनाया। दलितों को शस्त्र का अधिकार देने के साथ कई असामाजिक, अमानवीय प्रथाओं पर उने रोक लगाई थी। सामाजिक सुधार और सौहार्द कि हैदरअली कि नीति भारत के सामाजिक इतिहास में दुर्लक्षित है। सरफराज अहमद ने ‘उस्मानिया विश्वविद्यालय’ में दिये भाषण का कल पहला भाग प्रकाशित किया था, आज दूसरा भाग –
सावरकर अपनी कई किताबों में पेशवाओं का समर्थन करते हैं, कुछ जगह उन्होंने पेशवोओं के लिए हिन्दू धर्मवीर, धर्मरक्षक, राष्ट्रसंरक्षक जैसी उपाधियों का प्रयोग किया है। तो दूसरी ओर टिपू सुलतान और हैदरअली को हिन्दुओं का प्रपिडक और राष्ट्रविरोधी करार दिया है।
सावकर का इतिहास अध्ययन धार्मिक और राजनैतिक स्वार्थ पर निर्भर था। जिनके समर्थन में वे शब्दों का अवडंबर प्रस्तुत करते हैं, उन्हीं पेशवाओं ने हैदरअली के साथ हुए संधी को तोडकर अंग्रजों से हाथ मिलाया था। इस महत्त्वपूर्ण संदर्भ को सावरकर ने दुर्लक्षित किया है।
यह बात उस वक्त कि है, जब पेशवाई के एक नाराज सदस्य राघोबा ने पेशवा बनने की मनोकामना से अंग्रेजों कि मदद लेकर पुणे पर हमला किया था। पेशवाओं के सामने अंग्रेजी संकट रौद्र रुप धारण कर रहा था।
उस वक्त नाना फडणवीस ने हैदरअली और निजाम हैदराबाद के समक्ष भारतीय राजाओं के सार्वभौमत्त्व कि चिंता प्रस्तुत की। दोनों को उसने अंग्रेजों के खिलाफ महासंघ कि योजना से अवगत कराया और साथ ही भारतीय सत्ताओं कि एकता का नारा भी दिया।
इस प्रस्ताव को हैदरअली और निजाम हैदराबाद ने स्वीकार किया। इसी महासंघ में नागपूर के महादजी शिन्दे को भी जोडा गया। ईसवीं 1779 में एक लिखित करार के बाद पेशवा, हैदरअली, निजाम और महादजी का अंग्रेजविरोधी महासंघ वजूद में आया। इस करार से तय पाया था कि, महासंघ का कोई सदस्य अंग्रेजों से व्यक्तिगत तौर पर किसी तरह कि संधी नहीं करेगा।
पढ़े : अंग्रेजों के विरुद्ध हैदरअली और टिपू सुलतान का संघर्ष
पढ़े : हैदरअली ने बनाया था पहला ब्रिटिशविरोधी महासंघ
पेशवाओं कि गद्दारी
जंग कि शुरुआत हुई, हैदरअलीने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोला। उसी वक्त हैदरअली के पीठ पर कैन्सर कि जख्म हुई, कई हकीम और फ्रान्सीसी डॉक्टर के इलाज के बावजूद यह जख्म ठिक न हो सकी। इस खतरनाक बिमारी के बावजूद हैदरअली ने भारतीय हुक्मरानों के हक में अंग्रजों के खिलाफ छिडे युद्ध से मुंह नही मोडा।
अंग्रेज हमेशा से पेशवाओं और निजाम की मदद लेते रहे थे। मगर इस वक्त अंग्रेजविरोधी महासंघ कि वजह से हैदरअली के समर्थन में आने की कसमें निजाम–पेशवाओं ने ले रखी थी।
इस महासंघ की पूर्ण कल्पना अंग्रेजों को हो चुकी थी। इस वर्तमान स्थीतियों को स्वीकार कर धूर्त अंग्रेजों ने निजाम, भोसले, सिंधिया और पेशवाओं के सामने व्यक्तिगत तौर पर संधी का अलग अलग प्रस्ताव रखा, अंग्रेजविरोधी महासंघ के सदस्य होने के बावजूद सभी ने अंग्रजो से दोस्ती के लिए हाथ बढाया।
निजाम को गंटूर वापस मिलने कि वजह से वह महासंघ से दूर हो गया। कुछ लाख रुपये देकर महादजी को भी अंग्रेजो ने अपने साथ कर लिया। अक्तूबर 1781 में बडोदा के गायकवाड से एक अलग संधी कर ली गयी। इसके बाद पेशवाओं के साथ 17 मई 1782 को अंग्रजो ने ‘सालबाई संधी’ को अंतिम स्वरूप दे दिया।
अंग्रेजो ने हैदरअली से भी संधी की कोशिशे की मगर वह आखिर तक जंग लडने पर अडीग रहा। आखिरकार जंग के मैदान में कैन्सर और दुश्मनों से लढते हुए 7 दिसंबर 1782 को हैदरअली ने नरसिंह नारायण पेठ की छावनी में आखरी सांस ली।
मगर अंग्रेजों से स्वतंत्रता कि सौदेबाजी न करने की अपनी पुरानी भूमिका पर वह मजबूती से डटा रहा। आश्चर्य कि बात यह है कि हैदरअली और टिपू सुलतान के आलोचक इस घटनाक्रम को दुर्लक्षित करते हैं और पेशवाओं, जो कि स्वतंत्रता के सौदेबाज थे, उनके पक्ष में खडे होते हैं।
पढ़े : ‘हिन्दोस्ताँनी राष्ट्रीयता’ का सम्राट अकबर था जन्मदाता
पढ़े : भारतवर्ष ने विदेशी हमलावरों को सिखाई तहजीब
राज्य विस्तार
जिन्दगी के आखरी लम्हों तक हैदरअलीने कुछ गावों तक सिमित मैसूर रियासत का त्रावणकोर, मद्रास, धारवाड तक विस्तार किया। कुछ मिल का प्रदेश जिस राज्य के अधिकारक्षेत्र में था, वह राज्य हैदरअली के प्रयास कि वजह से 80 हजार वर्ग मिल तक फैला। ईसवीं 1749 में एक साधारण सिपाही के रुप में अपने सफर कि शुरुआत करनेवाले हैदरअली ने मात्र 33 वर्ष के राजनैतिक सफर में एक सल्तनत कि नींव रखी।
राजनीति से जिसका कोई सरोकार न था, ऐसे सामान्य परिवार में जन्मे हैदरअली ने दस से ज्यादा राजसत्ताओं को अपने सामने झुकने पर मजबूर किया। हैदरअली ने मात्र 18 साल का राजनीतिक सफर तय करने के बाद एक विशाल लष्कर के निर्माण में कामयाबी हासिल कि थी, सन 1768 में हैदरअली के लष्कर में 11 हजार घुडसवार, 12 हजार सिपाही, 8 हजार हरकारे, कारागीर, व्यवस्थापन विभाग के तज्ज्ञों के अलावा तोफखाने में 10 हजार बैल, 100 हाथी और 800 उंट थे।
इस विशाल सेना के साथ दक्षिण कि एक महासत्ता के रुप में हैदरअली ने मैसूर को खडा किया। जिन्हें सत्ता विरासत में न मिली, मगर अपने कर्तृत्व से जो एक राज्य के अधिपती बन गए ऐसे विश्व कें चंद राज्यनिर्माताओं में हैदरअली को उंचा मकाम प्राप्त है।
पढ़े : हसन गंगू कैसे बना नौकर से बहामनी का सुलतान?
पढ़े : शहेनशाह हुमायूं ने लगाया था गोहत्या पर प्रतिबंध
सौहार्द का प्रतीक
‘सल्तनत ए खुदादाद’ हैदरअली द्वारा स्थापित उसका अपना राज्य था और किसी धर्म से प्रेरित नहीं था। हैदरअली के प्रशासन और सैन्य में काफी महत्त्वपूर्ण पदों पर हिन्दू धर्मियों की संख्या मुसलमानों कि तुलना में अधिक थी। हिंदू धर्म कि श्रद्धाओं का हैदरअली आदर करता था। मैसूर के विख्यात दशहरे में वह खुद शिरकत करता।
बदनूर कि जीत के बाद वहां कि टंकसाल में बनने वाले सिक्कों पर मुद्रित हिन्दू देवताओं कि छवी उसने बरकरार रखी। श्रीरंगपट्टणम के श्रीरंगनाथ स्वामी मंदिर के बर्तन जो आज भी इस्तमाल में लाए जाते हैं, हैदरअली कि तरफ से दी हुई भेट हैं। देवनहल्ली के मंदिर को दिए गए जेवरात हैदरअली के धार्मिक सहिष्णुता का प्रतीक हैं।
श्रीगीरी के मंदिर में नवाब हैदरअली के तीन सनद मौजूद हैं, इसमें एक खत 1769 में हैदरअली ने यहां के स्वामी को लिखा था, जिसमें हैदरअली कहता है –
“आपने बालाजी पट्टणा, व्यंकटरामय्या के जरिए जो सूचना दी है उससें आगाही हुई, आपकी शख्सियत वाजिबुल तहजीम और आपका तखद्दुस बाईस ए बरकत है। यह कुदरती बात है कि हर शख्स के दिल में आपसे मिलने और सआदत हासिल करने कि ख्वाहिश पैदा हो।
मालूम हुआ कि सहाब ए रघुनाथराव पेशवा ए पुना आपसे मिलना और आपकी खिदमत करना चाहते हैं। उन्होंने मुझसे दरख्वास्त कि है कि आपको इनके पास बगर्ज मुलाकात भेजा जाए। इसलिए मैं अब आपसे दरख्वास्त करता हूं की आप पुना तशरीफ ले जाकर सहाब ए मौसुफ कि ख्वाहिश पुरी करें आपके इस सफर के लिए एक हाथी, एक पालखी, पांच घोडे और पांच उंटो का इंतजाम कर दिया गया है।
इनके अलावा देवता के लिए जरीन कपडे, आपके अलम (निशान) के लिए पांच रेशमी थान, और खास आपके लिए दो खिलअते और एक जोडी शाल भी अरसाल ए खिदमत है। इखराजात ए सफर (प्रवास खर्च) के लिए साडे दस हजार रुपये अरसाल हैं।”
इसके अलावा व्हयसूर के मंदिर को सन 1761 में हैदरअली ने एक बडी जागीर प्रदान कि थी। उसके बाद दो बार इसी मंदिर कि मरम्मत और नई इमारतों को बांधने के लिए आर्थिक मदद भी कि थी।
पढ़े : क्या हैदरअली ने वडियार राजवंश से गद्दारी की थी?
पढ़े : टिपू सुलतान रोज नाश्ते पहले मंदिर क्यों जाता था?
राजनीतिक सुधार
हैदरअली के हिन्दुओं से संबंध राजनैतिक सद्भावना तक सिमित न थे। वह अपने प्रजा में सुधार और उनके जीवन को उन्नत करने कि हर वक्त कोशिश करता रहा। कृष्णराज वडियार के दौर में निरंकुश शासन कि वजह से हर गांव पर जमीनदार और जागीरदारों के कब्जे थे।
मालगुजारी की कोई व्यवस्था न थी। जरुरत पडने पर वक्त बेवक्त यह पालीगार और जमीनदार लोगों को लुट लेते। हैदरअली ने सत्ता में आते ही नई मालगुजारी व्यवस्था शुरु की, किसानों को लाभ पहुंचाने वाली कई योजनाएं उसके दौर में कार्यान्वित हुई। प्रशासन में बदलाव भी किए गए। शहरों में औरतों कि खरिद-फरोख्त चरम पर पहुंच गई थी, इसकी मंडिया लगती थी। हैदरअली ने इसपर रोक लगाई।
वर्णव्यवस्था के खिलाफ कानून
नायर जाती को दकन कि वर्णव्यवस्था में ब्राम्हणों के समान सामाजिक स्थान प्राप्त है। हैदरअली से पहले इन्हीं नायरों कि वजह से अछुतों को सामाजिक अपमान सहन करना पडता। अछुतों से कई सामाजिक अधिकार छिन लिए गए थे।
ईसवी 1761 में जब हैदरअली कोयम्बटूर के करीब अपने लष्करी मुहीम में व्यस्त था। तब उसने नायरों के जरिए हो रहे सामाजिक अन्याय का स्वयं अनुभव किया।
उसे कई बार सरकश नायरों के खिलाफ तलवार भी उठानी पडी। इसी समय उसने दलितों के हक में नायरों कि ओर से हो रहे अन्याय को रोकने के लिए उसने ‘जातिप्रथा विरोधी’ नया कानून बनाया। विषमता के विरुद्ध सामाजिक न्याय के लिए भारत के किसी शासक ने बनाया हुआ शायद यह पहला कानून था, जिसमें हैदरअली ने स्पष्ट रुप से तीन आदेश दिए थे, जिसमें दर्ज था –
1) ब्राम्हणों के बाद नायरों को उच्च सामाजिक स्थान प्राप्त है, लेकीन वह आईंदा से कम दर्जे में गिने जाएं ।
2) दलित अवाम को नायरों के जुलूस में नंगे पाव दौडना पडता है, यह मानवता विरोधी रस्म है, जिसपर रोक लगा दि जाती है।
3) इससे पूर्व सिर्फ नायर ही हथियार बांधते थे, अब दलितों को भी हथियार बांधने का हक रहेगा।
हैदरअली अनपढ जरुर था मगर एक सैनिक के रुप में उसने अपना प्रशिक्षण युरोपीय सैनिक शिवीरों के निरिक्षण द्वारा पुरा किया था। प्रशासन कि समझ भी उसने फ्रान्सीसीयों से प्राप्त कि थी। उसके सुधार कार्यक्रम पूरी तरह नव-विचारों से प्रेरित थे।
हैदर के द्वारा स्थापित ‘सल्तनत ए खुदादाद’ आधुनिक विचारों से प्रेरित भारतीय राज्य था। जिसने भारत में औपनिवेशी अंग्रेज शासन के हस्तक्षेप को अस्वीकार कर, उसे जड से उखाड फेंकने के अथक प्रयास किए।
अगले भाग के लिए यहां क्लिक करे
जाते जाते :
* अशोक महान हो सकते हैं तो टिपू सुलतान क्यों नहीं?
* … तो कर्नाटक का शिवाजी रहता टिपू सुलतान
लेखक युवा इतिहासकार तथा अभ्यासक हैं। मराठी, हिंदी तथा उर्दू में वे लिखते हैं। मध्यकाल के इतिहास में उनकी काफी रुची हैं। दक्षिण के इतिहास के अधिकारिक अभ्यासक माने जाते हैं। वे गाजियोद्दीन रिसर्स सेंटर से जुडे हैं। उनकी मध्ययुगीन मुस्लिम विद्वान, सल्तनत ए खुदादाद, असा होता टिपू सुलतान, आसिफजाही इत्यादी कुल 8 किताबे प्रकाशित हैं।