तानाजी मालुसरे का इतिहास हुआ सांप्रदायिकता का शिकार

फिल्म ‘तानाजी: द अनसंग वॉरियर’ के बाद मराठा साम्राज्य के जाबाँज योद्धा तानाजी मालुसरे फिर एक बार चर्चा में हैं। इस बार भी इस ऐतिहासिक कथा के साथ फिल्मी अभिव्यक्ती ने इतिहास को तोड मरोडकर पेश करने का बडा गुनाह किया।

जिसके बाद मराठा साम्राज्य के इतिहास को प्रपोगंडा मशिनरी से बचाने कि जिम्मेदारी के तहत देखा जा रहा रहा हैं। परंतु ऐतिहासिक पात्रों का व्यक्तित्व फिल्मी किरदारों से विकृत होता नही हैं, परंतु यह घटना लोगों के दिमाग में यह भ्रम जरूर पैदा करती है की,  यही इतिहास हैं। इसीलिए इसे एक चॅलेंज के तहत देखा जाना चाहीए।

तानाजी फिल्म पर बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा हो रहे टिप्पणी के बाद अभिनेता सैफ अली खान ने एक बयान जारी किया, जिसमें उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा कि इस तरह कि प्रपोगंडा फिल्में आगे से नही करुंगा।सैफ़ ने इस बात को स्वीकार किया है कि, फिल्म तानाजी में इतिहास की ग़लत व्याख्या की गई है। उन्होंने यह भी माना कि किसी भी फ़िल्म की व्यावसायिक सफलता में इतिहास की ग़लत व्याख्या को एक साधन के रुप में इस्तेमाल किया जा रहा है।

वैसे देखा जाए तो सैफ ने बहुत देर के बाद यह भूमिका ली, क्योंकि फिल्म लोगों के दिलों में अपना स्थान बनाकर करोडों का मुनाफा कमा चुकी थीं। फिल्म के अनेक किरदार अपनी वास्तविकता से काफी दूर हैं। जिसे लेकर काफी दिन तक विवाद जारी हैं।

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कौन थें तानाजी?

तानाजी मालुसरे और कोंढाणा किले के बारे मे अनेक दंत कथाएं सिंहगढ परिसर और महाराष्ट्र में प्रचलित हैं। तानाजी मराठा साम्राज्य के वे महान योद्धा थें, जिन्होंने फर्ज के आगे परिवार कि जिम्मेदारीयों को बेतुका समझा। जिसके लिए वह इतिहास के एक अमर पात्र के रूप में हर पिढी के बच्चो के जुबान पर छाए रहते हैं।

शिवशाही इतिहास के इस योद्धा तानाजी मालुसरे का आज 4 फरवरी को स्मरण दिन हैं। तानाजी मालुसरे का जन्म 1626 इसवी में सातारा जिले के जावली तालुका में स्थित गोडवली गांव मे हुआ था। तानाजी छत्रपति शिवाजी महाराज के घनिष्ठ मित्र और निष्ठावान सरदार थें। तानाजी मालुसरे को खासतौर पर कोंढाणा (सिंहगढ़) किले कि फतेह (1670) के लिए जाना जाता हैं।

सिंहगढ़ शिवशाही साम्राज्य के इतिहास मे एक अदभूत किला रहा हैं। इस किले पर आज भी हर दिन सैलानीयों का जमावडा लगा रहता हैं। महाराष्ट्र और बाहर के बहुत से सैलानी किले को ट्रैकिंग के लिए पसंद करते हैं। पुणे शहर से 32 किलोमीटर दूरी पर दक्षिण पश्चिम के हवेली तहसील में सिहगढ़ किला स्थित हैं। जिसकी उंचाई समुद्र सतह से 4400 है। किला लगभग 70,000 वर्गमीटर क्षेत्रफल में फैला हैं। इस किले का एक द्वार पुणे और दूसरा कल्याण शहर कि ओर खुलता हैं।

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किला छुडाने की जिम्मेदारी 

शिवाजी महाराज के पास बड़ी संख्या में इस तरह के किले थें। लेकिन धीरे धीरे मुगलों ने अपने साम्राज्यविस्तार के तहत तकरीबन 23 किले अपने अधीन कर लिए। कहा जाता है कि, पुरंदर के किले को बचा पाने में असमर्थता को देखते हुए शिवाजी महाराज ने महाराजा जयसिंह से 22 जून 1665 इसवी में संधिकी। जिसके तहत कोंढाणा किला मुगलों को देना पड़ा। किला 1665 में राजपूत कमांडर जय सिंह प्रथम के नेतृत्व में मुगलों के अधीन आ गया।

इतिहास कहता हैं कि, शिवाजी महाराज से पहले भी कई राजाओं ने कोंढाणा किले पर राज किया था। यह किला जब आदिलशाह के पास था तब दादोजी कोंडदेव इस किले के सुभेदार थें। यहीं पर आदिलशाह ने लश्कर का केंद्र बनाया था। शिवाजी महाराज के समय यह किला उनके कब्जे में था।

मराठी इतिहास के किताबों मे लिखा गया है कि, इस संधि के बाद जब शिवाजी महाराज सन 1665 मे औरंगजेब से मिलने आगरा गए तो वहां धोखे से उन्हें बंदी बना लिया गया। उसके बाद महाराज आगरा से नाटकिय ढंग से फरार हो गए और महाराष्ट्र पहुंचे। जिसके बाद उन्होंने उस पुरंदर संधि को मानने से इनकार कर दिया। इसके तहत महाराज यह किला मुघलों से वापिस पाना चाहते थे। जिसकी जिम्मेदारी उन्होने अपने सरदार तानाजी मालुसरे को दी।

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मराठाओं की फतह

तानाजी के घर उस समय अपने पुत्र रायबा के विवाह कि तैयारियां चल रही थी, परंतु महाराज का आदेश पाकर तानाजी ने पुत्र विवाह के कार्य का महत्व कोंढाणा जितने से कमतर समझा। तानाजी के मामा और मराठाशाही के सरदार शेलार मामा ने तानाजी को रायबा की शादी करने के बाद कोंढाणा किले मुहिम पर जाने की सलाह दी। लेकिन तानाजी ने कहा आधी लग्न कोंढाण्याचं मग रायबाचं’ (पहले कोंढ़ाणा मुहिम बाद में बेटे की शादी)

तानाजी ने शिवाजी महाराज की इच्छा का मान रखते हुए अपने भाई सूर्याजी को साथ लेकर करीब 342 सेना के साथ 4 फऱवरी 1672 को अपनी सेना के साथ कोंढ़ाणा किले पर आक्रमण किया। किले की दीवार इतनी सीधी पेचिदा थी कि उसपर आसानी से चढ़ना असंभव था। इस किले को संरक्षित करने के लिए करीब 5000 मुघल सैनिक तैनात थें।

किले के नीचे पहुंचने के बाद तानाजी योजना के तहत रस्सी की मदद से इस किले के अंदर दाखिल होने में सफल हुए। बारी-बारी से तानाजी की पूरी सेना इस किले में दाखिल हो गई और युद्ध छिड़ गया।

इस बीच उदयभान राठौड़ (किले की रखवाली करने वाले राजपूत सेनापति) को जब इसका पता चला तो उन्होंने तानाजी पर हमला किया। तानाजी और उदयभान के बीच घमासान युद्ध हुआ। इस हमले में तानाजी की ढाल टूट गई। लड़ाई में तानाजी, उदयभान द्वारा मारे गए और वीरगति को प्राप्त हुए। लेकिन अंत में मराठाओं ने इस किले पर फतह हासिल की और मराठा ध्वज फहरा दिया गया।

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इतिहास के विवाद

मराठाओं ने मुघलों को हराकर यह किला जीत लिया लेकिन इसमें तानाजी को अपनी जान गवांनी पड़ी। वह दिन था 4 फरवरी 1670, याने आज से 350 साल पहले का। जब शिवाजी महाराज को यह संदेश मिला तो उन्होंने कहा कि, “गड आला पण सिंह गेला” (किला मिला लेकिन शेर नहीं रहा) इसके बाद उन्होंने तानाजी की याद में इस किले का नाम सिंह (शेर) गढ़ रखा। सिंहगढ़ पर तानाजी का स्मारक भी बनाया गया है।

4 फरवरी का दिन इतिहास मे तानाजी के बलिदान दिवस के रूप मे जाना जाता हैं। मगर कुछ इतिहासकारों का मानना है की, इस किले का सिंहगढनाम आदिलशाही में इस युद्ध के पूर्व भी प्रचलित था। आदिलशाही दरबार के कुछ फर्मान में भी इतिहासकारों के इस तर्क की पुष्टी होती है।

जबकि तानाजी फिल्म मे इसके उलट दिखाया गया हैं। वैसे बॉलीवूड कि ऐतिहासिक किरदारों वाले फिल्मों पर विवाद काफी पुराना रहा हैं। सिने अभिव्यक्ती और मास मीडिया में लोगों मे पैठ बनाने के उपकरण के रुप में ऐतिहासिक फिल्मों मे तथ्यों से छेडछाड करना आम मानी जाती हैं।

तीन साल पहले संजय लीला भन्साली के पद्मावती (2017) (विरोध के चलते बाद में उसका नाम पद्मावत किया गया) के समय पुरे भारत में करनी सेना द्वारा उत्पात फैलाया गया था। छह महिने से ज्यादा यह विरोध प्रदर्शन चले। इसपर न सरकार ने मध्यस्थता की और न ही फिल्म और सेन्सार बोर्ड से संबंधित कोई संस्था नें।

राजनीतिक विश्लेषक कहते रहे कि गुजरात के विधानसभा चुनाव के चलते सरकार कोई फैसला लेने से बची रही। पर तब तक विरोध प्रदर्शनों से देश की करोडों कि संपत्ती खाक हो चुकी थीं।

यही मसला आशुतोष गोवारीकर के जोधा-अकबर (2008) के समय भी उभरा था, जोधाबाई के वंशजो का मानना था कि वह सम्राट अकबर कि पत्नी नही थीं। परंतु तमाम विरोध के बाद फिल्म पिछे नही ली गई और विवाद के बाद करोडो का मुनाफा कमा लिया।

इस घटना पर प्रसिद्ध इतिहासकार हरबन्स मुखिया ने बीबीसी से कहा था, “जोधा-अकबर फ़िल्म में जिस जोधा बाई को अकबर की पत्नी के तौर पर दिखाया गया, वो जोधा बाई नाम की कोई महिला थी ही नहीं। पद्मावत में भी अलाउद्दीन ख़िलजी को एक अय्याश मुस्लिम शासक के तौर पर दिखाया गया, जो कि सच्चाई से बिलकुल उलट हैं।”   

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तथ्य को क्यो जाता हैं मरोडा?

आमतौर पर नॉन फिक्शन एक तो अकादमिक भाषा या कल्पना में लिखा जाता हैं, अगर वह कल्पना हैं, तो उसे इतिहास नही माना जाता। ऐसे में नॉन फिक्शन इतिहास को सिनेअभिव्यक्ती के नाम पर तोडा और मरोडा जाता हैं, क्योंकि निर्माताओ को अपनी फिल्म मनोरंजक और बिकाऊ बनानी होती हैं।

इस परिस्थिती में इतिहास के साथ छेडछाड की जाती हैं। फिल्म चलती हैं और पैसा भी कमाती हैं। पर पिछे छोड जाती हैं झुठा नरेशन और उसका इतिहास। जिससे लोगों मे यह भ्रम बना रहता हैं कि जो बताया गया वहीं इतिहास हैं। इस तरह कि फिल्मे इतिहास कि तरफ देखने का गलत नजरिया विकसित करती हैं।

आम लोग इतिहास के किताबों से दूर रहते हैं, वह फिल्म का इतिहास ही सच मान लेते हैं। आम तौर पर मुसलामानों के इतिहास के साथ ज्यादा छेडछाड कि जाती हैं। कुछ दक्षिणपंथी विचारक इसी काम में लगे रहते हैं।

जिनमें एस. के. पारुथी, आर.सी. मुजूमदार, पी.एन.ओक जैसे इतिहासकारों समावेश होता है। दुसरी तरफ कई वास्तववादी इतिहासकार पी. एन. ओक के ताजमहल को तेजोमहलय कहने के तर्क को बेवकुफी भरा मानते हैं, पर इस झुठ का कोई इनकार भी नही करता। किताब बाजार में धडल्ले से खरेदी और बेची जाती हैं।

इन सभी विवादित फिल्मों को गौर से देखे तो इसमें मुसलमानों का विकृत चित्रण किया गया हैं। जैसे लगता है, मुसलमानों का विलेन के रुप में स्थापित करना इन फिल्मों का मकसद हो। पहले इतिहास कि किताबों के माध्यम से मुसलमानों पर लांच्छन लगाये जाते पर बाबरी विध्वंस के बाद फिल्मे और सिरियल्स के माध्यम से मुसलमानों को डरावना, विकृत, हिंसक और दहशत फैलाना वाला बताया जा रहा हैं।

2002 के अमरिका हमले के बाद दुनियाभर में इस्लाम फोबिया तेजी से फैला जिसके द्वारा विश्वभर में मुसलामानों के खिलाफ जहर उगलने का सिलसिला शुरू हुआ जो अब तक चल रह हैं।

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क्या कहते हैं विश्लेषक?

पद्मावत फिल्म को लेकर मचे विवाद के समय महाराष्ट्र के सामाजिक विश्लेषक प्रो. फकरुद्दीन बेन्नूर ने कहा था, “मुसलमानों के सामाजिक चरित्र का विकृतीकरण करने के लए अब बॉलीवूड बडे पैमाने पर आगे आ रहा हैं, इसे इतिहास कि भाषा में जवाब नही दिया गया तो इनका हौसला बढ सकता हैं।

फिल्म तानाजी के बाद हरबन्स मुखिया ने कहा था, “किसी भी शासक को हम धर्म के चश्मे से कैसे देख सकते है? अकबर के सबसे ख़ास राजा मान सिंह थे। औरंगज़ेब के ज़माने में राजा जसवंत सिंह और जय सिंह सबसे ख़ास रहे। मराठे भी भरे हुए थे। मध्यकाल में कोई मुस्लिम शासन नहीं था। मुसलमान शासक ज़रूर थे लेकिन उस शासन में हिन्दू भी निर्णायक पदों पर थे. फ़िल्में बाज़ारू हो सकती हैं लेकिन इनमें इतिहास को बाज़ारू नहीं बनाया जा सकता है।

 

सच बात तो यह है कि इतिहास को फिल्मों ने बाजार बनाकर बनाकर ही पेश किया। सन 2002 में क्रांतिकारक भगतसिंग के लेकर बडा फिल्मी बाजार खडा किया गया था। एक साथ 8 फिल्मे उस साल बाजार में आई थी, जिसमें राजकुमार संतोषी द्वारा बनाई द लेजेंड ऑफ भगत सिंह’, भी एक थी। संतोषी के साथ विवाद के बाद अभिनेता सनी दिओल ने  भी 23 मार्च 1931 : शहीद और शहीदे आजम (सोनू सूद) प्रमुख रही। एक साथ आठ फिल्में बाजार में आना इतिहास का बाजार ही था।

उपन्यास, नाटक और फिल्में इतिहास को लेकर भारत के इतिहास में हमेशा से मनोरंजक तथ्य प्रस्तुत करती रही हैं। फासीवादी पक्ष और विचारधारा के हित में उन्होंने सियायी नजरियें को विकसित किया है। जिसने भारतीय समाज के भविष्य का घिनौंना खेल खेला है। 

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