अल बेरुनी (Al-Biruni) का पूरा नाम ‘अबू रैहान मुहंमद इब्न-ए-अहमद अल बेरुनी’ था। उसका जन्म ख़्वारज़्म में 973 सदी ईसवीं में हुआ। अपने जन्म स्थान में रहते हुए ही उसने राजनीति में तथा विज्ञान और साहित्य में अच्छी ख़्याति प्राप्त कर ली थी।
अन्य मध्य एशियाई राज्यों की भाँति ख़्वारज़्म (Dynasty of Khwarezm) भी सुलतान महमूद की मुंह का निवाला बना और जब 1017 ईसवीं में ख़्वारज़्म उसके हाथों में चला गया तो अल बेरुनी राजनीतिक कैदी बना कर कुछ ख़्वारज़्मी शहजादों के साथ, जिनका कि वह विरोधी था, हिन्दुस्तान में भेज दिया गया।
इस देश में उसे जैसा जीवन गुजारना पड़ा उसका पूरा अंदाज लगाना मुश्कील है। वैरियों के प्रति रोष के बावजूद उसने अपने लेखों की वैज्ञानिक निष्पक्षता में भेद नहीं आने दिया है। हाँ, केवल सुलतान महूमद की चर्चा करते समय कुछ नाखुशी का परिचय देता है।
यह साफ है कि उसे स्वेच्छा पूर्वक भ्रमण करने की आज्ञा नहीं थी। संवदेना भी थी। परंतु हिन्दू पंडितों से मिलने-जुलने की उसे आज़ादी थी और यद्यपि उस समय उसकी उम्र 44 साल की थी, उसने थोड़े ही समय में हिन्दू दर्शन और विज्ञान के सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त कर लिया और संस्कृत व्याकरण, काव्य तथा साहित्य की भी उतनी जानकारी प्राप्त कर ली जितनी एक विदेशी के लिए मुमकीन थी।
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ज्योतिष संबंधी कार्य
हिन्दुओं के दर्शन विज्ञान और सामाजिक संस्थाओं पर लिखने वाले मुसलमानों में अल बेरुनी निःसंदेह सबसे महान हैं। ‘किताबुल हिंद’ (Tārīkh al-Hind) उसकी किताब नाम है। इसके मुकाबले की, प्राचीन या अर्वाचीन, इतने निष्पक्ष भाव से लिखी गई, इतनी व्यापक और ज्ञान के विस्तार और विभिन्नता का ऐसा परिचय देनेवाली शायद ही कोई दूसरी किताब हो।
अल बेरुनी का ज्योतिष संबंधी कार्य, मध्ययुग के मुसलमानों के, इस विषय के ज्ञान का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। अपनी जानकारी का दावा करना उस के लिये स्वाभाविक था। वह लिखता है-
“हिन्दू ज्योतिषियों का और मेरा पहले गुरु शिष्य का संबंध था। मैं विदेशी था और उन के विशिष्ट जातीय तथा परंपरागत वैज्ञानिक रीतियों से अपरिचित। जब मैंने थोड़ी बहुत उन की विद्या भी सीख ली तब मैं उन्हें इस विज्ञान के मूलों को समझने लगा। उन्हें गणित के वैज्ञानिक ढंग और तर्क शास्त्र के नियमों से परिचित करने लगा।”
“फिर तो वे सभी भागों से आकर मुझे घेरे रहने लगे, आश्चर्य प्रकट करते, मुझे से सीखने के लिये उत्सुक रहते, यह भी पूछते कि मैं ने किस हिन्दू गुरु से यह ज्ञान प्राप्त किया है। मैं तो वास्तव में उन का खंडन करता था, मैंने अपने आप को उनसे श्रेष्ट बताया और उनकी बराबरी में रक्खा जाना पसंद न किया। उन्होंने मुझे जादूगर समझा। अपनी भाषा में अपने प्रमुख लोगों से मेरी चर्चा करते हुए वे लोग मुझे सागर कहा करते थे।”
कोई भी जातीय अथवा धार्मिक पक्षपात किताबुल हिन्द की दार्शनिकता में भेद नहीं आने देता। इसमें पढ़ने वालों को मध्य-युग की संस्कृति तथा सामाजिक इतिहास की प्रचूर सामग्री मिलेगी। हिन्दुस्तान में आने से बरसों पहले उसने यूनानी दर्शन शास्त्र का ध्यान पूर्वक मनन किया था। इस शास्त्र का वह पूर्ण ज्ञान प्रदर्शित करता है।
इस अध्ययन का परिणाम यह हुआ कि उस ने अपने सहधर्मों के अनेक तुच्छ पक्षपातों और क़ुरआन की इस समय कि प्रचलित मूर्खता पूर्ण व्याख्या को अलग रख दिया। हिन्दुस्तान में जो कुछ ज्ञान उसने सीखा, उससे यह बात उसके विचारों में स्पष्ट हो गई कि यूनानी दार्शनिकों, मुस्लिम सूफ़ियों और हिन्दुस्तान के विचारकों में एक सामंजस्य है।
इस विचार ने ईश्वर के प्रति उस के विश्वास को दृढ़तर बना दिया और सभी प्रकार के मूढ़ विश्वासों के प्रति उस के हृदय में बड़ी घृणा उत्पन्न कर दी। उसकी किताब से आने वाले युग के अंधकार के दुखमय आभास का पता चलता है।
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बुद्धिमान भविष्यदर्शी
राजपूतों के प्रभुत्व से हिन्दू दर्शन (Hinduism) और विज्ञान (Science) का ऱ्हास होने लगा था। उसे शक था कि तुर्की राज्य के उदय होने पर, राजाओं और मुल्लाओं के संमिलित प्रभावों से नीति और राजनीति के भावो का जो हनन होगा उससे इस्लाम की भी यही दशा हो जाएगी।
नए-नए राजे तुकबंदीं के ऊपर मोती और जवाहिरात भले ही लुटावे, लेकिन उन से वैज्ञानिकों का कोई लाभ न होगा। वह लिखता है- “विद्याओं की संख्या बहुत अधिक है। यह संख्या और भी बढ़ सकती है, यदि जनता अपनी उन्नति के दिनों में इस ओर ध्यान दे, और न केवल विद्याओं का आदर करें वरन् उन लोगों का जो इन विद्याओं के ज्ञाता है। यह कर्तव्य, सर्व प्रथम, शासकों का, राजाओं और शहजादों का हैं।”
“क्योंकि वे ही उन के जीवन-निर्वाह का प्रबंध करके विद्यानुरागियों को नित्य की चिंताओं से मुक्त करने में समर्थ हो सकते है। परंतु यह ज़माना ऐसा नहीं है। वे लोग तो इस के विपरीत करते हैं। यह संभव नहीं कि हमारे समय में कोई नई विद्या उदय हो या कोई शोध का कार्य हो सके। हमारे (मुसलमानों के) पास जो भी विद्या हैं पूर्व काल के अच्छे दिनों की अवशेष मात्र है।”
एक निराधार परंपरागत पूर्वीय धारणा है कि अल बेरुनी एक अच्छा ज्योतिर्विद और भविष्यदर्शी था। कम से कम अपनी इस सब से बड़ी भविष्यवाणी में यह बुद्धिमान वैज्ञानिक, ग़लत नहीं साबित हुआ। क्योंकि अल बेरुनी और उसके प्राणी-शास्त्रज्ञ, हिकमती मित्र शेख़ अ’ली सेनार (जिस के साथ उस ने ख़्वारज्म में कई सुख़ी वर्ष बिताए थे) के समय में मध्य युग के ज्ञान परिपाक भी होता है और अंत भी।
तुर्कों का सैनिक राज्य और मुस्लिम मुल्लाओं की घोर धर्मांधता भविष्य में प्रधान हो जाती है। इतनी बात सांत्वना की अवश्य है कि सुलतान मसूद की उदारता के कारण, अल बेरुनी अपने आखरी दिनों ग़जनी में रह कर कुछ आराम के साथ बिता सका और यही पर उस ने अपने ज्योतिष और गणित विषयक प्रधान ग्रंथ ‘कानूने मसूदी’ की रचना की।
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वर्णव्यवस्था का विरोधी
जब हम यह सोंचते है कि अल बेरुनी हिन्दुस्तान में सुलतान महमूद के आक्रमणों के समय में अध्ययन कर रहा था और उसी समय में उसने ‘किताबुल हिन्द’ की रचना की तब कहीं हम इस बात का पूर्ण अनुमान कर सकते हैं कि ऐसे पक्षपात पूर्ण समय में ऐसे निष्पक्ष ग्रंथ की रचना करने के लिये कितनी दृढ़ता और मानसिक उदारता की आवश्यकता थी।
एक तो वह बिलकुल अकेला पड़ गया था। हिन्दू पंडितों से, जिनसे कि वह बहुत मिलता-जुलता था, उसका अधिक मेल इसलिए न था कि वह उनके विश्वासों से अधिकांश सहमत न था, उनकी दृष्टि को संकुचित समझता था तथा उनकी वर्णव्यवस्था का वह विरोधी था। बार-बार उसने इस वर्णव्यवस्था के विरोध में लिखा भी है।
दूसरी ओर उसके सह-धर्मी लोग उस से इस कारण से अलग हो गए थे कि वह सभी प्रकार के अंध विश्वासों का विरोधी था और उन के दुराग्रह के सम्मुख घुटने नहीं झुकाना चाहता था। अल बेरुनी ने बार बार सुक़रात का उदाहरण देते हुए कहा है कि दार्शनिकों को तथा न्यायवादियों को अपने विश्वासों के लिए कष्ट झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए।
उसके लिए यह मुमकीन था कि वह हिन्दुओं का बुराई कर के सत्य को छिपाते हुए और इन के सामाजिक जीवन की बुराइयों पर ज़ोर देते हुए, मुसलमानों के बीच में प्रिय बन सके। परंतु अल बेरुनी सत्य और न्याय का सच्चा पुजारी था और हिन्दुओं और मुसलमानों के रोष और विरोध उसे सीधे मार्ग से हटा न सकते थे।
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मुस्लिम फिरक़ों का विरोधी
अल बेरुनी सत्य का बहुत बड़ा उपासक था। वह कहता है आँख-देखी बात का मुक़ाबला कान-सुनी बात से नहीं हो सकता। परंतु अफसोस है कि हमारी पिछले काल की जानकारी अधिकांश कान-सुनी बातों पर ही निर्भर है। इसलिए जरुरी है कि हम ऐसे साक्षियों को ढूँढें जो घटनाओं को और संमतियों को विकृत रूप न दें।
वह आगे कहता है- “तारीफ़ के योग्य वही व्यक्ति है जो कि झूठ से ठिठकता है और सदा सत्य को आधार मानता है।” जो कि झूठ बोलने वालों के बीच में भी सत्य के लिये प्रतिष्ठित है औरों का तो क्या कहना।
कुरआन में कहा गया है कि “सत्य ही बोलों चाहे वह तुम्हारे ख़िलाफ़ पड़े।” (इसा) मसीह के ‘इंजील’ से यह आशय प्रकट होता है- “सच बोलने में राजाओं के रोष की परवा न करो, केवल तुम्हारे शरीर उन के अधिकार में हैं तुम्हारी आत्मा नहीं।” इन शब्दों में मसीह हमें अपने नैतिक बल का व्यवहार करने की आज्ञा देता है।
अल बेरुनी ने लिखा है कि तारीख़ुल हिन्द लिखने का आदेश उसे अपने उस्ताद अबू सह्ल अब्दुल मुनीम इब्ने अली इब्ने नूहुत् तिफ़लिसी से मिला। उस्ताद के घर पर वाद-विवाद होते समय अबू सह्ल ने बताया था कि किसी लेखक ने मुताज़िला फिरक़े के मंतव्यों की व्याख्या करने के बहाने उन को बिल्कुल उलट दिया है।
अल बेरुनी ने कहा था कि समस्त धार्मिक और दार्शनिक साहित्य में यह दोष विद्यमान है। मुस्लिम फिरक़ों के वर्णन में तो यह दोष पकड़ा भी जा सकता है लेकिन यही दोष विजातियों के विषय में पकड़ लेना प्रायः असंभव है। किसी उपस्थित व्यक्ति के हिन्दू धार्मिक मंतव्यों की चर्चा की।
अल बेरुनी ने बतलाया कि- हमारे साहित्य में इस विषय पर जो कुछ भी उपलब्ध है। वह गौण साधनों द्वारा प्राप्त हुआ है। एक लेखक ने दूसरे से नक़ल मात्र कर लिया है। यहाँ ऐसी सामग्री का ढेर है जो आलोचना की चलनी में चाली नहीं गई है।
सभार : हिन्दुस्तानी पत्रिका,अंक -2 , 1931
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लेखक प्रसिद्ध इतिहासकार रह चुके हैं।