हैदराबाद के ‘उस्मानिया विश्वविद्यालय’ में 13–14 अक्तूबर 2019 को ‘साऊथ इंडिया हिस्ट्ररी कोलोक्युअम’ का आयोजन किया गया था। दक्षिण भारत के इतिहास पर हुई इस परिचर्चा ‘दक्षिण भारत के औपनिवेशिक (Colonial) विरोधी इतिहास की पुनर्व्याख्या’ की अध्यक्षता सरफराज अहमद ने की थी।
दक्षिण के अंग्रेज शासन विरोधी संघर्ष में हैदरअली और टिपू का इतिहास काफी महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक शोधनिबंध प्रस्तृत कर हैदरअली और टिपू के इतिहास के सांप्रदायिकरण की मुहीम पर कुछ अहम तथ्य सामने रखे है। 4 मई को टिपू सुलतान का ‘बलिदान दिवस’ है, इस मौके पर हम उनका निबंध तीन हिस्सों में प्रकाशित कर रहे हैं। पेश हैं उसका पहला भाग-
जब भी कोई सामाजिक विचार जब सत्ता के रुप में उभरता है, तो उस वक्त इतिहास के पुनर्लेखन के प्रयास शुरु होते हैं। सत्ता में बदलाव के साथ इतिहास कि पुनर्व्याख्या हर दौर की विशेषता रही है।
भारतीय उपखंड में औपनिवेशी शासन कि नींव रखी जाने के बाद इतिहासलेखन की दिशाएं बदल गई। नए शासन की मजबूती के लिए सत्ता से सहमती की मुहीम शुरु हुई। जिसका पहला कदम इतिहास कि सत्ता के पक्ष में व्याख्या करना था।
सव्यसाची भट्टचार्य ने औपनिवेशिक इतिहासलेखन कि प्रवृत्ती को समझने का प्रयास किया है, उनका तथ्य है,
“कहने कि आवश्यकता नहीं की अध्ययन के एक विषय के रुप में औपनिवेशिक इतिहास और एक विचारधारा के रुप में औपनिवेशिक दृष्टिकोण इस मायने में एक दूसरे से जुडे हुए हैं कि अंग्रेजों द्वारा लिखित इतिहास में साम्राज्य निर्माण के विषय के साथ भारत में ब्रिटिश शासन का औचित्य स्थापित करने वाले विचारों को स्वाभाविक रुप में प्रस्तुत कर दिया गया है। व्यक्ती इतिहासकार के अनुसार इस औचित्य में अलग-अलग मात्रा में शामिल की गई बातें हैं।”
“भारतीय समाज और संस्कृति के प्रति अत्याधिक अलोचनात्मक रवैया जो कभी-कभी तिरस्कार की हद तक चला गया है, भारत को जीतने और उस पर शासन करने वाले सैनिकों और प्रशासकों के प्रति प्रशंसात्मक रवैया और ‘पैक्स ब्रिटेनिका’ से भारत को मिले लाभों के सराहना की प्रवृत्ती।
साथ ही कई भारतीय राज्यकर्ताओं कि भर्त्सना इसकी विशेषता रही है, सर जॉन के इस कथन से इसकी पुष्टी कि जा सकती है, ‘‘हमारी कार्यपद्धती कि यह विशेषता रही है की हम पहले किसी बादशाह के राज्य पर अधिकार जमाते हैं, फिर उस बादशाह को बदनाम करते हैं।”
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उपनिवेशी इतिहास की नींव
इतिहासलेखन कि इस औपनिवेशिक विचारधारा की शुरुआत जेम्स मिल के ‘हिस्टरी ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ (सन 1808) से मानी जाती है, जो कि एक अधुरा सच है। वास्तव में सन 1799 में टिपू सुलतान कि शहादत के एक साल बाद 4 मई 1800 को कर्नल बिट्सन कि पुस्तक ‘ऑर्जिन एंड कंडक्ट ऑफ दि वॉर वुईथ टिपू सुलतान’ से औपनिवेशीक इतिहास लेखन कि विचारधारा का जन्म होता है।
बिट्सन के तुरंत बाद कर्नल मार्क विल्क्स ने औपनिवेशिक दृष्टी से फारसी कवी नसीर उद दिन कि ‘अखलाक ए नासिरी’ को अंग्रेजी में अनुवादित किया। मैसूर के महान शासक के चरित्र और इतिहास को विकृत करने हेतू उसने आनन-फानन में ‘हिस्टॉरिकल स्केच ऑफ साउथ इंडिया’ ग्रंथ कि रचना भी की।
फिर कर्नल विल्यम किर्क पेट्रीक जो टिपू कि शहादत के बाद मैसूर राज्य के प्रशासन का अध्ययन कर रही समिती का प्रमुख था, ने उसे प्राप्त टिपू सुलतान के पत्र के रजिस्टर को अंग्रजी में लंडन से सन 1811 में प्रकाशित किया।
उसने ब्रिटिश सत्ता के हितविरोधी पत्रों को अपनी पुस्तक में कोई जगह नहीं दी। मराठा और निजाम से जंग के सारे पत्र अपने पुस्तक में शामिल कर उसने शत्रुपूर्ण मानसिकता का परिचय दिया।
इसी कडी में कर्नल डब्ल्यु मिल्स जैसे टिपू सुलतान के प्रख्यात दुश्मन का उल्लेख महत्त्वपूर्ण होगा, जिसने सय्यद मीर हुसैन अली किरमानी कि ‘निशान ए हैदरी’ का अंग्रेजी अनुवाद कर उसे विश्व में ख्याती दिलवाई। मिल्स ने इस अनुवाद को एक दिर्घ प्रस्तावना लिखी, जिसमें उसकी औपनिवेशिक मनोभूमिका की झलक दिखाई देती है।
मिल्स के अलावा मेजर डब्ल्यु टॉण्ड्स ब्रिटिश संसद का वह सदस्य है, जिसने इस्ट इंडिया कंपनी का राजनैतिक इतिहास ‘एम्पायर इन एशिया अँड हाउ वी केम बाय इट’ लिखा है। इस किताब का पच्चीस प्रतिशत हिस्सा टिपू सुलतान के इतिहास पर आधारित है।
औपनिवेशी इतिहास लेखन कि जन्मकथा टिपू के इतिहास से जुडी हुई है। औपनिवेशी शासन को टिपू द्वारा दी गई चुनौती और श्रीरंगपट्टण की भूमी पर कई बार हुई हार ने अंग्रेजी अफसरों को औपनिवेशी इतिहास कि रचना के लिए उद्युक्त किया, जिसकी वजह से उन्होंने टिपू से खूब दुश्मनी निभाई।”
रही बात जेम्स मिल की, वह तो इंग्लिस्तान में बैठकर एक अभ्यासग्रंथ कि रचना कर रहा था, जो इंडियन सिव्हील सर्व्हिस (ICS) के विद्यार्थियों के लिए था। उसका मकसद ऐसे प्रशासन कि निर्मिती था जो औपनिवेशी शासन के हित में हर समय चौकन्ना रहेगा। इसीलिए उसने भारतीय समाज के सभी मुस्लिम इतिहास पुरुषों की भर्त्सना कर उन्हे कंपनी शासन का हितविरोधी करार दिया।
औपनिवेशी इतिहासलेखन कि इसी पंरपररा को इलियट और डाउसन ने ‘इंडियन हिस्ट्री टोल्ड बाय ओन हिस्टोरियन’ के आठ खंड लिखकर समृद्ध किया। इसकी आलोचना करते हुए सय्यद सुलैमान नदवी जो अलीगढ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थे, ने हिस्ट्री काँग्रेस के अधिवेशन में कहा था,
“यह मात्र मार काट, खुन खराबे कि घटनाओं का अधुरा संकलन है। जिसे पढकर सामान्य व्यक्ती का दिमाग खराब हो सकता है।” औपनिवेशिक इतिहासकारों कि, मुसलमान बादशाहों से घृणा करनेवाली भूमिका को भारत के सांप्रदायिक इतिहासकारों ने दोहराया।
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सल्तनत ए खुदादाद और इतिहासलेखन
औपनिवेशिक इतिहासकारों के द्वेषपूर्ण रवैय्ये को वी. डी. सावरकर जैसे ब्रिटिशकाल में हिन्दू आंदोलन के नेता रहे, फासीवादी विचारकों ने मान्यता दी। सावरकर हिन्दू फिरकापरस्त इतिहासकारों कि प्रेरणा माने जाते हैं। अपनी मराठी रचना ‘सहा सोनेरी पाने’ (छह सुनहरे पन्ने) में टिपू के इतिहास को उन्होंने स्वरचित, मनघडंत कहानियों के जरिए विकृत किया।
इस किताब में टिपू सुलतान पर लिखे अध्याय का शिर्षक ‘क्रुरकर्मा, हिन्दू प्रपिडक टिपू सुलतान’ सावरकर की हैदरअली और टिपू संबंधी भूमिका से अवगत कराता है। शुरुआत से लेकर आखिर तक हैदरअली और टिपू सुलतान के इतिहास को सावरकर ने धर्मवादी मानसिकता से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है।
प्रारंभ में ही सावरकर जहरिले शब्दों से ‘सल्तनत ए खुदादाद’ पर टिप्पणी करते हैं। वे लिखते हैं, “जिस वक्त महाराष्ट्रीयन साम्राज्य का विस्तार हुआ, मराठों ने अपने पराक्रम से दिल्ली की मुगल पातशाही को ध्वस्त कर दिया था और हिन्दू राजसत्ता सारे हिन्दुस्तान में मजबूत हो गई थी, उसका मुकाबला कर सके ऐसी
कोई मुस्लिम सत्ता हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक कहीं पर भी मौजूद न थी। ऐसे समय मैसूर एक छोटासा हिन्दू राज्य था। उस राज्य में हैदररअली नामक एक मुसलमान ने अपने बल को इस कदर बढाया कि वह खुद एक शक्तीकेंद्र बन बैठा था।
सावकर आगे लिखते हैं, “महमूद गझनी के दौर से हिन्दू राजसत्ता पर आघात, हिन्दू राजाओं के विश्वासू मुस्लिम सेवकों ने ही किया था। सदियों के इस अनुभव को दुर्लक्षित कर मैसूर के राजा ने सभी धर्मों को समान मानने वाले हिन्दू समाज कि लापरवाही के चलते हैदरअली के हाथ अपनी सेना कि कमान जाने दी। उसका नतीजा जो होना था सो हो गया। हैदर ने हिन्दू राजा को हटाकर सारी राजसत्ता अपने हाथ ले ली।”
सावरकर कि इस कल्पना को इतिहास कहना इतिहास विचार के साथ एक घोर अन्याय होगा। किसी उपन्यास या कहानी का प्रसंग जिस स्वरुप में लिखा जाना चाहिए सावरकर ने उस प्रकार इतिहास लेखन कि चेष्टा की है।
उन्होंने अपनी राजनैतिक जरुरत के मुताबिक इतिहासलेखन किया, मगर इस राजनैतिक प्रेरणा को दुर्लक्षित कर टिपू के कुछ वर्तमान आलोचक इतिहासकार, सावरकर कि पुस्तक को इतिहास स्त्रोत के रुप में पेश कर रहें हैं, जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है।
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हिन्दू राजा से निष्ठा न कि गद्दारी
सावरकर ने जो आरोप हैदरअली पर लगाएं हैं, वह ना सिर्फ गलत हैं, बल्की सावरकर के जरिये उभरे हिन्दू सांप्रदायिक इतिहासलेखन को भी अधोरेखित करते हैं। हैदरअली वडियार नरेश कृष्णराज की मृत्युपश्चात भी वडियार राजवंश से अपनी निष्ठा का इमानदारीपूर्वक प्रदर्शन करता रहा।
उसे हिन्दू राजवंश का गद्दार कहना गलत होगा। हैदरअली का उदय और उसके नवाब बनने में मैसूर नरेश कृष्णराज के छोटेसे राज्य का न कोई योगदान रहा और न हैदरअली ने उसके म्हैसूर को शुरुआती दौर में अपने इलाके से जोडने कि कोशिश कि। इरफान हबीब (Prof. Irfan habib) का कथन इस विषय में काफी विस्तृत है।
हबीब अपनी किताब ‘उपनिवेशवाद का सामना’ (2007) में लिखते हैं, “यह कर्नाटक के तीन युद्धों के आरंभ की बात है (जो सन 1763 तक चले) जिनमें दक्षिण भारत पर कब्जे के लिए इंग्लैंड और फ्रान्स आपस में लडे। दकन के मुगल सुबेदार पद के लिए विशेष उम्मीदवारों का समर्थन करके मैसूर कर्नाटक की दूसरी और तीसरी लडाईयों में उसी पक्ष में शामिल हुआ।
जिसमें फ्रान्सीसी भी शामील थे (यह पद सन 1748 में निजाम उल मुल्क आसिफजाह की मौत से रिक्त हुआ था।) तब मैसूर बराए नाम दकन के अधीन था। हैदरअली 1753 में डिंडीगुल का फौजदार नियुक्त हो चुका था और इन लडाइयों में उसने सक्रिय भाग लिया यह उसके लिए जंग के युरोपी तौर-तरिके सीखने का अवसर था और वह इनसे गहरा प्रभावित हुआ।
कहा जाता है कि उसने बहुत पहले, 1755-36 में ही, अपने तोपखाने, हथियारखाने और कार्यशाला को संगठित रुप देने के लिए फ्रान्सीसियों की सेवाएँ ली थीं।”
कर्नाटक कि तीन जंगो में सहभागी होकर हैदर दकन कि नई राजनीतिक शक्ती कि रुप में उभर रहा था । मैसूर नरेश को न तो इस राजनीति से कोई दिलचस्पी थी और न उसमें इतना बल था कि वह इस राजनीति में अपना पक्ष रख सके। ‘बलासत जंग सन 1761 में दकन का सुभेदार था, उसने हैदरअली को ‘हैदऱअली खान’ इस उपाधी से नवाजा।
हैदरअली ने बलासत जंग से सिरा की सुभेदारी हासिल की। इसके बाद बदनूर कि जंग में जित हासिल कर हैदरअली ने उसे भी अपने इलाके से जोड दिया। एक तरफ वडियार नरेश कि हुकूमत मैसूर, श्रीरंगपट्टण के करीबी 33 गावों तक सिमित थी तो उससे भी कई गुना बडा क्षेत्र हैदरअली के पास था।
इसके बावजूद हैदरअली ने ना कभी वडियार नरेश से उसकी सत्ता छिनने का प्रयास किया न ही उसने मैसूर नरेश को अपना राजा मानने से इनकार किया। हैदरअली कि सेना जो खुद उसने खडी कि थी, फ्रान्सीसीयों के प्रशिक्षण और देसी–विदेसी हथियारों कि वजह से मैसूर कि सेना से कई गुना ताकतवर बन गई थी। इसके बावजूद हैदरअली राजा से अपनी निष्ठा कायम रखे हुए था।
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नन्दराज ने कि थी बगावत
दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है की, मैसूर नरेश के खिलाफ पहिली बगावत हैदरअली ने नहीं, बल्की उसके सेनापती नन्दराज ने की थी। जो कि एक हिन्दू था। यह बगावत जिस वक्त उभर कर सामने आई उस वक्त मैसूर का खजाना पुरी तरह से खाली हो चुका था। सैनिकों कि तनख्वाह देने के लिए भी खजाने में पैसा नहीं था। नन्दराज ने वडियार राजवंश के नरेश को हटाकर सत्ता हाथ में लेने के प्रयास शुरु कर दिए।
नन्दराज ने राजमहल की घेराबंदी कर गोलाबारी भी की। सन 1751 में बगावत के इस दौर में पेशवाओं ने श्रीरंगपट्टणम पर हमला किया। सेनापती नन्दराज जो सत्ता हासिल करने के लिए उतावला था, युद्ध के मैदान में जाने से घबरा रहा था। उसी समय हैदरअली ने पेशवाओं का मुकाबला करने जिम्मेदारी ली।
हैदरअली ने ना सिर्फ पेशवाओं को परास्त किया बल्की उनसे अपनी शर्तें भी मनवा ली। अपने राजा कि सत्ता पर आई इस आफत का मुकाबला कर दरबार में हैदरअली ने प्रतिष्ठा प्राप्त की। मैसूर नरेश ने भी मौके का फायदा उठाते हुए हैदरअली को सेना की कमान सौंप दी। पूर्व सेनापती नन्दराज स्वाभाविक तौर पर राजनीति से बाहर हो गया। नंदराज सेनापती होने के साथ मैसूर का दिवान भी था।
सेनापती पद प्राप्त होने के बाद हैदरअली ने अपने दोस्त खंडेराव को दिवान बनाने कि शिफारीश राजा के सामने प्रस्तुत कर दी। हैदरअली को विश्वास था कि उसके मित्र खंडेराव के दिवान बनने कि वजह से वह आसानी से काम कर पायेगा।
मगर इसी खंडेराव ने हैदरअली के खिलाफ राजा कि कानाफुसी शुरु की। नंदराज कि तरह दिवान पद के साथ वह सेना कि कमान भी अपने हाथ में रखना चाहता था।
सन 1761 में जब हैदरअली कि आधी सेना दक्षिण की मुहीम में व्यस्त थी, खंडेराव ने हैदरअली पर हमला किया। खंडेराव का मुकाबला करने के अलावा हैदरअली के पास दूसरा रास्ता नहीं था।
जंग हुई, परिणाम हैदरअली के पक्ष में आये। हैदरअली ने खंडेराव को कैद कर लिया। मैसूर के सर्वाधिकार अपने हाथ ले लिए। सर्वाधिकारी बनने के बावजूद हैदरअली ने ना राजा कि प्रतिष्ठा को धक्का लगाया और न उसने अपने आपको सिंहासन पर बिठाने कि कोशिश की, वह राज परिवार कि सभी प्रथाओं का सन्मान करता रहा।
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बच्चा गोद लेकर बनवाया राजा
ईसवीं 1766 में मैसूर नरेश के मृत्युपश्चात हैदरअली को सत्ता हथियाने के सारे रास्ते खुल थे, चूँकी मैसूर नरेश का कोई बेटा न था तो सत्ता का कोई वारीस भी नहीं बचा था। मगर हैदरअली ने वडियार परिवार के संबंधीयो से ही एक पौत्र को गोद लिया, और उसे नया नरेश घोषित कर वडियार राजवंश से अपनी प्रेम, निष्ठा और सद्भाव को दर्शाता रहा।
सावकर जिस तरह मुस्लिम गद्दारी के मिथ्या का कथित इतिहास लिखते उस तरह कि न तो वास्तविक घटनाएं है ना कोई विचारप्रवृत्ती कि कोई निशानियां इतिहास के स्त्रोत में नजर आती हैं। इसके बावजूद सावकर और अन्य सांप्रदायिक इतिहासकार हैदरअली को धार्मिक आंदोलन के नेता के रुप प्रस्तुत करते हैं। जो कि अनैतिहासिक होने के साथ-साथ एक असमाजिक तत्व भी है।
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* क्या मुगल काल भारत की गुलामी का दौर था?
* दकन की शिक्षा नीति का नायक था महेमूद गवान
लेखक युवा इतिहासकार तथा अभ्यासक हैं। मराठी, हिंदी तथा उर्दू में वे लिखते हैं। मध्यकाल के इतिहास में उनकी काफी रुची हैं। दक्षिण के इतिहास के अधिकारिक अभ्यासक माने जाते हैं। वे गाजियोद्दीन रिसर्स सेंटर से जुडे हैं। उनकी मध्ययुगीन मुस्लिम विद्वान, सल्तनत ए खुदादाद, असा होता टिपू सुलतान, आसिफजाही इत्यादी कुल 8 किताबे प्रकाशित हैं।