किसी भी कॉलेज के गेट के बाहर खड़े होकर अगर आप किसी छात्रा से पुछेंगे, “सावित्री बाई फुले कौन है?” तो शायद लडकियों से जवाब मिलने कि सुरत बहुत कम हैं। क्योंकि उनकी पिढी इस ऐतिहासिक किरदार को ज्यादा नही जानती।
इस तरह का एक एक्सप्रिमेंट 2013 में हम कुछ दोस्तों ने पुणे स्थित फर्ग्युसन कॉलेज रोड पर मौजूद छात्राएं से मिलकर किया था। उन दिनों मैं पुणे विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग मे पढ़ाई करता था। हम कुछ क्लासमेट मिलकर ‘सुंबरान’ नामक एक युथ पत्रिका निकालते थे। उसके लेख के विषय के लिए हमने यह सब किया था।
हमारी टीम को लड़कियों के भवें उपर करने के अलावा कोई जवाब नही मिला था। मेरी नजर में यहीं हाल प्रगतिशील विचारधारों के संघटको का हैं। इनका नाम तो हर कोई लेता हैं, पर रटी रटाई बातों के अलावा उनके बारे में 5 मिनिट भी ठिक से नही बता पाता।
लड़कियों के शिक्षा का दरवाजा खोलनेवाली यह महिला ऐतिहासिक नायिका हैं। इस अदभूत कार्य के लिए महाराष्ट्र के साथ साथ देशभर में उन्हें याद किया जाता हैं। महाराष्ट्र सरकार के प्रकाशन विभाग साहित्य संस्कृति मंडल से प्रकाशित ‘सावित्री बाई समग्र’ किताब में उनका जन्मदिन 3 जनवरी 1831 बताया गया हैं।
उनके माता-पिता किसान थे और सातारा जिला स्थित नायगाव के निवासी थे। पिता का नाम खंडोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मीबाई था। सन 1840 में नऊ साल कि उम्र में सावित्री बाई की शादी जोतीराव फुले से हुयी। उस समय जोतिराव 13 साल के थे। सावित्री बाई ने आगे चलकर अपने पति के साथ महिला सशक्तीकरण, खासतौर पर शिक्षा के क्षेत्र में अहम भूमिका निभाई हैं।
जोतिराव एक जानेमाने समाजसेवी थे, जिन्होंने मिशनरी स्कूल में शिक्षा पायी थी। उन्होंने ब्राह्मण्यवाद के खिलाफ लड़ाई में अपनी सारी जिन्दगी लगा दी थी। वे महान क्रांतिकारी, विचारक, समाजसेवी, लेखक एवं दार्शनिक भी थे।
उस दौर में हिन्दुओ के एक विशिष्ट अभिजन समुदाय के पुरुषों के अलावा किसी और जाति, मजहब तथा पिछडी जाती के लोगों को शिक्षा का अधिकार नही था, ऐसे समय में जोतीराव ने न सिर्फ शिक्षा ली बल्कि अपनी पत्नी को भी पढ़ाया। तत्कालीन उच्च-निच भेद और ब्राह्मण्यवाद को आह्वान के रूप में उन्होंने यह सब किया।
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मुक्ती की चाहत
साहित्य संस्कृति मंडल से प्रकाशित ‘काल आणि कर्तृत्व’ किताब के प्रस्तावना में संपादक मंडल लिखता हैं, “इक्कीसवी सदी मे महिलाओं कि स्थिती अछुत और जानवर से भी हीन थी। भगवान और धर्म के नाम पर बहुसंख्य समाज सभी प्रकार के गुलामी में गोते लगा रहा था।
औरत का जन्म मुलत: अशुभ माना जाता था। आज भी हालात कुछ अलग नही हैं, पर उस समय स्त्री शिक्षण अज़ीम गुनाह समझा जाता था, तब मूलत: निरक्षर रही सावित्री बाई ने जरुरी हो उतना इल्म शादी के बाद हासिल किया।”
अलफाजों की पहचान सिखने के बाद सावित्री बाई ने किताबे पढ़नी शुरु की। जोतीराव ने उन्हें समाज को समझने के लिए जो लिटरेचर जरूरी था, वह सारा लाकर दिया। जिसके बाद सावित्री बाई के इल्म में बढ़ोत्तरी हुयी। उन्हें एहसास हुआ कि इस गुलामी के नरकयातना से मुक्ती के लिए तालीम का होना बेहद जरुरी हैं। उन्हें यह भी लगा इस पुरुषप्रधान विशेष रूप से ब्राह्मणो के पुरोहितशाही के बिच औरतो ने पढ़ना क्यों जरूरी हैं।
ये किताब कहती हैं, “शुरुआती दौर में पती के गुजारिश के खातीर और वक्त के साथ अपनी लगन से, स्वअध्याय से, खुद के अखंड कार्य कर्तृत्व पर वह आद्यशिक्षिका, मुख्यअध्यापिका, समाजसेविका, दिनदलितों के लिए उद्धारक, यही नही बल्कि आधुनिक मराठी कविता की गंगोत्री बन गयी।”
सावित्री बाई ने लड़कियों का स्कूल खोला और उसे कामयाबी के साथ संचलित भी किया। पर हालात सामान्य नहीं थे। परंपरावादी, हिंदू धर्म के ठेकेदार तथा शुद्धतावादियो ने उन्हें जमकर कोसा। इतना ही नहीं बल्कि उन पर गोबर, किचड़ और पत्थर भी फेंके। जिससे सावित्रीबाई कतई नहीं घबराई बल्कि उतनी ही शिद्दत से और डट कर उनके खिलाफ खड़ी हो गई और लड़कियों को पढ़ाना जारी रखा।
यहां उनकी कहानी खत्म नही होती, बल्कि ब्राह्मण समाज द्वारा दूत्कारी गयी, घर से निकाली गई और विधवा ब्राह्मण महिलाओं को उन्होंने सहारा देकर उन्हें और उनके बच्चियों को शिक्षा दी। उनके लिए अनाथाश्रम चलाए, अन्नछत्र भी चलाया। स्त्री भ्रूणहत्या को रोका, यहीं नही बल्कि विधवा विवाह भी करवाए।
इस काम में उन्हें उनके द्वारा शिक्षित की गई महिलाओं ने सहयोग दिया, जिसमें फातिमा शेख का भी नाम आता है। अपने पति को लिए गये एक खत में इस बारे में सावित्री बाई ने इसका जिक्र किया हैं। इसी तरह महात्मा फुले के साथ भी उनके द्वारा शिक्षित किये गये ब्राह्णण पुरुषो ने पिछड़ी जातियों के बच्चो के लिए शिक्षा दान का कार्य किया हैं।
जिस समाज द्वारा उन्हें गालिया मिली, हिन भावना से देखा गया, उसी समाज के उद्धार के लिए फुले दंपत्ती ने कार्य किया। इससे उनकी उदार वृत्ती पहचानी जा सकती हैं। इस उदारता का एक और उदाहरण भी हैं, उन्होंने एक विधवा ब्राह्मण महिला काशीबाई की अपने घर में डिलीवरी करवा उसके बच्चे को गोद लिया। बाद में उन्होंने उस लड़के को पाल-पोसकर और पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर भी बनाया।
सामाजिक सुधार में भी वे अग्रेसर रही। जोतिराव के साथ सत्यशोधक समाज के स्थापना में उनका अहम योगदान रहा। सामाजिक कुरीति जैसे विधवा विवाह, मुंडन और धर्म के नाम पे सताई जा रही शूद्र तथा पिछड़ी महिलाओ के हक के लिए वह खड़ी रही।
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कहां हैं उनके स्कूल?
अपनी शिक्षा दान के बारे में सावित्री बाई कहती है, “ब्रिटिश सरकार ने ज्ञानदान के लिए स्कूल खोले हैं पर वह बहुत कम है। इतने ही रहे तो सारा भारत शिक्षित होने के लिए और डेढ़ सौ साल लग सकते हैं, ऐसा मेरा अनुमान है। फिर भी मैं कहती हूं कि सरकार ने शिक्षा के प्रसार का अपना समय बढ़ाकर सब लोग शिक्षा ग्रहण नहीं करते तब तक यहां से वे ना जाए।”
आज सावित्री बाई को याद करना इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि भारत में महिलाओं के शिक्षा के अधिकार की बात सबसे पहले इन्होंने हीं रखी है। उनके नाम पर देशभर में हजारों-लाखों स्कूल खोले गए हैं, पर उनके द्वारा खोले गए स्कूल के बारे में किसी को पता नही हैं।
सावित्री बाई के निधन के 17 साल बाद रुकैया सखावत हुसैन नामक एक बंगाली महिला ने मुस्लिम लड़कियों के लिए स्कूल की स्थापना की थी। भागलपुर में स्थित यह स्कूल बाद में कोलकाता शिफ्ट किया गया। जो आज तक सुचारू रूप से चल रहा है। जबकि सावित्री बाई ने खोले गए स्कूल की संख्या ज्यादा है। मगर उसका कोई नामोनिशान आज नहीं मिलता।
पुणे शहर के मध्यवर्ती केंद्र में जहां दगडूशेठ हलवाई गणपती स्थित है उसके सामने भीडेवाड़ा कि जर्जर इमारत अपनी निशानदेही दर्शाती हैं। इसी जगह फुले दंपत्ती ने 1848 में पहला स्कूल खोला था। जिस पर एक महापालिका द्वारा छोटा सा बोर्ड लगाया गया है, जिससे यह मालूम पड़ता है कि सावित्री बाई का स्कूल इस इमारत में चलता था।
मगर अफसोस की बात यह है कि इस जगह को संवर्धित करने के लिए स्थानीय प्रशासन तथा कोई भी प्रगतिशील समाज सेवी संगठन द्वारा कोशिश ही नहीं की जाती।
हर साल 3 जनवरी को यह मुद्दा प्रेस तथा मीडिया में छाया रहता है। 4 जनवरी को अखबारों के अलावा इसकी चर्चा सालभर कहीं नजर नहीं आती। फुले दंपत्ति ने 1848 से 1852 के 4 साल के कार्यकाल में पुणे और उसके आसपास के परिसर में कुल मिलाकर अट्ठारह स्कूल खोलें और उसे कामयाब रूप से चलाया भी।
इन स्कूलों को चलाने के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया। दिन देखा ना रात, ना भूख देखी ना प्यास! लोगो के ताने सुने, गालियां खायी, बहिष्कार झेला. मगर सब को नजरअंदाज करते हुए त्याग और परोपकारी वृत्ति के साथ उन्होंने इस काम को अंजाम दिया।
मगर आज उनके इस अज़ीम सेवाभाव को कोई याद नही करना चाहता। उस समय के फुलेविरोधी आज भी नये रूप में नजर आते हैं। उनकी बात छोड़ो पर जो लोग खुद को प्रगतिशील कहते हैं, फुले के परंपरा को यूएसपी के तहत इस्तेमाल करते हैं, उनके नाम पर निधी बटोरते हैं, वे इस काम को अंजाम क्यो नही देते?
बीते कई दिनों से कुरुंदवाड स्थित युवा साहित्यिक साहिल कबीर सावित्री बाई के स्कूल खोजने का कार्य कर रहे थे। अफसोस के साथ उन्होंने मुझे बताया था की, “पुणे और आसपास के परिसर में फुले दंपत्ति द्वारा संचलित स्कूल के कोई ठोस प्रमाण नही मिल पाए। जो भी कुछ मिला वे सुनी-सुनाई बातो पर था। जिससे उन्हें कोई समाधान नसीब नही हुआ।”
आज के दौर में इस स्कूल को बुनियाद संजो कर रखना तथा इसकी निशानदेही को संवर्धित करना बेहद जरुरी हो जाता हैं। उसी तरह उनके स्कूल फिर से सुचारू रूप से शुरू करना यह महज महाराष्ट्र सरकार की ही जिम्मेदारी नहीं बनती बल्कि केंद्र सरकार का भी दायित्व है।
सावित्री बाई फुले के काम को और उनके ऐतिहासिक कारगुजारी को याद करना बेहद अहम है। यह सिर्फ शुद्र विरुद्ध अभिजन या अगड़ी विरुद्ध पिछड़ी जातियों का संघर्ष नहीं है बल्कि शिक्षा दान का एक पवित्र कार्य है जिसे हर सूरत में याद रखना तथा संजोना जरूरी है। ये महाराष्ट्र ही नही बल्कि देश कि विरासत हैं।
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स्त्री मुक्ति आंदोलन की प्रणेता
सावित्री बाई के समग्र साहित्य पर अगर नजर दौड़ाए तो पता चलता है की, उनका व्यक्तित्व अतिसामान्य था। उनके व्यक्तित्व को समझने किए साहित्य संस्कृति मंडला द्वारा प्रकाशित ‘समग्र’ पढ़ा जा सकता है। इस साहित्य से उनके कार्य प्रणाली का विस्तार से अध्ययन किया जा सकता है। जिसमे उनके, लेख, कविता, भाषण तथा खतो को शामिल किया गया हैं।
एक अनपढ़ महिला जिसने अपने बलबूते पर पढ़ाई लिखाई सिखी। टिचर बनी, स्कूल चलाए एक नही बल्कि 18 स्कूल का कामयाब संचालन किया। यह महज एक साधारण सी बात नहीं है।
आज भी अगर इस बारे में सोचें तो यह बात औरतों के लिए मुमकिन नजर नहीं आती। जबकि आज तो सारे संसाधन और सब कुछ मौजूद है। उस समय जब वाहन भी इक्का-दुक्का थी, तब सावित्रीबाई नहीं शहर भर में घुम कर लड़कियों को इकट्ठा किया और उन्हें तालीम दी।
सावित्री बाई स्त्री मुक्ति आंदोलन की पहली लिडर थी। दलित और पिछड़ों के अधिकार के लिए, महिलाओं के मूलभूत हको के लिए लड़ने वाली वह पहली महिला थी। अज्ञान के अंधकार में अपने अस्तित्व को तलाशने वाली महिलाओं को उन्होंने न सिर्फ आवाज दी, बल्कि उनको एक पहचान के रूप में भी स्थापित किया।
शिक्षा देने के अलावा उन्होंने कई किताबों की रचना भी की है। जिसमें ‘काव्यफुले (काव्यसंग्रह)’, ‘सावित्रीबाईंची गाणी’, ‘सुबोध रत्नाकर’, ‘बावनकशी’ शामिल हैं। अपने भाषण तथा गीतों के माध्यम से सामाजिक प्रबोधन करने का काम करती रही। उनके निजी लाइब्रेरी में कई महत्वपूर्ण किताबें थी, जिन पर उनके लिखे नोट्स मौजूद है।
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सावित्री उत्सव की घोषणा
फुले दंपत्ति ने देवी देवताओं की कल्पना को मान्य नहीं किया, इसका अर्थ यह नहीं होता कि उन्हें ईश्वर अमान्य था। जबकि उनका संघर्ष तो हिंदू धर्म के के आड़ में चल रही पोंगापंथ, अंधभक्ति और रूढ़िवादिता तथा संस्कृति-परंपरावाद के आड़ में चल रहे पाखंड के खिलाफ था।
इस अज़ीम शख्सियत ने 10 मार्च 1897 में दुनिया को अलविदा कह दिया। इसी साल पुणे शहर में प्लेग कि महामारी फैली थी। उस समय सावित्रा बाई ने रोगीयो कि सेवा में अपना दिन रात लगा दिया था। सावित्री बाई संक्रमण का शिकार हुयी। इसी बिमारी के चलते उनका निधन हुआ।
वैसे बता दे की महाराष्ट्र सरकार ने हाल ही में निर्णय लिया है की, सावित्री बाई के जन्मदिन को ‘महिला शिक्षण दिन’ के रूप में मनाएगी। 2016 में तत्कालीन राज्यसभा सांसद भालचंद्र मुणगेकर ने यह बात सदन में उठाई थी। इसी तरह इस दिन को ‘सावित्री उत्सव’ के रूप मे मनाने का फैसला भी राज्य सरकार ने किया हैं।
इस बारे में राज्य की महिला एवं बाल विकास मंत्री यशोमति ठाकुर ने कहा, “सावित्रीबाई फुले के कार्यों के प्रति लोगों में जागरुकता लाने के लिए राज्य के विभिन्न भागों में कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। उनके द्वारा देश की प्रगति में दिए गए योगदानों का बखान किया जाएगा। जिससे युवा वर्ग उनसे प्रेरणा ले सके और समाजहित में योगदान दे सके।”
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