बात करीबन पांच सौ साल पुरानी हैं, जब क़ुस्तुनतुनिया विजय के शान समझी जानेवाली एक प्रसिद्ध इमारत में तत्कालीन सुलतान मेहमद (द्वितीय) जुमा कि नमाज अदा करने आनेवाले थे।
नमाज से पहले हजारो लोग सुलतान के आमद का इंतजार कर रहे थे। उनमें शहर के निवासी जो अपने आप को उजडने के दुख को समटे हुये मायूस आंखो के साथ खडे थे। दूसरी जानिब उस्मानिया सल्तनत के सैनिक थे जो ‘फतेह’ का परचम लिए खड़े थे।
बहरहाल सुलतान आये और नमाज अदा हुई। दुआ में इस्लाम के रक्षा और दुश्मनों पर फतेह पर ‘आमिन’ कहा कया। उस दिन पूरे शहर में जश्न का माहौल रहा।
इस नमाज ने दुनिया को यह संदेश दिया कि एक हजार साल पुराना यह ‘हागिया सोफ़िया’ चर्च अब गिरिजाघर नही बल्कि मस्जिद में तब्दिल हो चुका हैं। जिसे इस्लाम के जीत के परचम के लिए दुनियाभर में इस्तेमाल किया जायेगा।
शहर के पूराने शासक यह समझ चुके थे कि अब इस इमारत के माध्यम से दुनिया उनपर हंस रही हैं। इसके निर्माताओं ने कभी ख्बाव में भी सोंचा नही होगा कि आधी दुनिया पर बिखरे अपने साम्राज्य को ऑटोमन सुलतान द्वारा नेस्तनाबूत कर देगा।
ईसवीं सन 28 मई 1453 को तुर्की के खलिफा सुलतान मेहमद ने इस शहर पर विजय हासिल कर ली। उसने माना कि पैगंबर मुहंमद (स) ने क़ुस्तुनतुनिया फतह करने कि भविष्यवाणी कि थी और जिसके माध्यम से ये काम अंजाम होनेवाला था, वह व्यक्ति खुद वह हैं। सुलतान के प्रशंसक भी यहीं मानते थे कि उस निशानदेही के नायक खलिफा मेहमद ही हैं।
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इतिहास की परते
क़ुस्तुनतुनिया कभी रोमन साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था। जिसपर बाइज़ेन्टाइन साम्राज्य का शासन था। कहते हैं, ये सम्राट आधे दुनिया पर हुकूमत करते थे। माना जाता हैं कि ईसवीं 332 में रोमन शासक सम्राट कॉन्सटियस ने इस शहर को बसाया। उसके नाम पर इस शहर का नाम ‘कॉन्सटेनटिनोपोल’ याने क़ुस्तुनतुनिया रखा गया। जो आगे चलकर 1930 में इस्ताबुंल हुआ। यह बाइज़ेन्टाइन साम्राज्य की राजधानी थी।
उसके बाद आये थिसिसियस (द्वितीय) ने ईसवीं 360 मे दुनियाभर में आश्चर्य बने एसे चर्च के निर्माण कि कल्पना की। पर उसे अस्तित्व में याने 200 साल गुजरने पड़े। इस बीच इस इमारत के फॉऊंडेशन का अधिकतर काम हो चुका था।
ईसवीं 532 में जस्टिनियन इस शानदार इमारत के निर्माण का आदेश दिया था। याने पैगंबर के जन्म से 40 साल पहले। इस भव्य इमारत को बनाने के लिए दूर दराज से निर्माण सामग्री और इंजीनियर बुलाए गए थे। क़रीबन 10 हजार कारागिरों ने इसके निर्माण मे हाथ बटाया। बताया जाता है कि सम्राट ने इस इमारत को बनवाने में लगभग 150 टन सोने का इस्तेमाल किया था।
जनवरी 537 में याने पांच साल बाद ये इमारत अपने वजूद में आई। जिसका नाम ‘हागिया सोफ़िया’ याने पवित्र ज्ञान रखा गया। बडे डोम याने गुम्बदों वाली यह ऐतिहासिक इमारत शहर के बॉस्फ़ोरस नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित है। इस नदी के पूरब की तरफ़ एशिया और पश्चिम की ओर यूरोप है।
निर्माण के साथ ही यह इमारत ऑर्थोडॉक्स इसाइयत को मानने वालों के लिए अहम केंद्र बनी। इसके साथ ही ये चर्च बाइज़ेन्टाइन साम्राज्य की ताक़त का भी प्रतीक बन गया। जिसमें हर तरह के सरकारी कामकाज होते थे। जल्द ही ये रोमन साम्राज्य का आधिकारिक चर्च बना गया। राज्यभिषेक जैसे अहम समारोह इसी चर्च में होते रहे। बाइज़ेन्टाइन वंश के लगभग सभी सम्राटों का राज्याभिषेक यहीं हुआ।
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पवित्र क़ुरआन में जिक्र
हागिया सोफ़िया चर्च के वैभव कि वजह से क़ुस्तुनतुनिया पवित्र शहर माना जाता था। चर्च और शहर रोमन सम्राटों के शान और विवेक का प्रतीक रहा। यहीं वजह रही की पवित्र क़ुरआन में इस शहर का जिक्र आया हैं। पैगम्बर मुहंमद (स) ने मुसलमानों को इस शहर पर विजय पाने कि और वहां इस्लामी लोकतांत्रिक राज्यव्यवस्था के नींव कायम करने कि बात कहीं थी।
यह इमारत क़रीबन 900 सालों तक ईस्टर्न ऑर्थोडॉक्स चर्च का मुख्यालय रही। मौसम कि और शासकों के हमलों का दुख: झेलते हुए यह ऐतिहासिक इमारत अब तक याने देढ़ हजार सालों से खडी हैं।
समय-समय पर इसकी मरम्मत भी करवाई गई। तेरहवीं सदी में भूकंप ने इसे बुरी तरह तहस-नहस भी कर दिया था। इसके वैभव में 13वीं सदी में कैथोलिक पंथ को मानने वाले यूरोपीय ईसाईयों ने सेंध लगाई। इस प्रसिद्ध चर्च पर हमला कर बुरी तरह ध्वस्त कर दिया। जिसके बाद उन्होंने इसे कई सालों तक कैथोलिक चर्च भी बनाये रखा।
तुर्को का कब्जा
1453 में इस्लाम को मानने वाले तुर्की खलिफा सुलतान मेहमद ने बाइज़ेन्टाइन शासन का खात्मा कर दिया। इस तरह उसने रोमन सम्राटो के शानोशौकत का प्रतीक रहे इस शहर को हासिल कर लिया।
कहते हैं, विजय के बाद सुलतान ने शहर के नागरिको और उनके प्रार्थनास्थलो के हिफाजत कि जिम्मेदारी ली। जनता को उसने विश्वास दिलाया की उसके शासन में किसी के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नही किया जायेगा। सभी को समान न्याय और अधिकार प्रदान किये जायेगे।
ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि सुलतान ने अपना वादा निभाया। पर वैभवशाली हागिया सोफ़िया पर उसकी नियत फिसल गई। कभी रोमन साम्राज्य के शानौशौकत का प्रतीक रहा यह हागिया सोफ़िया चर्च को सुलतान ने मस्जिद में तब्दिल करने का आदेश दिया।
सुलतान का फरमान था कि मूल वास्तु को नुकसान पहुंचाए बिना उसके इसायित के निशान मिटा दिये जाये और वहां इस्लामी प्रतीकों का निर्माण किया जाये।
तुर्की खलिफा के आदेश के बाद हागिया सोफ़िया के ज़्यादातर इसाई निशानियों को नष्ट किया गया या फिर उनके ऊपर प्लास्टर की परत चढ़ा दी। क्रॉस की जगह चांद-तारा लगा दिया गया, घंटियों और पूजा की बेदियों को नष्ट कर दिया गया और दीवारों पर संगमरमर के जरिए उकेरे गए चित्रों पर रंग पोत दिया गया। अंदरुनी हिस्से के दिवारो और गुम्बदों पर जगह-जगह क़ुरआन कि आयते लिखी गई।
सुलतान ने अपने नेतृत्व में यहां जुमा कि पहली नमाज अदी की। पूरे पांच सौ साल यह मस्जिद बनी रही हैं। इतिहासकार मानते हैं कि अगर वह ऐसा नही करता तो उसके विजय के क्या मायने रहते।
इस तरह का बरताव उस समय सामान्य बात थी। बहरहाल जो भी हो, सुलतान मेहमद ने इस इमारत को मस्जिद में तब्दिल करवाकर उसका नाम ‘अया सोफ़िया’ कर दिया।
पहले यह सिर्फ़ गुंबद वाली इमारत थी लेकिन आगे चलकर दूसरे सुलतान के दौर मे इसके चारो तरफ बडे मिनार खडे किये गये, जो इसके अब के इस्लामिक प्रतीक को दर्शाते हैं। इस्लामी शैली के इन छह मीनारों से इसके मस्जिद होने का एहसास होता हैं।
वास्तव में देखा जाए तो आज भी यह मस्जिद नजर नही आती। इस्लामिक दुनिया इसे ‘नीली मस्जिद’ के रूप में जानती हैं। जो अब विश्व धरोहर का हिस्सा हैं।
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हुई मूल रूप में वापसी
पहले विश्व युद्ध के बाद तुकडों मे बिखरे तुर्की पर कमाल अतातुर्क का शासन आया। केमाल पाशा क नाम से जाना जाने वाला यह शासक काफी हद तक उदार माना जाता था। इसकी पहचान धर्मनिरपेक्ष शासक के रूप में होती थी।
इसका फायदा उठाते हुये अमेरिका के बाइज़ेन्टाइन इन्स्टिट्यूट के संचालक थॉमस विटमोर ने राष्ट्रपति कमाल पाशा से मलाकात कर अया सोफिया को फिर से चर्च बनाने का प्रस्ताव रख़ा। राष्ट्रपति ने बीच का रास्ता निकालते हुये इस जगह को संग्रहालय बनाने की ठान ली।
उन्होंने इस इमारत को अपने मूल रुप में वापस ला दिया। दीवारों पर बने रोमन चित्रों को फिर से बहाल किया गया। इस बात का खयाल रखा गया कि इसके इस्लामी प्रतीक को कोई नुकसान न पहुँचे।
इस म्यूजियम मे हर तरफ इतिहास के निशान दिखाई देते हैं। गुम्बदों पर एक तरफ पैगम्बर का नाम और दूसरी जानिब अल्लाह लिखा है तो वहीं बीच में येशु को अपनी गोद में लिए हुए वर्जिन मेरी भी देखी जा सकती हैं। 1943 में राष्ट्रपति कमाल पाशा नें तुर्की सदन में एक विधेयक पारित कर अया सोफ़िया में नमाज पर पाबंदी लगा दी और उसे हमेशा कि लिए एक म्यूजियम में तब्दील कर दिया।
खबरे बताती हैं कि, हालांकि उसे पूरी तरह बहाल नहीं किया जा सका है, लेकिन पुराने निशान साफ तौर पर देखे जा सकते हैं। क़रीबन 80 सालों तक यह जगह म्यूजियम बनी रही। इसे देखने दुनिया भर से लाखों सैलानी आते हैं। तुर्की सरकार इसे अपनी ऐतिहासिक विरासत मानती हैं।
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विवादो से नाता
मीडिया रिपोर्टो का जायजा ले, तो पता चलता हैं, कि अया सोफ़िया को मूल रूप में वापस करने को लेकर दुनिया भर में बहस होती रही हैं। वहीं तुर्की वासी मानते हैं कि इसे फिर से मस्जिद में तब्दिल कर वहां नमाज कि इजाजत दी जाए।
दूसरी ओर पैट्रिआर्क और सभी ऑर्थोडॉक्स ईसाइयों के मानद प्रमुख बहुत समय से मांग कर रहे हैं कि अया सोफ़िया में ईसाइयों को पूजा-अर्चा करने की इजाजत दी जाए। उनका मानना है कि शहर के अन्य चर्चों कि तरह इसे भी अपने मूल रूप में रखा जाए। गैरतलब है कि इस्तांबुल में आज भी ऐसे कई चर्च हैं, जिसे पूरानी स्थिति में रखा गया हैं।
तुर्की में इसे लेकर राजनीति कई सालों से चलती आ रही हैं। 1934 बने उस क़ानून के ख़िलाफ़ लगातार प्रदर्शन होते रहे हैं। गुजिश्ता कुछ सालों से अया सोफ़िया चुनावी घोषणापत्र में शामिल रहा हैं। वर्तमान तुर्की राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने इसे मस्जिद में तब्दिल करने का वादा नागरिकों से किया था।
अया सोफ़िया को लेकर तुर्कस्थान में बीते आठ दशकों से विवाद चल रहा हैं। ज्यादातर लोग मानते हैं, कि इसे फिर से मस्जिद का रुप दिया जाये। वहीं बुद्धिवादी और प्रगतिशील लोगों का मानना हैं की, इसकी यथास्थिति याने म्यूजियम बना रहने दे। बीते हफ्ते यह विवाद तुर्की के सुप्रीम कोर्ट में आया तो दुनिया के सुर्खियों मे छाया रहा। दुनियाभर के लोगों कि निगाहे इस फैसले पर थी।
10 जुलाई 2020 शुक्रवार को इसपर वर्तमान सरकार के हक में फैसला आया। इत्तेफ़ाख़ कहे या कुछ और पर पांच सौ साल पहले भी शुक्रवार को ही इस चर्च पर तुर्की ने मस्जिद के रूप में कब्जा ज़माया था और इस शुक्रवार को पुन: ये चर्च आधिकारिक रूप से मस्जिद में तब्दिल करने का फैसला आया। तुर्की नागरिक इस फैसले को ‘फतेह जुमा’ के रूप में मना रहे हैं।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि इसे मस्जिद में तब्दिल किया जा सकता है। इसके साथ ही राष्ट्रपति अर्दोआन ने इस्तांबुल के ऐतिहासिक ‘अया सोफ़िया’ म्यूज़ियम को दोबारा मस्जिद में बदलने के आदेश दे दिए हैं।
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फैसले पर आपत्ती
अया सोफ़िया दुनिया भर के ईसाइयत को मानने वाले लाखों लोगों की आस्था का केंद्र है। यहीं वजह है कि यूरोपीय देशों में इस फैसले कि आलोचना हो रही हैं। अमेरिका और ग्रीस ने इसके खिलाफ बयान जारी किये हैं। वहीं युनेस्को ने भी इस फैसले पर आपत्ती दर्ज कराई हैं। वहीं तुर्की के बुद्धिवादी समुदाय भी इस फैसले कि मुख़ालिफत कर रहा हैं, ओहरान पामूक जैसे प्रसिद्ध तुर्की लेखक भी सरकार के नीति की खुलकर आलोचना कर रहे हैं।
तुर्की सरकार ने भावना के बहाव में आकर इस विवाद को राजनीति का रूप दिया हैं। सरकार को पता हैं कि इसी धार्मिक भावनाओ के आधार पर वोटो को कि फ़सल काटी जा सकती हैं। लेखक कि राय है कि यह चर्च सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हैं, जिसकी यथास्थिति बनाये रखना जरुरी हैं। केवल राजनीतिक लाभ लेने के लिए इसे विवादों दूर रखा जाए।
बहुत से मुस्लिम बुद्धिवादी भी इस फैसले का विरोध कर रहे हैं। उनका मानना हैं कि नफरत के राजनीति के इतिहास के साथ छेडछाड न हो। वैसे, यह चर्च यूरोपीय सम्राटों के अमानवीय और हिंसक शासनकाल का प्रतीक हैं। इस इतिहास को याद रखने के लिए इस चर्च की यथास्थिति बनाये रखना जरुरी हो जाता हैं।
रोमन साम्राज्य पर ह इस्लामी विजय के प्रतीक कि निशानी हैं। जिसके इतिहास के साथ छेडछाड करना सरासर गलत हैं। इस फैसले से यूरोपीयन मुल्को में मुसलमानों के प्रति नफरत का माहौल तैयार हो सकता हैं। केवल राजनीतिक फायदों के लिए अया सोफ़िया को मस्जिद में तब्दिल करना गलत हैं। तुर्की में मुस्लिम हुकूमत हैं, अगर सरकार चाहे तो इससे भी बड़ी नई मस्जिद बनवाई जा सकती हैं।
एक बार याद दिलाता चलू कि ईसवीं 637 में जब दूसरे खलिफ़ा हजरत उमर ने यरुशलेम पर किसी भी खून खराबे के बगैर विजय हासिल कर ली थी। हजरत उमर ने यरुशलेम पहुंचे और उन्होंने सेपल्चर चर्च को भेटी दी। उस समय उन्हें अज़ान कि आवाज सुनाई दी।
हजरत उमर की हलचले देखकर उनके साथ आये एक पादरी सोफ्रोनियस ने कहा, “आप यहीं नमाज पढ़ लिजिए।” उमर ने कहा, “मैं यहां नमाज अदा करुंगा तो आनेवाले समय में इस चर्च को मुसलमान मस्जिद में तब्दिल कर देंगे, जो कि मैं नही चाहता।”
आगे चलकर हजरत उमर ने इस चर्च पर कभी मस्जिद का निर्माण नही होंगा इस तरह का एक आदेश जारी किया। तुर्की को भी चाहीए कि हजरत उमर के फैसले का आदर और सम्मान करे।
अगर चर्च नही चाहते तो, उसकी मूल आत्मा लौटाकर उसे संग्रहित करे। या फिर उसकी यथास्थिति बनाये रखे, जो कि 1934 के कानून के तहत एक म्यूजियम के रूप में बनी है। जो किसी के भी धार्मिक आस्था और भावना को ठेस नही पहुंचाती हैं।
जाते जाते :
हिन्दी, उर्दू और मराठी भाषा में लिखते हैं। कई मेनस्ट्रीम वेबसाईट और पत्रिका मेंं राजनीति, राष्ट्रवाद, मुस्लिम समस्या और साहित्य पर नियमित लेखन। पत्र-पत्रिकाओ मेें मुस्लिम विषयों पर चिंतन प्रकाशित होते हैं।