“अगर अफ़ग़ानी सैनिक नहीं लड़ते तो मैं कितनी पीढ़ियों तक अमेरिकी बेटे-बेटियों को भेजता रहूं। मेरा जवाब साफ है। मैं वो गलतियां नहीं दोहराऊंगा जो हम पहले कर चुके हैं। .. क्या हुआ है? अफगानिस्तान के राजनीतिक नेताओं ने हाथ खड़े कर दिए और देश छोड़ कर भाग गए।” ये बयान अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन का हैं, जो उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी रिस्टोर होने पर दिया हैं।
इस बयान को ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ (WSJ) के संपादकीय बोर्ड ने ‘इतिहास में सबसे शर्मनाक बयान’ करार दिया है। WSJ के संपादकीय बोर्ड कहता हैं, “जैसे ही तालिबान काबुल में दखिल हुआ, बाइडेन ने खुद को जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया, अपने पूर्ववर्ती को दोष दिया और कमोबेश तालिबान को देश पर कब्जा करने के लिए आमंत्रित किया।”
अब जब ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ ने ही इस बयान को शर्मनाक कहा हैं तो हमें और ज्यादा कहने की जरुरत महसूस नहीं होती।
15 अगस्त 2021, ये वह तारीख है जब पूरी दुनिया मौन हो कर देखती रह गई और तालिबान ने राजधानी काबुल समेत पूरे अफ़ग़ानिस्तान पर कब्जा कर लिया। ये हार न सिर्फ अफ़ग़ानिस्तान, बल्कि अमेरिका की भी मानी जा रही है। क्योंकि अफ़ग़ान में अमेरिका की 20 साल तक तालिबान से जंग होती रही।
अरबों डॉलर अमेरिका ने इस जंग में खर्च किए। लेकिन फिर अचानक अमेरिका ने हाथ खड़े कर दिए और तालिबान ने पूरे अफ़ग़ान पर फिर से कब्जा जमा लिया। इसी वजह से अब पूरी दुनिया अमेरिका पर उंगलियां उठा रही है।
किसी भी देश के लिये 20 साल का वक्त बहुत कीमती होता है। दो दशकों में दुनिया के कई देशों के असीम प्रगति करने के उदाहरण हमारे सामने हैं। लेकिन अमेरिका दो दशकों तक खरबों रूपये खर्च करने के बावजूद तालिबान पर जीत हासिल नहीं कर सका।
वियतनाम युद्ध में शर्मनाक हार का सामना करने वाले सुपरपावर अमेरिका को अब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के हाथों करारी शिकस्त का सामना करना पड़ रहा है। पिछले करीब 20 सालों में अरबों डॉलर खर्च कर के अफ़ग़ान सेना को ‘ताकतवर’ बनाने का दावा करने वाले जो बाइडन का बयान झूठा निकला।
डोनाल्ड ट्रम्प पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं जिन्होंने अफ़ग़ानिस्तान को कुचलने के बारे में जोर से बात की। लेकिन कम से कम ट्रम्प अमेरिका प्रथम की विचारधारा को ईमानदारी से बताते थे, लेकिन जो बाइडेन स्वार्थ और ईमानदार दोनों तरह से इसे प्राप्त करना चाहते हैं। उन्होंने अफ़ग़ान लोगों को दर्द से कराहने के लिए छोड़ दिया। अमेरिका अब बड़े राजनीतिक संकट में फंस गया है और उसे मजबूरी में तालिबानी सत्ता को मंजूरी देनी पड़ सकती है।
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बरबादी की कगार पर अफ़ग़ानिस्तान
अमेरिकी सेना की मुकम्मल वापसी से पहले ही तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया। यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है जब अमेरिका किसी देश में उद्धारकर्ता के रूप में उतरा और गैर-जिम्मेदाराना रूप से चला गया हो।
ऐसा तब भी हुआ था जब 1975 में गृह युद्ध से देश को तबाह करने के बाद अमेरिका ने वियतनाम छोड़ दिया था, और ऐसा तब भी हुआ जब 2003 में अमेरिका ने इराक पर आक्रमण किया और ईराक को एक अशासकीय स्थान में बदल दिया था।
अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की जल्दबाजी और गैर-जिम्मेदाराना वापसी यह दर्शाती है कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में दो दशक लंबे युद्ध को हार चुका है। यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अफ़ग़ान में अमेरिका कई मायनों में विफल रहा है।
ब्राउन यूनिवर्सिटी में कॉस्ट ऑफ वॉर प्रोजेक्ट के अनुसार, इस साल अप्रैल तक इस युद्ध में अफ़ग़ानिस्तान में लगभग 1,74,000 लोगों की जाने गई, जिस में 47,245 आम नागरिक, 66,000 से 69,000 अफ़ग़ान सेना और पुलिस और 51,000 से अधिक तालिबान लड़ाके शामिल थे, यानी कि हर दिन 23 जिंदगियां इस धरती से मिट जाती थी।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, 26 लाख अफ़ग़ान शरणार्थी हैं, जिन में से ज्यादातर पाकिस्तान और ईरान में हैं और अन्य 40 लाख देश के भीतर आंतरिक रूप से विस्थापित हैं। इस युद्ध की हिंसा भी भय पैदा करती है। लाखों लोगों के व्यवसाय बंद हो गए और लोगों ने खरीदारी करना बंद कर दिया है और अब अफ़ग़ान लोग नकदी निकालने के लिए बैंकों की ओर दौड़ रहे हैं। देश आर्थिक पतन के कगार पर खड़ा है।
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अमेरिका ने खर्च किए खरबों रुपये
अमेरिकी सरकार के आंकड़ों के मुताबिक साल 2010 से 2012 के बीच इस जंग पर सालाना खर्च 100 अरब डॉलर तक पहुंच गया था। इस के बाद अमेरिका ने अपना बजट तालिबान पर कार्रवाई की जगह अफ़ग़ान सेना की ट्रेनिंग पर लगाना शुरू कर दिया और तब यह खर्च कम होने लगा। पेंटागन के सीनियर अधिकारी ने अमेरिकी कांग्रेस को बताया था कि साल 2018 तक सालाना खर्च 45 अरब डॉलर तक आ गया था।
अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान पर अक्टूबर 2011 से ले कर सितम्बर 2019 तक 778 अरब डॉलर खर्च किए जा चुके थे। ब्राउन यूनिवर्सिटी की साल 2019 की एक स्टडी के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान को मिला कर तालिबान के खिलाफ जंग पर अमेरिका ने 978 अरब डॉलर खर्च कर दिए। इस में साल 2020 के लिए आवंटित फंड को भी जोड़ा गया था।
सवाल यह है कि क्या अफ़ग़ान के लिए जारी किए गए उन पैसो को अच्छी तरह से खर्च किया गया था? अगर खर्च किया गया तो जमीन पर लड़ाई के नतीजे क्यों नहीं सामने आए? अफ़ग़ान में तख्तापलट के बाद अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कहा है कि तालिबान का विरोध किए बिना काबुल का पतन होना अमेरिकी इतिहास की सब से बड़ी हार के रूप में दर्ज होगा।
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हर मोर्चे पर विफल
सब से पहला, यह एक राजनीतिक विफलता है। इस की शुरुआत गैर-जिम्मेदाराना निर्णय लेने से हुई। तालिबान द्वारा पनाह दिए गए अल-कायदा को बाहर निकालने के लिए अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण किया, लेकिन अमेरिका ने देश के पुनर्निर्माण के अपने वादे को कभी पूरा नहीं किया। पहले तो इस की कोई योजना नहीं थी, इस ने रास्ते में ही अपनी योजनाएँ बदल दीं और जो रह गए उन के लिए बिना योजना के झुक गया।
दूसरा, यह मानवीय विफलता है। अफ़ग़ान युद्ध ने लाखों लोगों की जान ली और इस से भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस ने मानवीय जीवन को चकनाचूर कर दिया। युद्ध की लागत अभी भी स्पष्ट नहीं है।
तीसरा, यह एक रणनीतिक विफलता है। 1950 के बाद के सभी युद्धों में अमेरिकी विफलताएं रणनीतिक गलतियां हैं। दुखद और चौंकाने वाली बात यह है कि कोरियाई युद्ध, वियतनाम युद्ध से ले कर इराक पर आक्रमण और अफ़ग़ान कब्जे तक, अमेरिका हर बार पिछली गलतीयों से सीखने में विफल रहा है।
देखा जाए तो हथियारों का सहारा ले कर अमेरिका जितना हल करता है उस से कहीं ज्यादा समस्याएं पैदा करता है। दुनिया को इस बात की कोई कदर नहीं है कि अमेरिका अपना खून बहा कर उन की समस्याओं को उलझा रहा है।
चौथा, यह एक नैतिक विफलता है। अमेरिका अपनी मदद कर के किसी की मदद नहीं कर रहा है। डोनाल्ड ट्रम्प की तुलना में बाइडेन अधिक अमेरिका प्रथम की विचारधारा बढ़ाने वाले राष्ट्रपति हैं। इस अर्थ में कि वे अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी के बारे में बहुत कुछ कहते हैं लेकिन एक ही समय में बहुत कम सहन करते हैं। जॉर्ज बुश ने युद्ध शुरू किया, बराक ओबामा ने शांति के बारे में सोचा, लेकिन वे अभी भी मानते थे कि अमेरिका अंत तक जिम्मेदार है।
अफ़ग़ान में हार के लिए अमेरिकी सेना के कमांडर और खुफिया अधिकारी जिम्मेदार हैं। यह साल 1968 के बाद अमेरिका की सब से बड़ी खुफिया नाकामी है। यह कैसे हुआ कि तालिबान ने योजना बनाई, खुद को एकजुट किया, तैयार किया और देश भर में इतने बड़े आक्रमक अभियान को क्रियान्वित किया वह भी सीआईए, डीआईए, एनडीएस और अफ़ग़ान सेना की नाक के नीचे?
अमेरिकी सेना और खुफिया अधिकारियों ने खुद को यह सहमत कर लिया कि तालिबान बातचीत करेगा और तालिबानीयों की यह सैन्य रणनीति थी ताकि वार्ता की मेज पर इस का फायदा उठाया जा सके। अमेरिकी तालिबान की इस साजिश को पकड़ नहीं पाए कि तालिबान सैन्य ताकत के बल पर देश पर कब्जा कर सकता है। अमेरिका ने अफ़ग़ान सेना की ताकत के बारे में गलत अनुमान लगाया कि वह एक साल तक तालिबान को रोक सकते हैं।
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पाकिस्तान का हव्वा बनाम ज़मीनी हकीकत
अफ़ग़ानिस्तान रणनीतिक रूप से मध्य और दक्षिण एशिया के बीच स्थित है- तेल और प्राकृतिक गैस से समृद्ध क्षेत्र। यह विभिन्न जातीय समूहों के इसे पैतृक मातृभूमि बनाने के प्रयासों से भी जूझता रहा है। पश्तून आबादी (और कुछ हद तक बलूच आबादी) इस में विशेष रूप से शामिल हैं।
इन और अन्य कारणों से, अफ़ग़ानिस्तान को लंबे समय से सोवियत संघ/रूस, ब्रिटेन, अमेरिका, ईरान, सऊदी अरब और निश्चित रूप से पाकिस्तान से लगातार हस्तक्षेप का सामना करना पड़ा है।
अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच तनावपूर्ण संबंध जगजाहिर हैं। 1947 में जब पाकिस्तान ने अपनी स्वतंत्रता प्राप्त की, तो संयुक्त राष्ट्र में इस के गठन के खिलाफ मतदान करने वाला अफ़ग़ानिस्तान एकमात्र देश था। कुछ तनाव अफ़ग़ानिस्तान के डूरंड रेखा को मानने से इनकार करने से उत्पन्न हुआ- 1893 में जल्दबाजी में खींची गई 1600 मील की सीमा जिस ने हजारों पश्तून जनजातियों को बांट दिया।
दोनों देशों में पश्तून एक अलग राष्ट्र (जो उत्तरी पाकिस्तान से गुजरेगा) बनाने की मांग ना कर बैठें, इस डर से पाकिस्तान लंबे समय से अफ़ग़ानिस्तान को इस्लामी देश बनाने की मांग करता रहा है।
पाकिस्तान अफ़ग़ान के लिए पश्तून के मुकाबले एक इस्लामी पहचान का समर्थन कर के भारत के खिलाफ रणनीतिक पकड़ मजबूत करना चाहता है। पाकिस्तान ने 1994 में तालिबान को सशक्त बनाने में मदद की और वह अफ़ग़ानिस्तान का सब से अधिक सक्रिय हमसाया रहा है।
पाकिस्तान सरकार के भीतर कुछ ऐसे तत्त्व हैं, अर्थात् आईएसआई, जो अभी भी तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान में चल रही अस्थिरता का समर्थन करते हैं।
लेकिन उस की एक वजह यह हो सकती है कि पाकिस्तान के अफ़ग़ानिस्तान में अन्य समूहों के साथ अच्छे संबंध नहीं हैं, इसलिए उस के पास तालिबान का समर्थन करने के अलावा कोई चारा नहीं है। पाकिस्तान की सरकार के लिए, सब से खराब स्थिति एक लंबा संघर्ष है, जिस से पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर शरणार्थियों का आगमन हो सकता है।
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अनसुलझे सवाल
ये घटना अपने पीछे कई अनसुलझे सवाल छोड़ गई। अंदाज़ा ये लगाया जा रहा था के जब 11 सितम्बर को अमेरिका की सेना अफ़ग़ानिस्तान छोड़ेगी तब तालिबान पाँव पसारेगा मगर अमेरिका की फ़ौज जाने से पहले ही उन्होंने काबुल पर कब्ज़ा कर लिया।
हैरत इस बात पर भी हैं कि 3 लाख की अफगानी फ़ौज ने 90,000 तालीबानीयों के सामने इतनी जल्दी आत्मसमर्पण कैसे कर दिया ? ना वायूसेना का प्रयोग किया (जिस का तालीबान के पास कोई जवाब नहीं था), ना UNO ने कुछ कहा, ना लोकतंत्र की दुहाई देने वाले राष्ट्रों ने जुबां खोली। मतलब निकलते ही अमेरिका ने हाथ खड़े कर दिए।
रूस और चीन ने तालिबान का स्वागत किया। भारत अभी तक अपनी भूमिका स्पष्ट नहीं कर पाया। Transfer of Power अगर इस मार्ग से हो तो अराजकता फैलती ही हैं। ये कोई नई बात नहीं हैं मगर UNO का कोई करवाई ना करना और अमेरिका का यूँ चले जाना हैरत में डालता हैं।
इस में एक पहलू विश्व के सब से प्रगत Intelligence की विफलता का भी हैं। परसों ही अमेरिका के intelligence ने इनपुट दिया था कि तालिबान को काबुल पर कब्ज़ा करने में 30-40 दिन लगेंगे। इस बयान के जारी होने को 30-40 भी नहीं बीते थे कि तालिबान ने काबुल पर कब्ज़ा कर लिया।
और सबसे बड़ी बात ये की अमेरिका ने एक अधिकृत बयान जारी कर के सारा दोष अफ़ग़ानिस्तान और उसके लोगं पर मढ़ दिया हैं, यह महज मजाक से कमी तो नही, लगता।
ये सब हमारे लिए एक सबक हैं। वो गलतीया हम ना दोहराए जो गलतीया अफ़ग़ानिस्तान में हुई।
जाते जाते :
लेखक सामाजिक विषयों के अध्ययता और जलगांव स्थित डॉ. उल्हास पाटील लॉ कॉलेज में अध्यापक हैं।