बीस साल पहले 9/11, 2001 की दिल को हिला देने वाली त्रासदी, जिसमें करीब 3,000 निर्दोष लोग मारे गए थे। इसके बाद अमरीकी मीडिया ने एक नया शब्द गढ़ा, ‘इस्लामिक चरमपंथ’। यह पहली बार था जब चरमपंथ और आतंकवादियों को किसी धर्म से जोड़ा गया।
विश्व मीडिया ने इस शब्द को पकड़ लिया और कुछ संकीर्ण व सांप्रदायिक ताकतों ने इसे जम कर हवा दी। इस शब्द ने मुसलमानों के बारे में नकारात्मक धारणाओं को बल दिया और वैश्विक स्तर पर इस्लाम और मुसलमानों के प्रति भय और घृणा का वातावरण पैदा किया।
इसके घातक परिणाम हुए, जिनका सबसे ताज़ा उदाहरण है 15 मार्च 2019 में न्यूज़ीलैण्ड की घटना, जिसमें लगभग 50 मुसलमानों को एक श्वेत राष्ट्रवादी की गोलियों का शिकार होना पड़ा। उसके बाद श्रीलंका में 20 अप्रैल 2019 को तीन चर्चो व दो पांच सितारा होटलों पर आत्मघाती आतंकियों द्वारा किये गए। इस हमले में ईस्टर मना रहे 250 निर्दोष ईसाई मारे गए।
श्रीलंका के रक्षा मंत्री रुवान विजयवर्धने के अनुसार, यह हमला, न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में मस्जिदों पर हुए हमले का बदला लेने के लिए किया गया। न्यूजीलैंड का यह हमला एक ऑस्ट्रेलियाई प्रवासी द्वारा किया गया था, जो श्वेत श्रेष्ठतावादी था।
ट्विन टावर्स पर हमले (Attack on Twin Towers) के बाद से, आतंकवाद को एक धर्म विशेष से जोड़ने की कवायद शुरू हो गयी। साम्राज्यवादी अमरीका के कच्चे तेल के संसाधनों पर कब्ज़ा ज़माने के प्रयास ने पश्चिम एशिया (West asia) में जबरदस्त उथल-पुथल मचा दी। चरमपंथ ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए।
इसके जवाब में, प्रतिक्रियावादियों की कुत्सित हरकतें शुरू हो गईं। सन 2011 में नॉर्वे के एक युवा अन्द्रेस बेहरिंग ब्रेविक ने अपनी मशीनगन से 86 व्यक्तियों की हत्या कर दी।
श्वेतों की बहुसंख्या वाले देशों में प्रवासी मुसलमानों के प्रति भय के बातावरण और वैश्विक स्तर पर इस्लाम के प्रति नफरत (Hatred towards Islam) के भाव ने एक-दूसरे को मज़बूत किया और नतीजे में वैश्विक आतंकवाद ने अत्यंत भयावह रूप ले लिया।
पढ़े : अफ़ग़ान-अमेरिका निरर्थक जंग के अनसुलझे सवाल
पढ़े : फिलस्तीन-इज़राइल संघर्ष : सदीयों से अनसुलझा सवाल
पढ़े : क्या दुष्प्रचार का नतीजा थी सद्दाम हुसैन की फाँसी?
चरमपंथ की शुरुआत
अतिवाद पर कोई लेबल चस्पा करने से पहले हमें वर्तमान परिदृश्य और अतीत का गंभीरता से विश्लेषण करना होगा।
कहानी की शुरुआत होती है अमरीका द्वारा तालिबान और मुजाहिदीन को खड़ा करने से। इसके लिए पाकिस्तान में मदरसे स्थापित किये गए, जिनमें सऊदी अरब में प्रचलित इस्लाम के वहाबी-सलाफी संस्करण के ज़रिये युवाओं को चरमपंथ की राह पर चलने के लिए प्रवृत्त किया गया। इस्लाम का यह संस्करण अति-कट्टरपंथी है और शरिया का विरोध करने वालों पर निशाना साधता है।
पाकिस्तान में अमरीकी के सहयोग और समर्थन से जो मदरसे स्थापित किए गए, उनमें जिहाद और काफिर जैसे शब्दों के अर्थ को तोडा-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया। इसका नतीजा था अल कायदा।
अमरीका ने अफ़ग़ानिस्तान में काबिज रुसी सेना से लड़ने के लिए कट्टर युवाओं की फौज तैयार करने के लिए 800 करोड़ डॉलर और सात हज़ार टन असलाह उपलब्ध करवाया। यही थी चरमपंथ की शुरुआत।
वियतनाम युद्ध में पराजय से अमरीकी सेना का मनोबल काफी गिर गया था और इसलिए उसने अपनी सेना की बजाय, रूस से लड़ने के लिए एशियाई मुसलमानों की फौज का इस्तेमाल किया। अमरीका का प्राथमिक और मुख्य लक्ष्य था पश्चिम एशिया के तेल संसाधनों पर कब्ज़ा।
मुजाहिदीन, तालिबान, अल कायदा, इस्लामिक स्टेट और उनकी स्थानीय शाखाओं ने जो कुछ किया और कर रहे हैं, वह मानवता के लिए एक बहुत बड़ी त्रासदी है।
अमरीका ने ही इस्लाम के विरुद्ध विश्वव्यापी भय उत्पन्न किया, जिसकी समान और विपरीत प्रतिक्रिया के रूप में अन्द्रेस बेहरिंग ब्रेविक और ब्रेंटन टेरंट जैसे लोग सामने आये और पागलपन का चक्र पूरा हो गया।
ऐसा लगता है कि दुनिया ने ‘खून का बदला खून’ का सिद्धांत अपना लिया है। युवाओं के दिमाग में ज़हर भर कर चरमपंथ के जिन्न को पैदा तो कर दिया गया पर अब उसे बोतल में बंद करना असंभव हो गया है।
ब्रेविक और टेरंट जैसे लोग प्रवासी मुसलमानों को सभी मुसीबतों की जड़ बता रहे हैं। इस तरह की सतही समझ अन्य लोगों की भी होगी।
पढ़े : होस्नी मुबारक का वो तानाशाह जिसने मिस्र को विनाश कि ओर धकेला
पढ़े : क्यों बढ़ रहे हैं भारत में ईसाई अल्पसंख्यकों पर हमले?
पढ़े : राजनीतिक फैसलों से बारूद के ढेर पर खड़ा ‘शांतिप्रिय लक्षद्वीप’
भारत में नफरत की बाढ़
भारत में ट्विन टावर्स पर हमले के काफी पहले से मुसलमानों के बारे में नकारात्मक धारणाएं निर्मित कर, उनका प्रयोग सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा था। जाहिर है कि कथित इस्लामिक चरमपंथ के लेबल ने सांप्रदायिक ताकतों की मदद ही की हैं।
भारत में मध्यकालीन मुस्लिम राजाओं को मंदिरों के विध्वंसक और तलवार के बल पर हिन्दुओं को मुसलमान बनाने वालों के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है।
चरमपंथ से मुसलमानों को जोड़ने का नतीजा यह हुआ कि अपराधों की जाँच करने वाली एजेंसीयों तक पर यह धारणा हावी होने लगी और ऐसे आतंकी हमलों के लिए भी मुसलमानों को दोषी ठहराया जाने लगा, जिनसे उनका कोई संबंध नहीं था, जैसे मक्का मस्जिद और मालेगांव धमाके।
हैदराबाद में आयोजित पीपुल्स ट्रिब्यूनल की सुनवाई की रपट ‘स्केपगोट्स एंड होली काऊस’ (बलि के बकरे और पवित्र गाय) बताती है कि किस प्रकार बम धमाकों में प्रज्ञा सिंह ठाकुर, स्वामी असीमानंद व उनके साथियों का हाथ होने के बावजूद, बड़ी संख्या में मुस्लिम युवकों को उनके लिए ज़िम्मेदार ठहराकर, जेलों में ठूंस दिया गया।
उस दौर में, जांच एजेंसीयां यह मान कर चलती थीं कि ‘सभी अतिवादी मुसलमान होते हैं।’ बाद में, महाराष्ट्र पुलिस के चरमपंथ-निरोधक दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे ने यह खुलासा किया कि देश में हुई कई आतंकी घटनाओं के लिए हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा में यकीन करने वाले व्यक्ति ज़िम्मेदार थे।
पढ़े : हिन्दू आबादी में कमी और मुसलमानों में बढ़ोत्तरी का हौव्वा
पढ़े : सीएए कोर्ट में विचाराधीन, फिर लागू करने की जल्दी क्यों?
पढ़े : भारत में आरक्षण आंदोलनों का इतिहास और प्रावधान
न्यायिक निर्णय पर सवाल
सन 2014 में केंद्र में नई सरकार आने के बाद से, इन अपराधों की जांच की दिशा बदल गयी और नतीजा यह कि इनके आरोपियों में से अधिकांश को या तो ज़मानत मिल गयी या उन्हें बरी कर दिया गया।
असीमानंद को बरी करते हुए, जज ने लिखा “…अंत में, मेरे लिए यह अत्यंत दुखद और पीड़ाजनक है कि विश्वसनीय और स्वीकार्य प्रमाणों के अभाव में एक नीचतापूर्ण अपराध के दोषियों को सजा नहीं दी सकी। अभियोजन साक्ष्य में गंभीर कमियां हैं और एक आतंकी अपराध अनसुलझा रह गया है।”
दूसरी ओर तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा था कि यूपीए-2 सरकार ने प्रज्ञा ठाकुर और असीमानंद जैसे लोगों को फंसाने का प्रयास किया। उनके बयान से ऐसा लगता है मानो कांग्रेस, हिन्दुओं को अतिवादी सिद्ध करने पर आमादा थी। यह चरमपंथी के धर्म को केंद्र में लाने का समझा-बूझा प्रयास था।
अतिशयोक्तिपूर्ण बातें करने में माहिर हमारे प्रधानसेवक मोदी ने एक कदम और आगे बढ़ कर कहा कि कांग्रेस ने वोट बैंक की राजनीति की खातिर, हिन्दुओं को चरमपंथ से जोड़ा।
उन्होंने कहा, “हिन्दू शांति और भाईचारे के लिए जाने जाते हैं। इतिहास में कभी भी, वे इस तरह की आतंकी गतिविधियों का हिस्सा नहीं बने।”
जैसी कि उनकी आदत है, उन्होंने इस मुद्दे का भी सांप्रदायिकीकरण कर दिया। उन्होंने कहा कि चूँकि स्वामी असीमानंद बरी हो गए हैं और राहुल गाँधी जानते हैं कि हिन्दू उनसे नफरत करते हैं इसलिए वे वायनाड, जहाँ हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, से चुनाव लड़ रहे हैं। उनका यह सम्पूर्ण कथन, झूठ का पुलिंदा है।
ट्विटर पर प्रधानमंत्री को इस कथन के लिए जमकर ट्रोल किया गया। एक ट्वीट में कहा गया, “वैसे तो आतंक का कोई धर्म नहीं होता परंतु, चूँकि आपने पूछा, इसलिए, श्रीमान प्रधानमंत्री जी, कृपया स्वतंत्र भारत के सबसे जघन्य चरमपंथी को न भूलिए। ‘द टेलीग्राफ’ ने प्रधानमंत्री के यह पूछने पर कि ‘क्या इतिहास में हिन्दुओं के चरमपंथ का एक भी उदाहरण है?’, उन्हें नथूराम गोड़से की याद दिलाई।”
कोलकाता से प्रकाशित प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ‘द टेलीग्राफ’ ने प्रधानमंत्री को स्मरण दिलाया था कि स्वाधीन भारत के इतिहास में सबसे जघन्य आतंकी हमला, पूर्व आरएसएस प्रचारक और हिन्दू महासभा कार्यकर्ता नथूराम गोडसे ने अंजाम दिया था।
मोदी के दिमाग में ‘हिन्दू आतंक’ शब्द इतना बैठा हुआ है कि उन्होंने वर्धा (महाराष्ट्र) में अपने भाषण में इसका 13 बार इस्तेमाल किया।
मोदी, जेटली आदि, असीमानंद को बरी किए जाने का लाभ उठाना चाहते थे। पर वे यह नहीं देख रहे थे कि जज ने मामले की जांच में लापरवाही के लिए एनआईए को कितनी जम कर लताड़ लगाई है।न्यायिक निर्णय केवल कानून और जज के दृष्टिकोण पर निर्भर नहीं करते। वे इस बात पर भी निर्भर करते हैं कि अभियोजन कैसे और किस तरह के सुबूत जज के सामने रखता है। यह एक ऐसा मामला है जिसमें सरकारी मशीनरी ने ठीक ढंग से सुबूत प्रस्तुत नहीं किये और आरोपी बरी हो गए।
पढ़े : भारतीय भूमी पर चीन के अवैध कब्जे को सरकार ने स्वीकारा
पढ़े : चीन मामले में नेहरू फर्जी राष्ट्रवादी नहीं थे!
पढ़े : चीन पर करम और किसानों पर सितम, रहने दे थोड़ा सा भ्रम
राजनैतिक एजेंडा
बीते कई दिनों से धर्म को चरमपंथ से जोड़ने के हरसंभव प्रयास किए जा रहे हैं। सोवियत संघ के पतन के बाद, वैश्विक साम्राज्यवादी ताकतें, इस्लामिक चरमपंथ का मुकाबला करने के नाम पर दुनिया के कच्चे तेल के संसाधनों पर कब्ज़ा ज़माने का प्रयास कर रहीं हैं।
अमरीकी मीडिया द्वारा गढ़ा गया वैश्विक चरमपंथ शब्द, एक विशिष्ट राजनैतिक एजेंडा को बढावा देने के लिए धार्मिक पहचान के उपयोग का निकृष्टतम उदाहरण है।
दुनिया भर के चरमपंथी, विभिन्न धर्मों से रहे हैं। आयरिश रिपब्लिकन आर्मी, एलटीटीई, खालिस्तान लिबरेशन फ्रंट, उल्फा आदि इसके उदाहरण हैं। श्रीलंका के बौद्ध भिक्षुक तल्दुवे सोमारामा थेरो ने वहां के प्रधानमंत्री की हत्या की थी और एंडर्स बेहरिंग ब्रेविक ने नॉर्वे में 2011 में 86 युवाओं को मौत के घाट उतार दिया था।
आतंकी हिंसा के अलावा, नस्लीय हिंसा से भी हमारी दुनिया त्रस्त है। श्रीलंका में ‘बोधू बल सेना’ (बौद्ध शक्ति बल), मुसलमानों और ईसाईयों को निशाना बना रहा है। श्रीलंका में ही तमिल (हिन्दू) भी निशाने पर हैं।
म्यानमार में आशिन विराथू नामक एक बौद्ध भिक्षु, हिंसा के इस्तेमाल की वकालत कर रहा है और रोहिंग्या मुसलमानों पर हमले करवा रहा है।
आज दुनिया भर में सांप्रदायवादी ताकतें, धर्म का लबादा ओढ़ कर अपने राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए हिंसा के इस्तेमाल को उचित बता रही हैं। त्रासदी यह है कि चूँकि उनकी भाषा पर धर्म का मुलम्मा चढ़ा होता है इसलिए इन ताकतों द्वारा फैलाई जा रही नफरत का शिकार पूरे समुदाय बन जाते हैं।
हम कह सकते हैं कि आतंकी सभी धर्मों से होते हैं और वे अपने धर्म के कारण चरमपंथी नहीं बनते। आतंकी घटनाओं के पीछे राजनैतिक उद्देश्य होते हैं।
आज अल कायदा, आईएस आदि चर्चा में हैं पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अमरीका ने ही अल कायदा को खड़ा किया था और अब वो पश्चिम एशिया में आतंकी गुटों का पितामह बन गया है। अमरीका ने अल कायदा को 800 करोड़ डॉलर और सात हज़ार टन हथियार उपलब्ध करवाए।
पर इससे भी बड़ा नुकसान, अमेरिकी मीडिया द्वारा निर्मित इस धारणा से हुआ कि चरमपंथ का इस्लाम से संबंध है। मोदी और उन जैसे अन्य लोग, इस गलत धारणा का प्रयोग अपने राजनैतिक लक्ष्य हासिल करने के लिए कर रहे हैं। वे भी यह अच्छी तरह से जानते हैं कि धर्म का चरमपंथ से कोई लेनादेना नहीं है और चरमपंथ एक राजनैतिक परिघटना है।
आतंकी हिंसा का एक मुख्य कारण है अमरीकी साम्राज्यवाद का तेल के संसाधनों पर कब्ज़ा करने का प्रयास और तेल उत्पादक क्षेत्र में प्रतिक्रियावादी और संकीर्ण शासकों को प्रोत्साहन। अमरीका के इन प्रयासों को नियंत्रित कर और पूरे विश्व में प्रजातान्त्रिक सोच को बढ़ावा देकर, दुनिया को इस कैंसर के मुक्ति दिलाई जा सकती है।
(आलेख में लिखे गए विचार लेखक के अपने और निजी हैं।)
जाते जाते :
- ‘सेंट्रल विस्टा’ संसदीय इतिहास को मिटाने का प्रयास
- बात ‘आत्मनिर्भर भारत’ या चुनिंदा ‘पूंजीपति निर्भर’ भारत की?
- राजनीतिक पार्टीयों के लिए ‘धर्मनिरपेक्षता’ चुनावी गणित तो नही!
लेखक आईआईटी मुंबई के पूर्व प्रोफेसर हैं। वे मानवी अधिकारों के विषयो पर लगातार लिखते आ रहे हैं। इतिहास, राजनीति तथा समसामाईक घटनाओंं पर वे अंग्रेजी, हिंदी, मराठी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषा में लिखते हैं। सन् 2007 के उन्हे नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित किया जा चुका हैं।