हमें मुसलमान शासकों द्वारा मंदिरों को ध्वस्त किए जाने के बारे में बहुत कुछ पढ़ने को मिलता है लेकिन हम कभी भी हिन्दू या बुद्ध शासकों द्वारा मंदिरों व अन्य धार्मिक स्थलों को नष्ट करने के बारे में या काश्मीर के राजा हर्ष द्वारा मूर्तियों को तोड़े जाने के बारे में बात नहीं करते।
डी.डी. कोसम्बी इस मूर्तिभंजन के बारे में अपनी किताब ‘द कल्चर एण्ड सिविलाइजेशन ऑफ एन्शियेंट इण्डिया इन हिस्टोरिकल आऊटलाईन’ में लिखते हैं “काश्मीर के राजा हर्ष (1089-1101 ईसवीं, सातवीं शताब्दी के सम्राट हर्ष से अलग) ने अपने पूरे राज्य में, केवल चार अपवादों को छोड़कर योजनाबद्ध तरीके से एक के बाद एक करके धातु से बनी सारी मूर्तियों को पिघलवा दिया।
यह कार्य एक विशेष मंत्री, देवताओं को उखाड़ने वाला मंत्री (देवोत्थपद नायक) द्वारा किया गया था। गलियों में से घसीट कर भट्टी तक ले जाने से पहले प्रत्येक बुत को सार्वजनिक तौर पर कोढ़ से पीड़ित भिखारियों द्वारा अपना मल-पेशाब उस पर डाल कर गन्दा किया जाता था।
इसका जरा-सा भी धार्मिक औचित्य ठहराने की कोशिश नहीं की गई। राजा की सुरक्षा के लिए मुस्लिम अंगरक्षक सैनिक थे, वे भी राजा द्वारा सूअर का मांस खाने के कारण दुःखी थे।”
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तथ्य क्यों हुए बेदखल?
हमारे इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने वाले इस तरह के तथ्यों को कभी महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं दिया जाता। हम केवल मुसलमान शासकों द्वारा मंदिरों को तोड़े जाने के तथ्यों को, बिना उनके उद्देश्यों को समझे, उजागर करते हैं।
यद्यपि इतिहास तथ्यों पर आधारित होता है, फिर भी इतिहास लेखन में तथ्यों का अपनी इच्छा के अनुसार चयन गलत निष्कर्ष निकाल सकता है, भ्रम पैदा कर सकता है।
महमूद गजनवी के बारे में भी, इतिहासकारों ने बीच-बीच में से चुनींदा तथ्यों को उजागर किया हैं। हम इस तथ्य पर जोर डालते हैं कि उसने सोमनाथ का मंदिर ध्वस्त किया और लूटा।
यूसुफ हुसैन अपनी किताब ’इण्डो-मुस्लिम पोलिटी : टर्की-अफगान पीरियड’ में लिखते हैं, “हम इस तथ्य पर रोशनी नहीं डालते कि गज़नवी ने अपनी सेना और प्रशासन में हिन्दुओं को उच्च पदों पर लगा रखा था।
‘तारीखे-बायहकी’ उसके तिलक, सोंधी, राय हिन्द और हजरन जैसे हिन्दू सेनापतियों के नामों का वर्णन है। उसने एक हिन्दू कवि को भी अत्यधिक धन देकर पुरस्कृत किया और उसके दरबार में अनेक हिन्दू विद्वान् थे।”
हुसैन आगे लिखते है, “उसके (गज़नवी) शासनकाल में जारी किए गए सिक्कों पर संस्कृत के श्लोक गुदवाये थे। इसके अतिरिक्त महमूद के पुत्र और उसके उत्तराधिकारी मसूद ने लाहौर के विद्रोही राजा अहमद नियाल्तीजीन को कुचलने के लिए तिलक नामक हिन्दू को सेनापति बनाया था। कुछ हिन्दू सेनापति गजनवी सम्राटों के विश्वासपात्र सलाहकार थे।”
इतिहासकार इस तथ्य को भी नहीं उभारते उजागर करते कि हिन्दू राजाओं ने भी अनेक बुद्ध और जैन मंदिर नष्ट किए थे।
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क्या था मकसद?
इतिहासकार इस बात का वर्णन नहीं करते कि हिन्दू पूजास्थलों को नष्ट करने वाले कुछ मुस्लिम शासकों ने कुछ मंदिरों के लिए जागीरें भी प्रदान की।
औरंगजेब पर बनारस के विश्वनाथ मंदिर जैसे कुछ सबसे पवित्र मंदिरों को तोड़ने का आरोप लगाया जाता है और यह सही भी है, लेकिन शायद ही कोई इतिहासकार इस बात का वर्णन करता है कि उसने स्वयं बनारस के मंदिर सहित अनेक हिन्दू मंदिरों को जागीरें दीं।
हिन्दू मंदिरों को जागीरें प्रदान करने वाले फरमान दस्तावेजों में मौजूद हैं, फिर भी उनको कहीं उद्धृत नहीं किया जाता।
दूसरे शासकों की तरह, औरंगजेब के व्यक्तित्व के भी कई पहलू थे। वह केवल हिन्दू मंदिरों का नाशक ही नहीं था। जैसा कि महमूद गजनी के बारे में भी रेखांकित किया गया है, मंदिर केवल धार्मिक दृष्टिकोण से नष्ट नहीं किए गए थे। इससे अधिक उनसे आर्थिक और राजनीतिक जरूरतें पूरी होती थीं।
औरंगजेब ने मस्जिदें भी नष्ट की है, इसलिए मंदिरों को नष्ट करने में औरंगजेब जैसाकि कोसम्बी ने कहा कि कश्मीर के राजा हर्ष ने योजनाबद्ध तरीके से मंदिरों को ध्वस्त करके अपनी आर्थिक जरूरतें पूरी की।
उसने मंदिरों से प्राप्त सोने और चांदी को पिघलाकर उनके सिक्के बनाए। बहुत से मुस्लिम शासक हिन्दुओं को दुःखी (नाराज) करने के लिए मंदिर नहीं तोड़ते थे बल्कि वे अपने प्रतिद्वन्द्वी हिन्दू राजाओं को अपमानित करने और उन्हें सजा देने के लिए अक्सर ऐसा करते थे।
अक्सर उनका मकसद लोगों को यह संदेश देना होता था कि एक राजा जो अपने पवित्र पूजास्थल की रक्षा नहीं कर सकता, अपनी प्रजा की रक्षा कैसे करेगा अर्थात् एक राजा जो एक पवित्र पूजास्थल की रक्षा नहीं कर सकता, उसे राज करने का कोई अधिकार नहीं है।
औरंगजेब तक ने भी उन्हीं मंदिरों को नष्ट किया जो दुश्मन के क्षेत्र में स्थित थे और उन मंदिरों की रक्षा की जो उसके मित्र (अधीन) राजाओं के क्षेत्र में थे। औरंगजेब के (अधीन) मित्र राजा जयसिंह के राजपूताना क्षेत्र में मंदिरों को तोड़े जाने का कोई वर्णन नहीं मिलता।
बल्कि उसने ऐसे मंदिरों को जागीरें दीं। इस प्रकार इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि उसने कुछ मंदिरों को तोड़ा तो दूसरे अन्य मंदिरों को जागीरें दीं। बहुत से हिन्दू शासकों ने भी ऐसा ही किया।
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मराठों ने भी तोडे मंदिर
मराठों ने भी अपने राजनीतिक शत्रु के क्षेत्र में मंदिरों को नष्ट किया। टीपू के शासनकाल के दौरान जब मराठों ने उसके क्षेत्र पर आक्रमण किया, उन्होंने श्रीरंगापट्टनम के प्रसिद्ध मंदिर को ध्वस्त किया और टीपू ने ही उसकी मरम्मत करवाई।
मराठा मंदिर को नष्ट करके टीपू सुल्तान का अपमान करना चाहते थे और साथ ही मंदिर का धन लूटना चाहते थे जबकि टीपू का उद्देश्य मंदिर की रक्षा करना और उसमें हुए नुकसान की भरपाई करना था ताकि उसके प्रति उसकी प्रजा में दोबारा विश्वास पैदा किया जा सके।
यह सोचना मूर्खता होगी कि इस प्रकार के कार्य राजा केवल अपने धार्मिक विश्वास के कारण करते थे।
हमारे बहुत से इतिहासकार, विशेष तौर पर जो अपनी राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित हैं, इन धर्म से इतर उद्देश्यों का वर्णन नहीं करना चाहते और सीधे शासक के धार्मिक विश्वासों को इनका कारण मानते हैं। और यदि पूजास्थल तोड़ने वाले शासक का धर्म पूजास्थल वाला ही धर्म हो तो ऐसी सूचना को दबा दिया जाता है।
मस्जिदे भी हुई ध्वस्त
औरंगजेब ने भी गोलकुंडा के शासक तानाशाह के क्षेत्र में एक मस्जिद को नष्ट किया और इसके नीच दबाया गया धन खोद कर निकाल लिया जो कि सम्राट की खिराज (भूमिकर) की अदायगी से बचने के लिए दबाया गया था।
इस तथ्य को कभी उजागर नहीं किया जाता क्योंकि यह हमारे सांप्रदायिक-इतिहासकारों के राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा नहीं करता क्योंकि इससे प्रमाणित होता है कि जैसा कि औरंगजेब ने मस्जिदे भी नष्ट की, इसलिए मंदिरों को नष्ट करने में औरंगजेब का उद्देश धार्मिक विश्वास न होकर कुछ और था।
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एक भारतीय सुधारवादी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता थे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस्लाम में मुक्ति धर्मशास्त्र पर उनके काम के लिए जाना जाता है, उन्होंने प्रगतिशील दाउदी बोहरा आंदोलन का नेतृत्व किया। लिबरल इस्लाम के प्रवर्तक के रूप उन्हे दुनियाभर में ख्याती मिली थी। इस्लाम, महिला सक्षमीकरण, राजनीति और मुसलमानों के सामाजिक अध्ययन पर उनकी 50 से अधिक पुस्तके प्रकाशित हुई हैं।