प्रतिभाशाली अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की बेहद दुखद आत्महत्या को लेकर जो विवाद खड़ा किया गया है, उसमें बहुत कुछ बेमतलब है। कई लोग ऐसे हैं, जो बात शुरू करते हैं इस घटना से, लेकिन फिर वे अपने व्यक्तिगत एजेंडे पर आ जाते हैं यानी वे कुछ और साधने की कोशिश कर रहे हैं। पता नहीं, बहुत से लोगों को ‘नेपोटिज्म’ शब्द का मतलब भी मालूम है या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता है।
हो सकता है कि इसका इस्तेमाल इसलिए किया जा रहा हो कि यह कहने-सुनने में भारी-भरकम लगता है। अगर हम सुशांत सिंह के परिप्रेक्ष्य में बात करें, तो जो बहुत सारी बातें कही जा रहीं, वे तो अभी बातें ही हैं, उन्हें तथ्य तो नहीं कहा जा सकता है।
पुलिस इस मामले की जांच कर रही है, सिनेमा इंडस्ट्री से जुड़े लोगों से पूछताछ कर रही है, हमें उसके निष्कर्षों की प्रतीक्षा करनी चाहिए। तमाम जानकारियों के सामने आने के बाद ही चर्चा करना सही तरीका होगा।
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प्रिविलेज्ड कम्युनिटी
फिल्म इंडस्ट्री को समझने के लिए मैं एक व्यक्तिगत उदाहरण देता हूं। एक बार मैं लॉस एंजिलिस में था। एक शाम वहां के मेरे कुछ प्रभावशाली अमीर मित्रों ने एक मशहूर नाइट क्लब जाने का कार्यक्रम बनाया।
उस नाइट क्लब में घुसना ही बहुत मुश्किल था और दरवाजे पर बाउंसर खड़े थे। मेरे दोस्त ने बाउंसर के कान में कुछ कहा और हम अंदर दाखिल हो गये, जबकि बहुत सारे लोग बहुत कोशिश के बावजूद अंदर नहीं जा पा रहे थे। अंदर भीड़भाड़ थी और लोग इधर-उधर खड़े थे।
मुझे लगा कि हम भी किसी कोने में खड़े हो जायेंगे। लेकिन भीतर एक हिस्से में कुछ मेज व कुर्सियां लगी थीं और उनमें से केवल एक मेज खाली थी। उस जगह पर हमें बैठाया गया। इस तरह हम एक ‘प्रिविलेज्ड’ यानी विशेषाधिकार प्राप्त स्थिति में थे कि क्लब में आये और एक विशिष्ट जगह पर बैठे।
अब उस जगह में यह मायने नहीं रखता था कि कौन कहां से और किस पृष्ठभूमि से है, बल्कि यह अहम था कि कौन किस नीयत से बैठा है। सो, किसी भी इंडस्ट्री में विशेषाधिकार की ऐसी जगहें होती हैं, जिसे आप उस इंडस्ट्री का
‘क्लब क्लास’ कह सकते हैं। उस क्लब क्लास में कुछ लोग ऐसे ही शामिल हो जाते हैं क्योंकि उनकी पैदाइश ही क्लब क्लास में हुई होती है। जैसे, मेरा बेटा जन्म के बाद एक महंगी गाड़ी में अस्पताल से घर आया था।
मैंने पहली गाड़ी तीस साल की उम्र में खरीदी थी। उसमें मेरे बेटे की तो कोई गलती नहीं है। लेकिन अगर मैंने अपनी गाड़ी से किसी को सड़क पर धक्का मारा, तो वह मेरी गलती है और ऐसा मुझे नहीं करना चाहिए। जहां तक हमारी सिनेमा इंडस्ट्री में भेदभाव या गैर-पेशेवर तरीके के व्यवहार का सवाल है, तो ऐसा मेरे साथ भी हुआ है।
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बेसिर-पैर की बातें
साल 2007 से 2011 के बीच जब मैं रा-वन बना रहा था, तो उस समय के अखबारों और पत्रिकाओं में लगातार ऐसी खबरें और गॉसिप छपती थीं, जिनका इरादा मुझे कमतर साबित करना और मेरा हौसला तोड़ना था। लेकिन मुझे यह नहीं मालूम है कि ऐसी हरकतों के पीछे कौन से लोग थे, लेकिन वह सब बहुत योजनाबद्ध तरीके से सार्वजनिक तौर पर हो रहा था।
यह भी उल्लेखनीय है कि मैं वह फिल्म अपनी इंडस्ट्री के सबसे ताकतवर और लोकप्रिय अभिनेता शाहरुख खान के साथ बना रहा था, तब ऐसा किया जा रहा था। अब सुशांत सिंह की आत्महत्या का मामला ही ले, इस संदर्भ में मीडिया की भूमिका भी निराशाजनक है। आखिर ढेर सारी बेसिर-पैर की बातें सुर्खियों में चमक रही हैं।
ऐसी प्रवृत्तियों के पीछे इंडस्ट्री के लोग भी हो सकते हैं और मीडिया को भी दिलचस्पी रहती है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मीडिया जो कह रहा है, वह गलत है, पर पहले की बातों या घटनाओं को इस हादसे से जोड़ने का तुक नहीं बनता है, इस जोड़ने में तथ्य नहीं दिखायी देता।
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उदारता से हो व्यवहार
किसी भी विशेषाधिकार वाले और सुविधासंपन्न वर्ग को जिम्मेदारी से व्यवहार करना चाहिए। उन्हें यह समझना चाहिए कि जो व्यक्ति अभी इस वर्ग में या क्लब में घुसा है, उसके साथ कैसा बर्ताव होना चाहिए।
जो लोग छोटे शहरों या कस्बों से आते हैं, उनके साथ सहानुभूति और सम्मान के साथ पेश आना चाहिए ताकि वे इस नये माहौल में सहज हो सकें और अपना सामंजस्य बैठा सकें।
आखिरकार हमारी दिलचस्पी तो उसकी प्रतिभा में है, वह चाहे लेखक हो, गीतकार हो, संगीतकार हो, कलाकार हो। हमें उसकी पृष्ठभूमि या व्यक्तिगत मामलों से क्या लेना-देना होना चाहिए, लेकिन सुविधासंपन्न वर्ग इन्हीं बातों को मजाक का विषय बना देता है और लोगों के भीतर हीन भावना भर देता है।
उदाहरण के लिए, यह कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति कैसी अंग्रेजी बोलता है। आप अच्छी हिंदी या अंग्रेजी लिखते हैं, पर हो सकता है कि बोलने में क्षेत्रीय लहजा हावी हो। अब इस बात को लेकर तो आपका मजाक बनाना कतई उचित नहीं कहा जा सकता है। छोटे शहरों से आनेवाले हमारे जैसे लोगों को समझने के लिए सुविधासंपन्न वर्ग को थोड़ा अधिक प्रयास करना चाहिए।
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संतुलन बनाने की जरूरत
कई तरह की अजीब सी स्थितियां हमारे साथ भी होती हैं। लोगों के सौ-डेढ़ सौ संदेशों का जवाब नहीं दे पाता, जो ठीक नहीं है। पर यह भी सच है कि सबके जवाब देने बैठा, तो अपना काम प्रभावित होगा।
तो इसमें एक संतुलन बनाने की जरूरत है। मेरे कार्यालय के सामने घंटो नये लड़के खड़े रहते हैं। उनसे कुछ बात करने की कोशिश करता हूं। कुछ ऐसे लोगों को मैंने अपनी फिल्मों में काम भी दिया है, जो मुझे सड़कों पर मिले हैं।
इंडस्ट्री के प्रभावशाली और बड़े लोगों को इन युवाओं के साथ सकारात्मकता और उदारता से पेश आना चाहिए, जो बाहर से उम्मीद लेकर आते हैं।
यह मुंबई शहर अपने-आप में एक दैत्य सरीखा है। इसके भीतर जो बॉलीवुड की इंडस्ट्री है, वह दूसरा दैत्य है। जो अंदर हैं, उन्हें यह समझना होगा कि जो बाहर से आया है, उसका स्वागत होना चाहिए। उससे हमारा ही फायदा है। उसकी प्रतिभा से हमारी इंडस्ट्री ही और संपन्न होगी।
जो बाहर से आ रहे हैं, उनके लिए ऐसी स्थिति है कि जैसे सड़क पर तेज हेडलाइट के साथ गाड़ियां आ रही है, आपकी आंखें चौंधिया जाती हैं और आपको सड़क पार करना है। इंडस्ट्री में चमत्कार भी होते हैं, पर वह आसान नहीं होता। आपको सावधान रहकर मेहनत करनी है। इसके लिए आप तैयार हों, तभी फिल्म इंडस्ट्री का रुख करें।
(यह आलेख ‘प्रभात खबर’ मे प्रकाशित हुआ था।)
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लेखक मशहूर फिल्म निर्देशक हैं।