राम मंदिर निर्माण से क्या बाकी विवाद थम जायेगा?

सुप्रीम कोर्ट द्वारा गत पिछले साल 9 नवंबर 2019 को अयोध्या में विवादित ज़मीन का फ़ैसला सुनाते हुए वहां राम मंदिर बनाने का रास्ता साफ़ कर दिया था। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पाँच जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से यह फ़ैसला सुनाया था।

लेकिन साथ में उन्होंने यह भी कहा था कि 22/23 नवंबर 1949 की रात में जिस तरह अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद में कुछ शरारती तत्वों ने देवी-देवताओं की मूर्तियां रखी वह ग़ैर क़ानूनी कृत्य था और 6 दिसंबर 1992 को दिन दहाड़े बाबरी मस्जिद को ढाया जाना भी एक आपराधिक और अवैध कृत्य था। 

अब चूँकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 5 अगस्त को अयोध्या में विशाल राम मंदिर बनाये जाने के लिए भूमि पूजन और शिलान्यास करने की तैयारियां चल रही हैं, एक बार फिर ये सवाल उठ रहा है कि क्या अब इस मुद्दे पर पूर्ण विराम लग जायेगा? क्या इस मुद्दे का राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश नहीं की जायेगी?

क्या इसके साथ ही काशी की ज्ञानव्यापी मस्जिद और मथुरा की ईदगाह को कृष्ण जन्मभूमि बताकर उसपर क़ब्ज़ा करने की कोशिश नहीं की जायेगी? और क्या भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरुप बरक़रार रह पायेगा, जो सदियों से इस महान देश की सभ्यता, संस्कृति और सहनशीलता का रूप रहा है और जिसे ‘नज़रिया ए हिंदुस्तान’ या ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ के नाम से जाना जाता है?

पढ़े : भाजपा राज में बदल रहा है हिन्दू धर्म का चेहरा

पढ़े : क्या राम मंदिर के बदले मुसलमानों को सुरक्षा मिलेगी?

विवादित मस्जिदे हो सुरक्षित

वैसे यह सबको पता है कि 1 फ़रवरी 1986 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खोले जाने और वहां पूजा अर्चना करने की इजाज़त दी गई। उसके बाद से (जब केंद्र और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की सरकारेँ थीं और नवंबर 1989 में लोक सभा चुनावों से ऐन पहले विवादास्पद स्थान पर राम जन्मभूमि का शिलान्यास कराया गया था) इस मुद्दे को राजनीतिक रूप से भुनाने की कोशिश की गई।

भारतीय जनता पार्टी ने इससे पहले राममंदिर मुद्दे को कभी भी अपनी पार्टी का राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाया था। लेकिन 1989 में पालमपुर में हुए पार्टी अधिवेशन में बीजेपी ने पहली बार इस बारे में एक प्रस्ताव पारित किया।

तबसे लेकर 1996 में हुए आम चुनावों तक वह इस मुद्दे को अपने चुनावी घोषणा पत्रों में शामिल किया साथ ही पार्टी अस बात का ऐलान करती रही की यदि बीजेपी केंद्र में सत्ता में आई तो अयोध्या में विवादित स्थान पर राम मंदिर बनाया जायेगा। लेकिन जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार बनी तो इस मुद्दे को ‘बैक बर्नर’ पर डाल दिया गया।

यह भी सब जानते है की 1980 के दशक से, जबसे अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन शुरू हुआ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषांगिक संगठन भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल मांग करते आ रहे हैं कि मुसलमानों को अयोध्या, मथुरा और काशी में विवादास्पद मस्जिदों पर अपना दावा छोड़ देना चाहिए।

6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराने के बाद से इनकी ओर से दो नारे लगाए जाते थे, ‘अयोध्या तो झांकी है, काशी, मथुरा बाकी है’ और ‘तीन नहीं तो तीन हजार, नहीं बचेगी कोई मजार’।

पढ़े : ज्ञानवापी मस्जिद विवाद, समाज बांटने के प्रयोग कब तक?

पढ़े : काशी-मथुरा के बलबुते आस्था की राजनीति

उपासना स्थल कानून का पालन

बीते साल अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के हक़ में फैसला आने के बाद से अभी तक संघ परिवार और उसके सहयोगी संगठनों की ओर से ऐसा कोई बयान नहीं आया है जिससे माना जाए कि वे अब अन्य किसी विवादास्पद धार्मिक स्थल को लेकर कोई आंदोलन नहीं करेंगे, और देश के संविधान, कानून और अदालत की अवमानना नहीं करेंगे जो वे 1949 से अब तक कई बार कर चुके हैं। इस कारण उनके खिलाफ आपराधिक साजिश करने के मुकदमे चल रहे हैं।

यह भी उल्लेखनीय है कि 1992 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया था कि वह बाबरी मस्जिद ढांचे को कोई नुकसान नहीं होने देंगे।

बावजूद इसके उन्होंने 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद को ध्वस्त होने से बचाने का कोई कोशिश नहीं की थी। इसी वजह से उनकी सरकार बर्खास्त की गई और बाद में अदालत की अवमानना के आरोप में उन्होंने एक दिन के लिए सजा भी काटी और जेल गए।

इसके अलावा संसद द्वारा सितंबर 1991 में एक क़ानून ‘उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991’ पारित किया गया था। यह क़ानून 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता मिलने के समय मौजूद सभी धार्मिक उपासना स्थलों की यथास्थिति बनाए रखने और उन्हें  बदलने पर रोक लगाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद मामले में फैसला सुनाते हुए संसद द्वारा पारित इस क़ानून का कई बार उल्लेख किया है और कहा है की इस क़ानून को सख्ती के साथ लागु किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देश की जनता का बड़ा वर्ग यह चाहता है कि अयोध्या में भगवान राम का भव्य मंदिर बने, तो इसमें मुसलमानों सहित देश के हर धर्म, संप्रदाय, जाति, वर्ग और लिंग के लोगों को बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना चाहिए।

पढ़े : ‘पाकिस्तान जाओ’ अपमानित करने कि बीजेपी की रणनीति

पढ़े : भाजपा राज में बदल रहा है हिन्दू धर्म का चेहरा

भगवान राम इकबाल के ‘इमामे-हिंद

यह मंदिर सिर्फ आरएसएस या विश्व हिंदू परिषद का नहीं, बल्कि समूचे देश का राम मंदिर होना चाहिए जिन्हें अल्लामा इकबाल ने ‘इमामे-हिंद’ और राही मासूम रजा सहित सैंकड़ों मुसलमान शायर, कवि और साहित्यकारों ने अपना इमाम बताया है और जो रामायण और महाभारत को अपनी संस्कृति का हिस्सा मानते हैं।

लेकिन अफसोस यह है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के बारे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार ने जो तेवर अपनाये हैं उससे देश और खासकर अल्पसंख्यक समाज को कई तरह की आशंकाएं और चुनौतियां महसूस हो रही हैं।

अधिकतर लोगों का मानना है कि यह देश उसी तरह चलना चाहिए जैसा एक हजार साल से चलता आया है और आज़ादी के बाद अपना एक नया संविधान पारित करके पिछले 72 वर्षों से चल रहा है। जिस संविधान में लोकतांत्रिक, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की प्रतिबद्धता व्यक्त की गई है जिसके तहत देश के हर नागरिक को बराबर का अधिकार देने का वादा किया गया है।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 1947 में अंग्रेजों की मदद से मुसलमानों के एक वर्ग ने मुस्लिम लीग के नेता मुहंद अली जिना के नेतृत्व में पाकिस्तान हासिल कर लिया था, बावजूद इसके राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत को एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश बनाने की अपनी प्रतिबद्धता को अमली तौर पर लागू किया।

ऐसा इसलिए हो सका क्योंकि राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान महात्मा गाँधी और उनके सहयोगियों ने आज़ादी मिलने पर देश की अवाम से देश चलाने के लिए ऐसा ही संविधान और क़ानून बनाने का वादा किया था।

जाते जाते :

Share on Facebook