जवाहरलाल नेहरु कि लेखमाला :
पण्डित नेहरू स्वाधीनता संग्राम के दौरान विविध जेल में थे, तब उन्होंने अपनी बेटी इंदिरा प्रियदर्शनी के लिए कई पत्र लिखे थें, उन्हें एकत्र कर ‘Glimpses of world history’ किताब की शक्ल दी गई।
यह ग्रंथ भारत का प्राचीन और विश्व के इतिहास को देखने कि उनकी दृष्टी एक संपन्न और सर्वकालिक दृष्टिकोण प्रदान करता हैं। इस नजरिए में और दृढता प्रदान करने के लिए हम पूर्व प्रधानमंत्री द्वारा महामानवों पर लिखे गए कुछ लेखों कि श्रृखंला यहां दे रहे हैं।
यह किताब 1934 में लिखी गई थी। जिसके कुछ लेख इस लेखमाला के माध्यम से एक सूत्र में बांधकर आपको पेश कर रहे हैं। – संपादक
सम्राट अशोक की मौत के बाद मौर्य साम्राज्य बहुत दिनों तक नहीं चला। थोडे ही बरसों में वह मुरझा गया। उत्तर के सूबे अलग हो गये और दक्षिण में आंध्रवालों की एक नई ताकत पैदा हुई।
अशोक के वंशज करीब 50 बरस तक अपने अस्त होते हुए साम्राज्य पर राज्य करते रहे। अन्त में पुष्यमित्र नाम के उनके एक ब्राह्मण सेनापति ने उन्हें जबरदस्ती तख्त से उतार दिया और खुद सम्राट बन बैठा।
कहते हैं, उसके जमाने में ब्राह्मण धर्म की फिर से जागृति हुई। किसी हद तक बौद्ध भिक्षुओं पर जुल्म भी हुए। लेकिन भारत का इतिहास पढ़ने पर समझेगा कि ब्राह्मण धर्म ने बौद्ध धर्म पर बड़ी चतुराई से आक्रमण किया है।
उसने उन्हें सताने के लिए किसी भोंडी नीति से काम नहीं लिया। बौद्धों पर कुछ अत्याचार जरूर हुए। लेकिन इसका कारण संभवतः राजनैतिक था, धार्मिक नहीं।
बडो-बडे बौद्ध संघ शक्तिशाली संस्थाएं थी और बहुत से शासक उनकी राजनैतिक शक्ति से डरते हैं। इसलिए उन्होंने उनको कमजोर करने की कोशिश की। बौद्ध धर्म को उसकी जन्मभूमि से निकाल बाहर करने में ब्राह्मण धर्म आखिर में कामयाब रहा। उसने कई बातें बौद्ध धर्म से ले ली और हजम कर ली, और उसे अपने घर में स्थान देने की कोशिश भी की।
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चतुराई
इस तरह नये ब्राह्मण धर्म ने, सिर्फ़ पुरानी बातों को ही फिर से लाने की कोशिश नहीं की न जो कुछ बौद्ध धर्म में किया था उसको पुरी तरह मटियामेट करने का ही कोई प्रयत्न किया। ब्राह्मण धर्म के पुराने नेता बेहद चलाख थे। बहुत पुराने जमाने से उनका यह तरीका चला आया है कि वे दूसरे धर्म के आचार-विचारों को अपने में मिला लेते और उन्हें हजम कर जाते है।
आर्य लोग जब पहले पहल हिन्दुस्तान में आये, तब उन्होंने द्रविडों की संस्कृति और रस्म रिवाज को बहुत अंगों में अपना लिया। अपने सारे इतिहास में वे जान बूझकर या बेजाने लगातार इसी नीति का पालन करते आए हैं। बौद्ध धर्म के साथ भी उन्होंने यही किया और बुद्ध को अवतार बना दिया, बहुत से हिन्दू अवतारों में उन्हें भी एक स्थान मिल गया।
इस तरह बुद्ध तो कायम रहे, लोग उनकी पूजा करते और उनका नाम जपते रहे। लेकिन हिन्दुओं ने उनके विशेष संदेश को जनता के सामने से चुपचाप हटा दिया और बाह्मण धर्म या हिन्दू धर्म कुछ छोटी-मोटी तबदिलीयों के बाद अपने सुगम रास्ते पर फिर चलने लगा।
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बौद्ध संस्कृति का केंद्र
बौद्ध धर्म को हिन्दू धर्म का जामा पहनाने का काम बहुत दिनों तक चलता रहा। परंतु इस अवसर पर इस बात की चर्चा करना समय से पहले के सवाल को उठाना है। अशोक की मृत्यु के बाद कई सौ बरस तक बौद्ध धर्म हिन्दुस्तान में कायम रहा।
हमें इस बात पर ध्यान देने की जरूरत नहीं कि मगध में एक दूसरे के बाद कौन-कौन से राजा और राजवंश आये और गये। अशोक के मरने के बाद दो सौ बरस बाद तो मगध हिन्दुस्तान के प्रमुख राष्ट्र पर्व को भी खो बैठा। लेकिन उस समय भी वह बौद्ध संस्कृति का बहुत बड़ा केंद्र समझा जाता था।
इस बीच में उत्तर और दक्षिण दोनों जगहों पर महत्वपूर्ण घटनायें हो रही थीं। उत्तर में मध्य एशिया की कई जातियाँ, जैसे बैक्ट्रियन, शक, सीशियन, तुर्क और कुशान लोग बराबर हमले कर रहे थे। मध्य एशिया में जुदी-जुदी जातियों के झुण्ड के झुण्ड पैदा होते गये और ये लोग इतिहास में बार-बार अपना स्थान बदलते हुए सारे एशिया में और यूरोप तक फैल गये।
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जमीन तलाशते लोग
ईसा के 200 बरस पहले हिन्दुस्तान पर भी इस तरह के कई हमले हुए लेकिन यह याद रखना चाहिए, कि ये हमले महज लूट या विजय के लिए नहीं हुआ करते थे, बल्कि बसने के लिए जमीन कि तलाश में हुआ करते थे।
मध्य एशिया की इन जातियों में से बहुत सी बिना घर-बार बारवाली थी और उनकी तादाद बढ़ जाती थी, तो जिस जमीन में वे बसी होती थी यह उनके गुजारे के लिए नाकाफी हो जाती थी। इसलिए उन्हें नई जमीन की तलाश में बाहर निकलना पड़ता था।
इनके यहाँ से हटने का इससे भी ज्यादा जबरदस्त एक दूसरा कारण था। वह था पीछे से उनपर दबाव डाला जाना। एक बड़ी जाति या गिरोह दूसरी जाति या गिरोह पर हमला कर वहां से निकाल बाहर करता था और इसलिए इन निकाली हुई जातियों को दूसरी जातियों पर हमला करना जरूरी हो जाता था, इस तरह हिन्दुस्तान में जो लोग आक्रमणकारी के रूप में आये, वे अक्सर अपनी निर्वाह भूमि से भगाई हुई जातियां थीं।
जब कभी चीनी साम्राज्य में ऐसा करने की ताकत होती थी, जैसा कि हन्-वंश के जमाने में उसने किया था, तब वह भी इन खानाबदोश जातियों को निकाल बाहर कर उन्हें दूसरे देशों की तलाश के लिए मजबूर कर देता था।
यह भी याद रखना चाहिए, कि मध्य एशिया की में खानाबदोश जातियाँ हिन्दुस्तान को अपना दुश्मन देश नहीं समझती थी। उन्हें म्लेच्छ अर्थात् जंगली जरूर कहा गया है और सचमुच उस समय के भारत के मुकाबिले में ये लोग उतने सभ्य थे भी नहीं, लेकिन उनमें ज्यादातर कट्टर बौद्ध थे, जो हिन्दुस्तान को इज्जत की नजर से देखते थे, क्योंकि यहीं उनके धर्म का जन्म हुआ था।
जाते जाते :
* विश्व के राजनीतिशास्त्र का आद्य पुरुष था अल फराबी
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