आज से 14 साल पहले ईराक के पूर्व शासक सद्दाम हुसैन को फाँसी की सज़ा देने में सफलता मिली थी। मगर क्या सद्दाम को फाँसी पर चढ़ाना ज़रूरी था? इस प्रक्रिया में इन्साफ हुआ या इन्साफ का खून हुआ? इस तरह के अनगिनत सवाल ये सज़ा अपने पीछे छोड़ गई। इन सवालों के जवाब तक पहुँचने के लिए हमें सद्दाम हुसैन प्रकरण की पार्श्वभूमी पता होना बेहद ज़रूरी हैं।
सद्दाम हुसैन धार्मिक विचारों से प्रभावित ईराक के उदार विचार रखने वाले शासक थे। उनका जन्म 28 अप्रेल 1937 को बगदाद से करीब 100 मील दूर बसे तकरेत के एक छोटे से गाँव अल औजा में हुआ था। जन्म से पहले ही उन के पिता चल बसे। अल औजा में ही सद्दाम का बचपन बीता। इस गाँव में हमेशा शिया-सुन्नी के बिच संघर्ष होते रहते थे।
सद्दाम का बचपन बहुत गरीबी में गुज़रा। प्राथमिक शिक्षा उम्र के 16वे साल में पूरी हुई। उम्र के 19वे साल में ईराक के राजतंत्र के खिलाफ असफल बगावत में हिस्सा लिया था। इस के बाद उन्होंने बाथ पार्टी की सदस्यता ली। उस वक्त पार्टी पुरे अरब जगत में फैली हुई थी मगर ईराक में यह पार्टी हो कर भी ना होने के बराबर थी।
फिर 1958 में जनरल अब्दुल करीम कासिम की अगुवाई में हुई बगावत में राजा फैसल द्वितीय का तख्ता पलट हुआ। मगर जनरल को ज़्यादा दिनों तक सत्ता का सुख नहीं मिल सका। क्योंकि बाथ पार्टी उन का तख्ता पलट करने की फिराक में थी।
बाथ पार्टी को सफलता तो नहीं मिली मगर सद्दाम के नेतृत्व पर मुहर ज़रूर लग चुकी थी। इस बगावत के दौरान सीरिया के रेगिस्तानों की तरफ फरार हो गए। करीब चार सालों तक सद्दाम हुसैन मिस्र में रहे। 1963 में जब ईराक में ‘बाथ पार्टी’ सत्ता में आई तब सद्दाम अपने देश लौटे। उन्हें पार्टी के उपमहासचिव का पद दिया गया। 1969 में सद्दाम को ‘Revolutionary command council’ में स्थान मिला। इस से एक साल पहले अहमद अल हसन बक्र को ईराक के राष्ट्रपति पद पर बिठाने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई थी।
अहमद अल हसन बक्र कर दिमाग में ईराक और सीरिया को एक कर अखंड देश बनाने की योजना थी। इस के तहत तय किया गया कि ईराक का अध्यक्ष इस अखंड देश का अध्यक्ष जब कि सीरिया का अध्यक्ष इस का उपाध्यक्ष होगा।
मगर वही दूसरी तरफ सद्दाम को लगता था कि यह योजना ईराक के लिए ज़्यादा लाभदायक नहीं हैं। इस मतभेद के चलते सद्दाम ने राष्ट्रपति को इस्तीफा देने पर मजबूर किया और केवल छह दिनों के अंदर अंदर सत्ता अपने हाथों में ले ली।
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तेल की प्यास
सत्ता मिलने के बाद सद्दाम ने ईराक को एक आधुनिक राष्ट्र बनाने की दिशा में कदम बढ़ाने शुरू कर दिए। नैसर्गिक रूप से मौजूद तेल के खज़ानों का योजनाबद्ध तरीके से इस्तेमाल किया और अपनी अर्थव्यवस्था को सुधारने की कोशिश की।
बगदाद में सभी आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध की। नए व्यवसाय और उद्योगों की स्थापना की। सब से अहम बात ईराक को एक सार्वभौम राष्ट्र बनाने की कोशिश की जो अपने फैसले खुद ले सके और मुल्क की तकदीर के फैसले वॉशिंगटन में ना हो। शरीयत पर आधारित क़ानून व्यवस्था को निकाल बाहर किया।
पाश्चिमी न्यायव्यवस्था को ईराक में लागू किया। महिलाओं के लिए शिक्षा, उद्योगों और सरकारी नौकरियों के दरवाज़े खोले। पश्चिमी ढंग के कपड़े पहनने की भी इजाज़त दी। भले ही आज 21वी सदी में सद्दाम के ये काम हमें आम मालूम हो मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए के उन्होंने यह फैसले ईरान और सऊदी अरब जैसे देशों का पड़ोसी होते हुए दशकों पहले लिए।
सोवियत रूस के पतन के बाद एक ध्रुवीय विश्व रचना वजूद में आई। अमरीका दुनिया का अकेला सुपर पावर देश था। उसके हौसले बुलंद थे। उस की नज़र मध्य पूर्व एशिया के तेल के खज़ानों पर थी। पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश (सीनियर) तो तेल के व्यापारी भी थे। सऊदी अरब से कुवैत तक के तेल के भंडारों पर परोक्ष रूप से अमरीका का कब्ज़ा था।
वही सद्दाम जो एक ज़माने से अमरीका की आँखों का तारा थे। अमरीका उन का कदम कदम पर समर्थन और मदद करता था। अब तेल साम्राज्य की राह का सद्दाम काँटा लगने लगे थे। क्योंकि मध्य पूर्व एशिया में अमरीका को आँख दिखाने की हिम्मत सिर्फ सद्दाम में थी।
अमरीका की अर्थव्यवस्था हमेशा सस्ते दामों पर मिलने वाले तेल के सप्लाई पर निर्भर थी। 1973 में अरब राष्ट्रों और इज़राइल के बिच ‘सिक्स डे वॉर’ हुआ था। इस में अमरीका और अन्य मित्र राष्ट्रों ने इज़राइल का समर्थन किया था। फल स्वरुप ओपेक (Organisation of Petroleum Exporting Countries) ने पश्चिमी देशों को तेल सप्लाई करना बंद कर दिया था।
ओपेक ने जिन देशों को तेल सप्लाई करना बंद किया था उन देशों में अमरीका और पश्चिमी यूरोप के इज़राइल समर्थक देश शामील थे। इसी दौरान ओपेक ने तेल के दाम चार गुना बढ़ा दिए थे।
2004 में ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रकाशित एक डॉक्यूमेंट से पता चलता हैं कि, “ओपेक द्वारा लगाई गई पाबंदी से अमेरिकी अर्थव्यस्था की कमर टूट गई थी। इसलिए अमरीका ने सऊदी अरब और कुवैत में घुस कर वहाँ के तेल भंडारों पर कब्ज़ा करने की योजना बनाई थी।”
दुनिया की आबादी का सिर्फ 05 फिसदी हिस्सा अमरीका में रहती हैं जबकि दुनिया में उत्पादित होने वाले तेल का 25 फिसदी इस्तेमाल अकेला अमरीका करता हैं। इस से साफ़ ज़ाहीर हैं कि उसकी अर्थव्यवस्था किस हद तक तेल पर निर्भर हैं।
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अमरीका का दोगलापन
हमेशा सस्ते दामों पर तेल का मिलना अमरीका की ज़रूरत हैं और ईराक पर हमले का मुख्य कारण भी यही था। जॉर्ज बुश (जूनियर) ने ईराक हमले के जो कारण दुनिया को बताए थे वो ना तो मानने लायक थे और ना ही तार्किक। एक कारण ईराक के पास महाविनाशकारी रासायनिक हथियारों का होना था।
इन हथियारों की तलाश में संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) की एक कमिटी ने ईराक का दौरा भी किया था। जिसे ईराक में ऐसे कोई हथियार नहीं मिले। इस के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने अमरीका को ईराक पर हमला ना करने का फरमान सुनाया था, बावजूद इस के अमरीका ने हमला किया।
दूसरा कारण बताया था कि, सद्दाम अल कायदा को मदद कर रहे हैं। जब की यह आरोप झूठा था और इस में कोई तथ्य नहीं था क्योंकि सद्दाम उदार विचारों के समर्थक थे जब कि अल कायदा कट्टरवाद का समर्थन करता था। सद्दाम कभी भी किसी भी कट्टरवादी संगठन को मदद और समर्थन करने वालो में से नहीं थे।
आरोपों को साबित करने वाला कोई सबूत अमरीका पेश नहीं कर पाया था। इस के बावजूद 2003 में अमरीका की सेना ने ईराक पर हमला कर दिया। इस हमले में 22 जुलाई 2003 को सद्दाम के दोनों बेटे उदय और कुसई मारे गए। सद्दाम को भी अंडर ग्राउंड होना पड़ा। कोई भी अरब राष्ट्र अमरीका के हमले के खिलाफ या सद्दाम के साथ खड़ा नहीं हुआ। सद्दाम अकेले पड़ गए और उन के सामने अंडर ग्राउंड होने के सिवा दूसरा रास्ता नहीं बचा था।
13 दिसंबर 2003 को अमरीका ने अधिकृत घोषणा की कि उसने सद्दाम को गिरफ्तार कर लिया हैं। इस के अक्टूबर 2005 में सद्दाम पर शिया समुदाय के 148 लोगों की हत्या का आरोप लगा कर न्यायालय में उन के खिलाफ याचिका दायर की गई। यहाँ एक बात खटकती हैं कि हमला करने के समर्थन में अमरीका ने जो कारण दिए थे वह और सद्दाम पर याचिका दायर करते समय जो आरोप लगाए गए वह दोनों भिन्न थे। ऐसा क्यों?
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इन्साफ का खून
इस के बाद 05 नवंबर 2006 को ईराकी न्यायालय ने सद्दाम को फाँसी की सज़ा सुनाई। इस केस में कुछ बातें खटकती हैं। इस केस के दौरान ईराकी न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को कई बार बदला गया। सद्दाम के तीन वकीलों और एक गवाह की हत्या कर दी गई थी। जो गवाह इस केस के दौरान न्यायालय में पेश किये गए उन से सद्दाम के वकीलों को क्रॉस क्वेश्चन नही करने दिए गए क्योंकि न्यायालय का यही आदेश था।
आखिर में न्यायालय ने सद्दाम के खिलाफ 300 पेज का जो फैसला सुनाया उसे चुनौती देने के लिए सद्दाम के वकीलों को सिर्फ 15 दिनों का समय दिया गया। फैसले में कई कानूनी पेच और मुद्दे थे जिन का अभ्यास करने और उन का उत्तर देने के लिए ज़्यादा समय दरकार था। सद्दाम के वकीलों की मांग करने के बावजूद उन्हें समय बढ़ा कर देने से न्यायालय ने इनकार किया। इन सभी बातों से यही निष्कर्ष निकलता हैं कि यह पूरी न्यायिक प्रक्रिया दोषपूर्ण थी।
ईराकी क़ानून के अनुसार फाँसी की सज़ा का आदेश राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त तीन सदस्यीय कमिटी की सहमती से निकाला जाता हैं। इस में शिया, सुन्नी और कूर्द तीनों समुदायों का एक एक प्रतिनिधी होता हैं। मगर सुन्नी सदस्य फाँसी के आदेश का विरोध करेगा इस डर से अमरिकी रहमों करम पर बने ईराकी प्रधानमंत्री ने सारे अधिकार अपने पास केंद्रित कर लिए।
इसी तरह ईराकी क़ानून में यह भी प्रावधान था कि 70 साल की उम्र से अधिक वाले ईराकी को फाँसी की सज़ा नहीं दी जा सकती। 30 दिसंबर 2006 को जब संपूर्ण मुस्लिम जगत ‘ईद-उल-अज्हा’ का त्यौहार मनाने में मग्न था सद्दाम को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। अमरीका और शिया प्रधानमंत्री मलीकी को देरी मान्य नहीं थी।
ईराकी प्रधानमंत्री मलीकी द्वारा एक पत्रक प्रकाशित किया गया था, जिस में कहा गया था कि, “अगर कोई सुन्नी सोचता हैं कि वह ईराक पर फिर से राज करेंगे तो वह अपने दिमाग से यह खयाल निकाल दे।” इस कथन का अर्थ यह भी होता हैं कि शियों ने अपना बदला ले लिया। मलीकी का यह बयान ईराक की शांति, सुव्यवस्था और अखंडता पर हमला था।
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बाद की तसवीरे
सद्दाम की फाँसी के बाद अमरीका के पूर्व राष्ट्रपती जॉर्ज बुश (जूनियर) और इंग्लैंड के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने बयान जारी करते हुए कहा था कि, “ऐसा नहीं हैं कि सद्दाम की फाँसी ईराक में शांती स्थापित करने और वहाँ के हिंसाचार को कम करने में मददगार साबित होगी।”
अब यहाँ सवाल यह पैदा होता हैं कि जब सद्दाम की फाँसी से ईराक में ना हिंसाचार थमने वाला था और ना शांति स्थापित होने वाली थी तो फिर सद्दाम हुसैन को फाँसी देने में इतनी जल्दबाज़ी क्यों की गई?
न्यू यॉर्क विश्वविद्यालय में क़ानून के प्रोफेसर तथा UNO के विशेषाधिकारी रहे चुके फिलिप अलस्टोन ने बिल्कुल साफ़ शब्दों में कहा था कि, “सद्दाम हुसैन पर चलाए गए मुकदमे और उन्हें दी गई फाँसी की प्रक्रिया में न्याय का अभाव दिखाई देता हैं।” यह बयान बहुत कुछ बयान करता हैं। बस बिटवीन दी लाइन देखने की ज़रूरत हैं।
एक वक्त में अरब जगत के खास मित्र रह चुके सद्दाम को नंबर एक का शत्रु बनाने के लिए अमरीका ने 9/11 के हमले का योजनाबद्ध तरीके से इस्तेमाल किया। ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ में पत्रकार रहे चुके ‘बॉब वुडवर्ड’ ने अमरीका-ईराक हमले पर ‘प्लान ऑफ़ अटैक’ और बाद के ईराक पर ‘स्टेट ऑफ़ डिनायल’ नामक पुस्तकें लिखी थी।
इस में साफ़ तौर पर दर्ज हैं कि उस समय अमरीका में सऊदी अरब के राजदूत रहे बंदार बिन सुलतान के फार्म हाउस पर बुश सीनियर ने बुश जूनियर के राष्ट्रपति बनने से पहले एक पार्टी का आयोजन किया था। इस दौरान बुश की बंदार से हुई बातचीत के आवेश से पता चलता था कि अगर 9/11 का हमला ना भी होता तो भी बुश ईराक पर हमले की योजना बना चुके थे।
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यूरोप का दोगलापन
कूर्द नेताओं की मांग थी कि सद्दाम हुसैन पर कुर्दों के जेनोसाइड का मुकदमा चलाया जाए। मगर यहाँ सवाल यह पैदा होता हैं कि कूर्द जिन रासायनिक और जैविक हथियारों से मारे गए थे वह ईराक पास आए कहाँ से थे?
अमरीकन सीनेट की बैंकिंग, गृहनिर्माण और नागरी व्यवहार समिती की 25 मई 1994 की रिपोर्ट में रसायन ईराक को निर्यात किए जाने का ज़िक्र हैं। 1985 के पहले से जैविक हथियारों के लिए लगने वाले केमिकल अमेरिकी कंपनीयाँ लगातार ईराक को सप्लाई कर रही थी।
इन में अथ्रेक्स बनाने के लिए लगने वाले बैसीलस अथ्रासिस से ले कर ब्रूसेला मेलिटेनोसीस तक महाभयंकर केमिकल शामील हैं। वही दूसरी तरफ 1985 में इंग्लैंड ने ढाई लाख पाउंड कीमत का थिओडायग्लिकॉल (जिस से मस्टर गॅस बनती हैं) ईराक को सप्लाई किया था। इन हथियारों के इस्तेमाल के कारण बड़े पैमाने पर बेगुनाह लोग मारे गए। जिस में इंग्लैंड और अमरीका ने सद्दाम की मदद की थी।
सद्दाम हुसैन पर 148 शियों की हत्या का आरोप था। इसी को ले कर उन पर मुकदमा चलाया गया और फाँसी की सज़ा हुई। हमें यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए के उन को सद्दाम ने इसलिए सज़ा-ए-मौत दी थी क्योंकि वे बागी थे। सद्दाम का यह कदम ईराक की एकता और अखंडता को टिकाए रखने के लिए लिया गया कठोर फैसला था। सद्दाम की जगह अगर कोई भी होता, तो उसका फैसला बजलता नही।
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कथनी और करनी
अमरीका के पूर्व विदेश मंत्री कॉलीन पॉवेल ने कहा था कि, “ईराक का तेल ईराकी जनता की संपत्ती हैं।” सद्दाम की हत्या के बाद अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के उपमंत्री पॉल व्होल्फोवित्झ ने भी बयान दिया था कि, “अगले 2-3 सालों ईराकी तेल से होने वाली कमाई ईराक के पुनर्निर्माण के लिए इस्तेमाल की जाएगी।”
मगर यह सिर्फ बयान थे। इस के बाद अमरीका की कथनी और करनी में फरक को समूचे दुनिया ने देखा। हमें ये भी याद रखना चाहिए के उस समय के अमरिकी राष्ट्रपती जॉर्ज बुश जूनियर खुद तेल के व्यापारी थे और उस समय अमरीका की विदेश मंत्री रहे चुकी कोंडालिसा राईस खुद भी शेव्हरॉन नामक तेल कंपनी की संचालिका रहे चुकी हैं।
इथोपियन सेना द्वारा सोमालिया पर किया गया हमला भी अमरीका की साज़िश का ही हिस्सा था। इस में अमरीका की योजना यह थी कि रेड सी और एडन के समुद्री मार्ग से होने वाली तेल सप्लाई को आसान बनाया जाए। यही कारण था कि अमरीका की खुफिया एजेंसी CIA सोमालिया स्थित ‘अलायन्स फॉर रिस्टोरेशन ऑफ़ पीस एंड काउंटर टेररिज़म’ को हर महीने कई डॉलर सप्लाई करता था।
इस विश्लेषण से अमरीका की अरब जगत पर, वहा के तेल भंडारों पर और इस के ज़रिये पूरी दुनिया पर नियंत्रण रखने की छुपी हुई ईच्छा जग ज़ाहीर होती हैं। इस विश्लेषण के बाद यही सवाल मन में उठता हैं कि, क्या सच में सद्दाम हुसैन के साथ न्याय हुआ? या फिर इन्साफ का गला घोंटा गया? जिसे पूरी दुनिया ने खामोश रहे कर अमरीका की दादागिरी को अपना समर्थन दिया और UNO भी ईराक पर हुए अत्याचार पर मूकदर्शक बना रहा।
(लेखक के विचार निजी हैं।)
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लेखक सामाजिक विषयों के अध्ययता और जलगांव स्थित डॉ. उल्हास पाटील लॉ कॉलेज में अध्यापक हैं।