क्या हैदरअली ने वडियार राजवंश से गद्दारी की थी?

मौजुदा मैसूर कर्नाटक राज्य का एक बडा जिला हैं। केरल, तमिलनाडु कि सीमाए इससे जुडी हुई हैं। मगर 1973 तक दक्षिण भारत के वर्तमान कर्नाटक राज्य का नाम मैसूर ही था।

1953 में आजादी के बाद जब भाषिक आधार पर प्रांतरचना कि गई तो कन्नड भाषिक स्टेट के तौर पर मैसूर का पुनर्गठन हुआ। जिसके बाद में मैसूर स्टेट का नामकरण कर्नाटक किया गया ।

प्राचीन भारत में महेश कुंवरो नाम से जिस शहर का उल्लेख होता रहा है, माना जाता है कि वह वर्तमान मैसूर ही है। मैसूर कि प्राचीन काल से अपनी एक अलग राजनैतिक पहचान रही है।

मध्यकाल में विजयनगर साम्राज्य के पतन तक मैसूर उसी के अधीन रहा। ईसवी 1339 में विजयनगर के पतन के बाद दकन में सियासी उथल पुथल हुई। जिसके बाद मैसूर में यदुराया नें वडियार घराने कि राजसत्ता स्थापित की।

वडियार राजवंश में 22 हुक्मरान हुए। वडियार राजसत्ता कई बार खंडित हुई। इस परिवार ने साम्राज्यविस्तार के कोई प्रयत्न नहीं किए। वे हमेशा किसी बडी हुकूमत के अधिन रहे, या फिर उसकी मर्जी के मुताबिक राज करने में उन्होंने अपना हित समझा। कभी दकन सुभे का एक हिस्सा रहे मैसूर के वडियार सत्ता ने आदिलशाह को भी खिराज (कर) कि रकम अदा की।

आदिलशाही के पतन के बाद पुणे के पेशवाओं ने भी कई बार इनसे खिराज वसुला था। ईसवी 1799 में टिपू सुलतान के मृत्यु पश्चात इस राजवंश ने ब्रिटिश साम्राज्य का अधिनत्व स्वीकार किया। टिपू के पिता हैदरअली के राजनैतिक उदय ने इस राजवंश को संजीवनी दी।

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हैदरअली का उदय

हैदरअली का राजनैतिक सफर सन 1749 में शुरु हुआ। पिता कि मृत्यु के बाद उसका परिवार आश्रय कि खोज में श्रीरंगपट्टणम पहुंचा। जहां हैदरअली के भाई शहाबाज को मैसूर के सैना में नौकरी मिल गई। कुछ दिन बाद शहाबाज कि शिफारीश पर हैदरअली सेना में भरती हुआ।

सामान्य सैनिक के रुप में अपने राजनैतिक जीवन की शरुआत करने वाले हैदरअली को जल्द पदोन्नती मिलती गई। हैदरअली ने राजनैतिक जोखीम उठाते हुए अपनी महत्वकांक्षा की पुर्ती करता रहा। वह राजनीति में तेजी से आगे बढता गया।

हैदरअली के उदय के वक्त कृष्णराज के नेतृत्त्व में वडियार राजवंश आखरी सांसे गिन रहा था। उसका राज्य सिमट कर 33 गांवो तक सिमित हो चुका था। कर संकलन जागिरदार और पालिगारों के जिम्मे था। आर्थिक अव्यवस्था के कारण राज परिवार को अपने गहने बेचने कि भी नौबत आई थी।

शाही खजाने में सैनिकों कि तनख्वाह देने के लिए भी पैसा नहीं था। सेनापती नंदराज ने मैसूर नरेश कृष्णराज को हटाकर सत्ता हाथ में लेने के प्रयास शुरू कर दिए थे। उसने राजमहल की घेराबंदी कर गोलाबारी भी की। सन 1751 में बगावत के इसी दौर में पेशवाओं ने श्रीरंगपट्टण पर हमला किया।

सेनापती नंदराज जो सत्ता हासिल करने के लिए उतावला था, युद्ध के मैदान में जाने से घबरा रहा था। उसी समय हैदरअली ने पेशवाओं का मुकाबला करने जिम्मेदारी ली। हैदरअली ने ना सिर्फ पेशवाओं को परास्त किया बल्कि उनसे अपनी शर्तें भी मनवा ली। अपने राजा कि सत्ता पर आई इस आफत का मुकाबला कर हैदरअली ने दरबार में प्रतिष्ठा प्राप्त की।

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खंडेराव से हुआ धोका

मैसूर नरेश ने भी मौके का फायदा उठाते हुए हैदरअली को सेना की कमान सौंप दी। पूर्व सेनापती नंदराज स्वभाविक तौर पर राजनीति से बाहर हो गया। नंदराज सेनापती होने के साथ मैसूर का दिवान भी था। सेनापती पद प्राप्त होने के बाद हैदरअली ने अपने मित्र खंडेराव को दिवान बनाने कि शिफारस राजा के सामने रखी।

हैदरअली को विश्वास था कि, उसके मित्र खंडेराव के दिवान बनने कि वजह से वह आसानी से काम कर पाएगा।  मगर इसी खंडेराव ने हैदरअली के खिलाफ राजा कि कानाफुसी शुरु की। नंदराज कि तरह दिवान पद के साथ वह सेना कि कमान भी अपने हाथ में रखना चाहता था।

ईसवी 1761 में हैदरअली कि आधी सेना जब दक्षिण की मुहीम पर व्यस्त थी, तब खंडेराव ने हैदरअली पर हमला किया। उसका मुकाबला करने के अलावा हैदरअली के पास दुसरा रास्ता नहीं था। जंग हुई, परिणाम हैदरअली के पक्ष में आए। हैदरअली ने खंडेराव को कैद कर लिया। मैसूर के सर्वाधिकार अपने हाथ ले लिए।

हैदरअली ने मैसूर का सर्वाधिकारी बनने के बावजूद राजा कि प्रतिष्ठा कोई धक्का नही लगाया। इतना ही नही उन्होंने अपने आपको सिंहासन पर बिठाने कि कोशिश भी नही की। वह राज परिवार सभी प्रथाओं का सम्मान करता रहे। और इसी घटना के बाद हैदरअली का एक स्वतंत्र सेनापती के रुप में दकन कि राजनीति में उदय हुआ।

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उदय की पार्श्वभूमी

हैदरअली का उदय और उसके नवाब बनने में मैसूर नरेश कृष्णराज के छोटेसे साम्राज्य का न कोई योगदान रहा और न हैदरअलीने उसके साम्राज्य को शुरुआती दौर में अपने इलाके से जोडने कि कोशिश कि थी। इतिहासकार इरफान हबीब का कथन इस विषय में काफी विस्तृत है।

वे लिखते हैं, ‘‘यह कर्नाटक के तीन युद्धों के आरंभ की बात है (जो 1763 तक चले) जिनमें दक्षिण भारत पर कब्जे के लिए इंग्लैंड और फ्रान्स आपस में लडे।

दकन के मुगल सुबेदार पद के लिए विशेष उम्मीदवारों का समर्थन करके मैसूर कर्नाटक की दुसरी और तीसरी लडाईयों में उसी पक्ष में शामील हुआ। जिसमें फ्रान्सिसी भी शामील थें (यह पद सन 1748 में निजाम उल मुल्क आसिफजाह की मौत से रिक्त हुआ था।) तब मैसूर बराए नाम दकन के अधीन था।’’

हबीब लिखते हैं, ‘‘हैदरअली 1753 में डिंडीगुल का फौजदार नियुक्त हो चुका था और इन लडाइयों में उसने सक्रिय भाग लिया यह उसके लिए जंग के युरोपी तौर-तरिके सीखने का अवसर था और वह इनसे गहरा प्रभावित हुआ।

कहा जाता है कि उसने बहुत पहले, 1755-56 में ही, अपने तोपखाने, हथियारखाने और कार्यशाला को संगठित रुप देने के लिए फ्रान्सिसियों की सेवाएँ ली थीं।’’

कर्नाटक कि तीन जंगो में सहभागी होकर हैदर दकन कि नई राजनैतिक शक्ती कि रुप में उभर रहा था। मैसूर नरेश को न तो इस राजनीति से कोई दिलचस्पी थी और न उसमें इतना बल था कि वह इस राजनीति में अपना पक्ष रख सके।

इरफान हबीब लिखते हैं, ‘‘बलासत जंग सन 1761 में दकन का सुभेदार था, उसने हैदरअली को ‘हैदरअली खान’ उपाधी से नवाजा। हैदरअलीने बलासत जंग से सिरा की सुभेदारी हासिल की। इसके बाद बदनूर कि जंग में जित हासिल कर हैदरअली ने उसे भी अपने इलाके से जोड दिया।

एक तरफ मैसूर नरेश कि हुकूमत मैसूर, श्रीरंगपट्टण के करीबी 33 गावों तक सिमित थी, और दुसरी तरफ उससे भी कई गुना बडा क्षेत्र हैदरअली के पास था। इसके बावजूद हैदरअली ने न कभी मैसूर नरेश से उसकी सत्ता छिनने का प्रयास किया न ही उसने मैसूर नरेश को अपना राजा मानने से इनकार किया।’’

हैदरअली कि सेना जो खुद उसने खडी कि थी, फ्रान्सिसीयों के प्रशिक्षण और देसी-विदेसी हथियारों कि वजह से मैसूर कि सेना से कई गुना ताकतवर बन गई थी। इसके बावजूद हैदरअली राजा से अपनी निष्ठा कायम रखे हुआ था।

ईसवी 1766 में मैसूर नरेश के मृत्युपश्चात हैदरअली को सत्ता हथियाने के सारे रास्ते खुल थे, चूँकी मैसूर नरेश का कोई बेटा न था तो सत्ता कोई वारीस भी नहीं बचा था। हैदरअली वडीयार नरेश कृष्णराज की मृत्युपश्चात भी वडियार राजवंश से अपनी निष्ठा का इमानदारीपूर्वक प्रदर्शन करते रहे।

हैदरअली ने वडियार परिवार के संबंधीयो से ही एक लडके को गोद लिया और उसे नया नरेश घोषित कर वडियार राजवंश से अपनी प्रेम, निष्ठा और सद्भाव को दर्शाता रहा।

हैदर के आलोचक इतिहासकार जिस तरह गद्दारी के मिथक का कथित इतिहास लिखते उस तरह कि न तो वास्तविक घटनाएं है न कोई विचारप्रवृत्ती कि निशानीयां इतिहास के स्त्रोत में नजर आती हैं। बावजूद इसके साम्प्रदायिक इतिहासकार हैदरअली को धार्मिक आंदोलन के नेता के रुप प्रस्तुत करते हैं। जो कि अनैतिहासिक होने के साथ-साथ एक असमाजिक तत्व भी है।

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