नेहरू ने इस्लाम के पैग़म्बर को ‘अल् अमीन’ कहा था !

नेहरु की लेखमाला :

पंडित नेहरू के दार्शनिक विचारों ने आधुनिक भारत कि नींव को अब तक मजबूती से पकडे रखा हैं। उनके लिखे कई विचार आज भी प्रासंगिक नजर आते हैं। भारत का प्राचीन और विश्व के इतिहास को देखने कि उनकी दृष्टी एक संपन्न और सर्वकालिक दृष्टिकोण प्रदान करती हैं।

इस नजरिए में दृढता प्रदान करने के लिए हम जवाहरलाल नेहरू द्वारा महामानवों पर लिखे गए लेखों कि श्रृखंला दे रहे हैं। जो उनकी बेहतरीन पुस्तक Glimpses of world history याने ‘विश्व इतिहास कि झलक’ से लिए गए हैं। यह किताब 1934 में लिखी गई थी। जिसके कुछ लेख हम एक सूत्र में बांधकर आपके सामने पेश कर रहे हैं।  – संपादक

ह एक अजीब बात है, कि अरब कौम, जो इतने दिनों तक सो रही थी और दूसरी जगहों की घटनाओं से जाहिरा बिलकुल अलग थी, एकदम से जाग पडी, और उसने इतनी ज्यादा तेजी दिखाई कि सारी दुनिया हिल उठी, और उसमें उथल पुथल मच गई। अरब लोग एशिया, यूरोप और अमरीका में तेजी के साथ कैसे फैल गये और उन्होंने अपनी ऊँची संस्कृति और सभ्यता का किस प्रकार विकास किया, यह कहानी इतिहास के चमत्कारों में से एक है। 

जिस नई शक्ति या खयाल ने ने अरबों को जगाया, उनमें आत्मविश्वास और जोश भर दिया। इस मजहब को पैग़म्बर मुहंमद (स) ने, जो मक्का में 570 ईसवी में पैदा हुए थे, चलाया था। उन्हें इस मजहब के चलाने की कोई जल्दी नहीं थी। वह शांति की जिन्दगी गुजारते थे और मक्का के लोग उनको चाहते थे और उनपर विश्वास करते थे। 

वास्तव में लोग उन्हें ‘अल् अमीन’ या अमानतवाला कहा करते थे। लेकिन जब उन्होंने अपने नये मजहब का प्रचार शुरू किया और खासकर जब वह मक्का की मूर्तियों की पूजा का विरोध करने लगे तो बहुत से लोगों ने उनके खिलाफ बड़ा हल्ला मचाया।

आखिर उनको अपनी जान बचाकर मक्का शहर छोडना पड़ा। सबसे ज्यादा वह इस बात पर जोर देते थे कि ईश्वर सिर्फ एक है और खुद मुहंमद उसका रसूल है। 

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हिजरत का सफ़र

मक्का से अपने ही लोगों द्वारा भगा दिये जाने पर, उन्होंने ‘यसरीब’ में अपने कुछ दोस्तों और सहायकों के यहां आश्रय लिया। मक्का से उनके इस कूच को अरबी जबान में ‘हिज़रत’ कहते हैं और मुसलमानी सम्वत् उसी समय, याने सन् 622 ईसवीं से शुरू होता है।

यह हिजरी सम्वत् चान्द्र – सम्वत् है, याने इसमें चंद्रमा के अनुसार तिथियों का हिसाब लगाया जाता है। इसलिए सौ साल से, जिसका आजकल आमतौर पर प्रचार है, हिजरी साल पाँच – छः दिन कम का होता है। 

हिजरी सम्वत् के महीने हर साल एक ही मौसम में नहीं पड़ते। हिजरी सम्वत् का एक महीना अगर इस साल जाड़े में है तो कुछ वर्षों बाद वही महीना बीच गरमी में पड़ सकता है।

हम ऐसा कह सकते हैं कि इस्लाम तबसे शुरू हो, जब मुहंमद ने मक्का को छोडा, या उन्होंने ‘हिजरत’ की, याने सन् 622 ईसवीं से; हालांकि एक लिहाज से इस्लाम इसके पहले शुरू हो चुका था। 

यसरीब शहर ने मुहंमद का स्वागत किया और इस उपलक्ष में इस शहर का नाम बदलकर ‘मदीनत उन नबी’ याने  ‘नबी का शहर’ कर दिया गया। आजकल संक्षेप में इसको सिर्फ ‘मदीना’ कहते हैं।

मदीना के जिन लोगों ने मुहंमद साहब की मदद की थी, वे ‘अन्सार’ कहलाये। अन्सार का मतलब है मददगार। इन मददगारों के वंशज अपने इस खिताब पर अभिमान करते थे और अभी तक इसका इस्तेमाल करते हैं।

हिजरत के बाद सात साल के अंदर ही पैग़म्बर मक्का के स्वामी के रूप में ही वहां लौटे। इसके पहले ही वह मदीना से दुनिया के बादशाहों और शासकों के पास यह पैग़ाम भेज चुके थे कि वह एक ईश्वर और उसके रसूल को मंजूर करें।

इन बादशाहों और शासकों को बड़ा ताज्जुब हुआ होगा कि आखिर यह अनजान आदमी कौन है, जो उनके पास हुक्म भेजने की जुर्रत करता है! 

इन पैग़ामों के भेजने से ही हम कुछ अंदाज लगा सकते हैं कि मुहंमद साहब को अपने में और अपने मिशन में कितना जबरदस्त यकिन था। इसा प्रात्म – विश्वास और ईमान को उन्होंने अपनी कौम में भर दिया और इसी से प्रेरणा और सांत्वना प्राप्त करके रेगिस्तान के इन लोगों ने, जिनकी पहले कोई हैसियत नहीं थी, उस समय की आधी दुनिया को जीत लिया। 

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लोकतंत्र का सिद्धान्त

विश्वास और ईमान खुद तो बड़ी चीजें थे ही, साथ ही इस्लाम ने भाईचारे का, यानी सब मुसलमान बराबर हैं, इसका भी संदेश दिया। इस प्रकार कुछ हद तक लोकतंत्र का सिद्धान्त लोगों के सामने आया।

भाईचारे के इस संदेश ने सिर्फ अरबों पर ही नहीं, बल्कि जहां-जहां वे गये, उन अनेक देशों के निवासियों पर भी, बडा भारी असर डाला होगा। 

पैग़म्बर मुहंमद का सन् 632 ईसवीं में, हिजरत के दस साल बाद, निधन हो गया। उन्होंने अरब देश की आपस में लड़नेवाली अनेक जंगली कौमों को संगठित करके एक नया राष्ट्र बनाया और उनमें एक आदर्श के लिए जबरदस्त जोश भर दिया।

इनके बाद इनके सहयोगी व्यक्ति अबू बकर खलीफ़ा हुए। उत्तराधिकारी चुनने का यह काम ग्राम सभा में सरसरी तौर के चुनाव से होता था। 

दो साल बाद अबू बकर का निधन हो गया और उमर उनकी जगह पर खलीफ़ा बनाये गए। यह दस साल तक खलीफ़ा रहे। अबू बकर और उमर महान आदमी थे, जिन्होंने अरबी और इस्लामी महानता की बुनियाद डाली। खलीफ़ा की हैसियत से वे धर्माध्यक्ष और राजनैतिक प्रमुख, यानी बादशाह और पोप, दोनों थे। 

अपने ऊंचे ओहदे और राज्य की दिन-ब-दिन बढ़नेवाली ताक़त के होते हुए भी, उन्होंने अपने जीवन की सादगी नहीं छोड़ी और ऐश-आराम और ऊपरी शान-शौकत से कतई इनकार कर दिया।

इस्लाम का लोकतंत्र इनके लिए एक जिन्दा चीज थी। लेकिन इनके मातहत हाकिम और अमीर लोग बहुत जल्द ऐश आराम और शान-शौकत में फंस गये। अबू बकर और उमर ने किस तरह बार-बार इन अफसरों की लानत-मलामत की और उन्हें सजा दी, यहां तक कि इनकी फिजूलखर्ची पर आंसू भी बहाये, इसके बहुत से किस्से बयान किये जाते हैं।

इनकी धारणा थी कि सीधे-सादे और कठोर रहन सहन में ही इनकी ताक़त है और अगर इन्होंने कुस्तुंतुनिया और ईरान के बादशाही दरबारों के जैसा ऐश-आराम अख्तियार कर लिया तो अरब लोग भ्रष्ट हो जायंगे और उनका पतन हो जायगा। 

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सामाजिक प्रथाओं के विरोधी 

अबू बकर और उमर का शासन बारह साल रहा। लेकिन इस थोड़े से समय में ही अरबों ने पूर्वी रोमन साम्राज्य और ईरान के सासनी बादशाह दोनों को हरा दिया था। यहुदियों और ईसाइयों के पवित्र शहर यरूशलम पर अरबों ने कब्जा कर लिया था और सारा सीरिया, इराक और ईरान इस नये अरबी साम्राज्य का हिस्सा बन चुका था। 

दूसरे कुछ मजहबों के संस्थापकों की तरह मुहंमद भी उस समय की बहुत सी सामाजिक प्रथाओं के विरोधी थे। जिस मजहब का उन्होंने प्रचार किया, उसकी सादगी, सफाई, लोकतंत्र और समता की सुगंध ने पास-पास के देशों की जनता के दिलों को खींच लिया। 

निरंकुश राजाओं ने और राजाओं की ही तरह निरंकुश और जालिम पुजारियों ने जनता को बहुत दिनों से पीस रखा था। लोग पुराने ढंगों से तंग आ गये थे और तब्दीली के लिए तैयार बैठे थे।

इस्लाम ने यह तब्दीली उनके सामने रखी और इसका उन्होंने स्वागत किया; क्योंकि इसकी वजह से उनकी हालत बहुत सी बातों में बेहतर हो गई और बहुत सी पुरानी बुराइयां खत्म हो गई। 

इस्लाम के साथ कोई ऐसी बड़ी सामाजिक क्रांति नहीं पाई, जिससे जनता का शोषण खतम हो गया होता; लेकिन जहां तक मुसलमानों का संबंध था, यह शोषण वास्तव में कम हुआ और वे महसूस करने लगे कि वे सब एक ही महान बिरादरी के और भाई-भाई लोग हैं। 

इस तरह से अरब लोग एक विजय के बाद दूसरी विजय हासिल करते हुए आगे बढने लगे। अक्सर यह लोग बगैर युद्ध किये ही विजय पा लेते। दुश्मन कमजोर थे और उन्हींके आदमी उनका साथ छोड देते थे।

अपने पैगम्बर की निधन के 25 साल के अंदर ही अरबों ने एक तरफ सारा ईरान, सीरिया, आरमानिया और मध्य एशिया का छोटा सा भाग और दूसरी तरफ मिस्र और उत्तरी अफ्रिका का छोटा सा टुकडा पश्चिम में जीत लिया था।

मिस्र इन लोगो को बहुत आसानी से मिल गया, क्योंकि यह देश रोमान साम्राज्य के शोषण से और इसाई संप्रदाय की आपसी लाग-डाँट की वजह से संबसे ज्यादा पीडित था।

कहते हैं कि अरबो नें सिकंदरिया का मशहूर पुस्तकालय जला दिया था। लेकिन अब यह बात गलत समझी जाती हैं। अरबी लोग पुस्तको के बडे प्रेमी थे और इस जंगली तरह के वे कभी काम नही कर सकते थे।

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