मध्यकाल में राज्य के हर क्षेत्र में परिवर्तन कि बुनियाद रखनेवाले शासक के रुप में शेरशाह सूरी को याद किया जाता है। किसानों के प्रति उसकी सहानभूती अत्याधिक थी, जिसकी वजह से करप्रणाली की पूनर्रचना कि गयी थी।
प्रशासन में कई पदों का निर्माण किया गया था। नए अधिकारी और उनके अधिकारों कि घोषणा शासन को सुसंघटित करने के उसके प्रयास ऐतिहासिक हैं।
मध्यकालीन राज्यकर्ताओं कि छवी, साम्राज्यविस्तारक, आक्रमक और धनलोभी सामंतशाह कि रही है। राज्यस्थापना और साम्राज्यविस्तार के साथ ही राज्य की कल्पना मध्यकालीन इतिहास कि विशेषता रही है।
इतिहास कि इस वास्तविकता के बावजूद कुछ राज्यकर्ताओं ने साम्राज्यविस्तार और विजय के द्वारा राज्यस्थापना कि परंपरागत व्याख्या बदल कर रख दी थी। और जनसमर्थन से सत्ता को वैधता प्राप्त करवाने का नया मार्ग अपनाया था।
इन राज्यकर्ताओं में शेरशाह सूरी का नाम उल्लेखनीय है। शेरशाह ने मध्यकाल में भौतिक विकास कि नई संकल्पनाओं तथा प्रेरणाओं को प्रस्तुत किया।
जनकल्याण को राज्य के मुख्य प्रेरक के तौर पर विकसित किया। उसकी इसी नीति ने राज्य में लोकप्रियता तथा राज्य कि नैतिक वैधता कि प्रक्रिया को गतिमान किया।
हुमायूं और अकबर के राजनैतिक इतिहास के बीच दबा हुआ दिल्ली का यह स्वर्णिम इतिहास, स्त्रोतों कि अनुपलब्धी, अभ्यासकों कि अनास्था और इतिहासलेखन कि परंपरागत लेखनप्रणाली कि वजह से दुर्लक्षित है।
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सामान्य सैनिक से राज्यकर्ता
शेरशाह का शुरुआती जीवन कठिनाईयों भरा था। पारिवारिक कलह से उसने जीवन में काफी दुख का सामना किया। युवावस्था में ही अपने पिता से झगडकर वह घर से भागकर जौनपूर पहुंचा। जहां उसने अरबी, फारसी भाषा का गंभीरता से अध्ययन किया।
जौनपूर में कुछ ही दिनों बाद वह वापस अपने पिता से मिला, मगर उनके संबंध पूर्ववत नहीं हो सके। इसी दौरान वह कुछ कारोबार करने लगा।
शेरशाह ने जौनपूर में अपनी प्रतिभा से पिता हसन सूर और मालिक जमाल खाँ को काफी प्रभावित किया। जिसकी वजह से जमाल खाँ ने उसे अपने जागीर कि व्यवस्था सौंपी, यहीं से शेरशाह का राजनीति से करीबी संबंध प्रस्थापित हुआ।
शेरशाह ने इस जागीर कि व्यवस्था में काफी बदलाव किए, प्रशासन कि पुनर्रचना करने कि कोशिश भी करता रहा। तकरीबन 21 साल तक वह इस जागीर से जुडा रहा। ईसवीं 1520 में पिता के निधन के बाद उसने जौनपूर छोडा। इसी दौरान दक्षिणी बिहार के सुबेदार बहार खाँ लोहानी के यहां शेरशाह सैनिकी सेवा में शामिल हुआ।
बहार खाँ लोहानी ने बाबर के दिल्ली पर अधिपत्य प्राप्त करने के बाद अपने आपको स्वतंत्र शासक घोषित किया। ईसवीं 1528 में बहार खाँ का निधन हुआ। उसकी विधवा ने अपने कम उम्र के लडके को सत्ता पर बैठाया और शेरशाह को उसका संरक्षक नियुक्त किया।
शेरशाह ने ईसवीं 1530 में चुनार के किलेदार ताज खाँ कि बेवा पत्नी ‘लाड मलिका’ से विवाह किया। इस शादी से चुनार के शक्तिशाली किले पर उसका अधिपत्य प्रस्थापित हुआ और अपार धन संपदा भी हाथ लगी। धीरे–धीरे शेरशाह ने दक्षिणी बिहार पर अपना अधिपत्य प्रस्थापित किया और अफगानों को संगठित करने लगा।
शेरशाह ने अफगानों के सैनिकिकरण कि प्रक्रिया को गतिमान किया। ईसवीं 1532 में वह अफगानों का सर्वमान्य नेता बना, जिसके बाद मुग़लों को दिल्ली के सत्ता के लिए खुली चुनौती दी गयी। मात्र आठ सालों के संघर्ष के बाद वह दिल्ली पर अफगान अधिसत्ता प्रस्थापित करने में कामयाब रहा।
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परिवर्तन का नया पर्व
शेरशाह के सत्ता में आते ही दिल्ली कि राजनीति में कई बदलाव शुरु हुए। अफगानों ने इस सत्तास्थापना के द्वारा अपने भुतकालीन वैभव को पुनः प्राप्त कर लिया। प्रशासकीय संरचना जो मुग़लों कि सत्ता से प्रभावित हो चुकी थी, उसमें बदलाव किए गए। राज्य को प्रांतो में बांटा गया।
सैनिकी सूबों कि पुनर्रचना कि गयी। इन सूबों को ‘इक्ता’ के रुप में जाना जाता था। सूबे के प्रधान को हाकिम कहते थे।
सूबे का विभाजन छोटे–छोटे प्रांतीय सरकारों में किया गया था। जिसे मुग़ल काल में तहसिल या जिले का नाम दिया गया था। इन सरकारों के दो प्रमुख होते थे उनमें से एक ‘शिकदार ए शिकदारां’ और दूसरा ‘मुन्सिफ ए मुन्सिफां’ होता था।
इनमें से पहला अधिकारी प्रशासन का प्रमुख होता था। दूसरा न्यायिक व्यवस्था कि प्रस्थापना के लिए जिम्मेदार रहता था। इसके बाद तहसिलों और ग्राम कि प्रशासनिक रचना भी होती थी। जिसके प्रमुख सरकार से जुडे हुए रहते थे। गांव में स्थानिक पहरेदारों की नियुक्ती होती थी। जिन्हे चोर, डाकू और लुटेरों के खिलाफ कार्रवाई करने का आदेश दिया गया था।
सरकार के उत्पन्न के स्त्रोत मुख्यतः लगान, व्यावसायिक कर, नमक कर वगैरा थे। शेरशाह ने उत्पन्नों के संसाधनों मे कुछ बदलाव कर सरकारी व्यापार को बढावा दिया, नए कारखाने खोले गए, दूसरे राज्यों में व्यापार के लिए माल भेजा जाने लगा।
करप्रणाली कि पुनर्रचना कि गयी। माणिक लाल गुप्त लिखते हैं ‘शेरशाह कि लगान व्यवस्था के कुछ विशेष थे जिसका अध्ययन होना चाहिए। उसके लगान व्यवस्था के कुछ विशेष इस प्रकार हैं –
* उत्पादन के आधार पर भूमि का विभाजन किया गया था।
* किसान के सुविधानुसार सरकार सिक्कों या गल्ले के रुप में लगान वसूल करती थी।
* किसानों को फसल के अनुसार साल में दो बार लगान जमा करने की सुविधा प्राप्त थी।
* शेरशाह का स्पष्ट आदेश था की लगान वसूल करते वक्त किसानों से सहानभूती रखी जाए, मगर लगान नियमित रुप से वसूल हो।
* कृषी योग्य और अयोग्य भूमि का वर्गीकरण कर लगान को निर्धारित किया जाए।
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सडकें और सराय
शेरशाह ने राज्य के यातायात में काफी सुधार किए थे। नयी सडके बनाने के साथ पुराने सडकों का भी पुन:निर्माण करवाया था। माणिक लाल गुप्त लिखते हैं –
‘शेरशाह ने यातायात व्यवस्था को सुचारु रुप दिये जाने कि भरसक चेष्टा की थी। इस संबंध में उसने चार सडकों का भली–भाँती निर्माण कराया, पूरानी सडकों का नव–निर्माण कराया, मरम्मत करवाई, सडकों के दोनों और छायादार और फलों वाले पेडों को लगवाया, मुख्यत: चार प्राचीन सडकें जिन्हें नया रुप दिया गया था–
* बंगाल के सोनार गाँव से आगरा, दिल्ली, लाहौर होती हुई पंजाब में अटक पेशावर तक जाती थी।
* आगरा से बुरहानपुर जानेवाली सडक
* आगरा से जोधपूर–चित्तौड तक जानेवाली सडक
* लाहौर से मुल्तान तक जानेवाली सडक
यह सडके यातायात और डाक, व्यापार के लिए उपयोगी सिद्ध हुयी। शेरशाह ने दो–दो कोस पर सराय का निर्माण कराया गया। उसने अपने समय में तकरीबन 1700 सरायों का खडा कराया था।
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हिन्दुओं से संबंध
शेरशाह एक धार्मिक मुसलमान था, मगर उसने अपने धर्म को अन्य लोगों पर लादने कि कोशिश नहीं की। धर्मप्रसार में उसे अधिक रुची नहीं थी। हिंन्दुओं के प्रति उसके रिश्ते सन्मान वाले थे। कानुनगो लिखते हैं – ‘शेरशाह ने हिन्दुओं के प्रति धार्मिक सहिष्णुता वाली नीति को अपनाया था।’
इसी वजह से कई इतिहासकार उसे अकबर कि नीतियों का संकल्पक भी कहते हैं। शेरशाह ने यात्राकर समाप्त कर दिया और हिन्दू समाज के साथ अपने रिश्तों को नए आयाम दिए। उसने शिक्षा कि व्यवस्था को निरपेक्ष रखा।
मुसलमानों की धार्मिक शिक्षा को अन्य धर्मीयों पर लागू करने की कोशिश नहीं कि। जिसकी वजह से हिन्दू शिक्षा का प्राचीन रुप अबाधित रह सका। अकबर कि सहिष्णु राज्य कि संकल्पना उसके पूर्व शेरशाह ने पूर्ण रुप से लागू करने कि कोशिश की मगर अकालीन मृत्यु कि वजह से उसकी योजना अधुरी रही।
सन 1540 से 1545 तक अल्पकाल राज्य करने के बावजूद शेरशाह का उल्लेख भारत के महान शासकों में किया जाता है।
जाते जाते :
लेखक युवा इतिहासकार तथा अभ्यासक हैं। मराठी, हिंदी तथा उर्दू में वे लिखते हैं। मध्यकाल के इतिहास में उनकी काफी रुची हैं। दक्षिण के इतिहास के अधिकारिक अभ्यासक माने जाते हैं। वे गाजियोद्दीन रिसर्स सेंटर से जुडे हैं। उनकी मध्ययुगीन मुस्लिम विद्वान, सल्तनत ए खुदादाद, असा होता टिपू सुलतान, आसिफजाही इत्यादी कुल 8 किताबे प्रकाशित हैं।