महाराष्ट्र में 1988 में लिखी गई किताब ‘शिवाजी कोण होता?’ से पहली बार छत्रपति शिवाजी महाराज कि बहुजनप्रतिपालक प्रतीमा लोगों के सामने आई। वामपंथी विचारक कॉ. गोंविन्द पानसरे ने इस किताब को लिखा था। इस किताब के बाद शिवाजी महाराज कि प्रतिमा जन-नायक के रूप में पेश होने में मदद मिली। आज शिवाजी महाराज के जयंती के अवसर पर इस किताब के एक अध्याय के कुछ अंश हम पाठकों के लिए दे रहे हैं…
शिवाजी महाराज के राज्य अभिषेक का महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने विरोध किया था। या फिर ब्राह्मणो द्वारा मिर्जा राजे जयसिंह के विजय के कामना के लिए कोटि चण्डी यज्ञ किया गया, इससे यह निष्कर्ष निकालना पूर्णतः गलत होगा कि महाराष्ट्र रहनेवाले सभी ब्राह्मण शिवाजी विरोधी थें। यह सवाल केवल इस युग या उस ब्राह्मण समाज, व्यक्ति या उन पुरोहितों का नहीं था। मूल प्रश्न था चातुर्वर्ण धर्मव्यवस्था का, जो आज भी कायम हैं।
माना गया कि शूद्रों का जन्म प्रजापति के पैरों की धूल से हुआ है। तीनों वर्गों की सेवा करना उनका धार्मिक कर्तव्य बताया गया है। राजा ईश्वर का अंश होता है, और शूद्रों में ईश्वर का अंश होना संभव नहीं।
धार्मिक विधान है कि शूद्र राजा नहीं बन सकते। अत: धर्म का आग्रह है कि शूद्र का राजा बनना असंभव है। परंतु सनातन हिन्दू धर्म-रीति है कि मुसलमान राजा बन सकता है मात्र शूद्र राजा नहीं बन सकता। इस तर्क के अनुसार शिवाजी महाराज के राज्य अभिषेक को धर्म विरोधी माना गया।
फिर भी अनेक ब्राह्मण शिवाजी के स्वाधीन राज्य के कार्य में सहयोगी थें। रामदास ने शिवाजी को उपदेश देकर उनका मार्गदर्शन किया था या नहीं, इस पर भारी मतभेद है। इस विवाद को विद्वानो पर सौंप देते हैं परंतु इसमे की विवाद नही हैं कि दादो जी कोण्डदेव तो उनके गुरू ही थे। (इस तर्क पर काफी विवाद हैं, 2012 में पुणे स्थित लाल महल में खडी दादो जी कि प्रतिमा को उखाडा गया था। जिसके बाद अंत मे यह माना गया कि दादो जी उनके गुरू नही हैं। – संपादक) मोरोपंत पिंगले तो पेशवा पद पर विराजमान ही थे। वह एक प्रमुख मंत्री थें।
मोरोपंत, अण्णाजी दत्तो और दत्ताजी त्रिम्बक मंत्री तो थे ही, बहुत कुशल वीर भी थें। इतिहास में दर्ज है कि शिवाजी के आगरा से पलायन की रोमांचक घटना में, महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण, त्र्यम्बकपन्त डबीर और रघुनाथपंत कोरडे, बनारस के कृष्णा जी और उत्तरीय ब्राह्मण विसाजी ने बहुमूल्य सहयोग दिया था, सह बात किताबों में दर्ज हैं।
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सवाल सिर्फ ब्राह्मणों का नहीं था, सनानत हिन्दू धर्म का था। तत्कालीन मर्यादाओं का था और उन मर्यादाओं को शिवाजी ने भी स्वीकार किया और मान्यता दी। अत: पहली दृष्टि में हास्यास्पद दिखने वाली घटनाएं उस युग में आम थीं।
‘संस्कार क्षय’ आदि आरोपों के जवाब में गंगाभट्ट ने 44 वर्ष की आयु में शिवाजी महाराज का यज्ञोपवीत किया। विधि – विधान और मंत्रोच्चार के साथ उनका दोबारा विवाह कराया गया। दान-दक्षिणा के रूप में लाखों सोने की मुहरों की बर्बादी हुई और फिर राज्य अभिषेक हुआ।
शिवाजी को “हिन्दू धर्म संरक्षक” की उपाधि देने वाले, वर्तमान सभी स्वार्थी धर्मांध, यह न भूलें कि इसी हिन्दू धर्म और इसके ठेकेदारों शिवाजी के राज्य अभिषेक का विरोध किया था और 44 वर्ष की आयु में जनेऊ और विवाह को दोबारा कराने जैसी हास्यास्पद बातें करवाई थीं।
जिस प्रकार प्रत्येक महामानव को समय और परिस्थितियों की मर्यादाओं का पालन करना होता है, हिन्दूधर्मी शिवाजी को भी तत्कालीन मर्यादाओं का पालन करना पड़ा।
जोश में वस्तुस्थिति को अनदेखा कर कई बार शिवाजी को कालातीत सम्मान प्रदान कर दिया जाता है। शिवाजी का राज “धर्म – निरपेक्ष राज्य” था शिवाजी सच्चे “समाजवादी” थे आदि, हास्यास्पद बातें भी कुछ लोग कहते हैं।
स्पष्ट है कि यह सच नहीं है। सामंती समाज व्यवस्था के युग में स्वयं एक राजा बने शिवाजी का धर्मनिरपेक्ष रहना संभव नहीं था। समाजवादी रहना भी असंभव था। समकालीनों की तुलना में शिवाजी कितने गहन विचार रखते थे यह महत्वपूर्ण है।
विशेष है कि उस परिस्थिति में उन्होंने कितनी दूरदृष्टि दिखाई और परिस्थिति के अनुसार कितने प्रगतिशील कदम उठाये। राजा रहते हुए भी प्रजा का किस प्रकार मूल्यांकन किया, महत्व इस बात का है।
प्राय: सर्वविदित है कि शिवाजी महाराज का प्रथम राज्य अभिषेक ज्येष्ठ सुदी तेरस शक 1586 यानि 6 जून 1674 को रायगढ़ किले में हुआ था। परंतु एक बार और राज्य अभिषेक हुआ था।
वह प्रथम राज्य अभिषेक के लगभग तुरंत बाद ही, तीन माह की अवधि में, “ललिता पंचमी” के दिन यानि “अधन सुदी पंचमी” को हुआ। निश्चलपुरी गोसावी नामक कोई यजुर्वेदी तांत्रिक था।
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प्रथम राज्य अभिषेक के बाद वह शिवाजी महाराज से मिला। इस बीच प्रथम राज्य अभिषेक के 13 दिन बाद, शिवाजी की माता जिजाबाई का देहावसान हो गया। शिवाजी के सेनानायक प्रताप राव गुर्जर की मृत्यु हो गयी।
शिवाजी की एक पली श्रीमती काशीवाई परलोक सिधार गयी। निश्चलपुरी का मत था कि प्रथम राज्य अभिषेक के समय गंगाभट्ट ने भूलें की थीं इसलिए यह सब हुआ। उसका मत था कि गंगा भट्ट ने मुहूर्त ठीक नहीं निकाला था, देवी-देवताओं को प्रसन्न नहीं किया था, उन्हें बलि नहीं चढ़ाई थी। इसीलिए उपरोक्त विपत्तियों ने उन्हें आ घेरा था।
शिवाजी महाराज और उनके सलाहकार आस्था वाले और धर्मभीरु लोग थे। वे सभी तत्कालीन जानकारियों और ज्ञान की सीमाओं से बंधे थे। उन्होंने निश्चलपुरी के कथन को सच माना और शिवाजी का दुवारा राज्य अभिषेक हुआ और फिर बचे-कुचे देवी-देवताओं के लिए यज्ञ किया, दान किया और उन्हें संतुष्टि प्रदान की गयी। ब्राह्मणों को फिर से दक्षिणाएं दी गयीं। “एक ही व्यक्ति का दो बार राज्य अभिषेक होने की घटना दूसरी नहीं सुनने में आती।
दो-दो बार राज्य अभिषेक तथा दो-दो बार देवी-देवताओं और ब्राह्मण पुरोहितों की संतुष्टि के उपरांत भी कोई लाभ हुआ हो ऐसा नहीं दिखता। राज्य अभिषेक के बाद शिवाजी लगभग छः वर्ष तक ही जीवित रहे और एक प्रकार से उनकी अकाल मृत्यु हो गयी।
तात्पर्य केवल यह है कि उन दोनों राज्य अभिषेकों का समय और तत्कालीन जानकारियों की सीमाओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए।
जाते जाते :
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